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29 February 2020

दिल्ली में अपनी विफलता के लिए पुलिस खुद ही दोषी है- पूर्व कमिश्नर नीरज कुमार

दिल्ली के ट्रांस-यमुना इलाके में हुए दंगों और हिंसा के दृश्यों को हमने अविश्वास और निराशाजनक तरीके से टीवी पर देखा है। बड़े पैमाने पर तोड़फोड़, आगजनी और हाथापाई के चौंकाने वाले वीडियो सोशल मीडिया पर फैल रहे हैं। ये घटनाएं दिल्ली में दिन दहाड़े ऐसे हुईं, जैसे शहर में कोई कानून लागू ही नहीं था। इन घटनाओं ने पूरे देश को हिला दिया है। जिस बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच नाजुक सांप्रदायिक सौहार्द पर हम गर्व करते थे, उसके टूटने की छटपटाहट के अलावा, हमने अपनी कानून और व्यवस्था को भी भरभरा कर गिरते हुए देखा। हम मूकदर्शक के रूप में असहाय खड़े रहे।

हाल के महीनों में, दिल्ली पुलिस को बार-बार संघर्ष करते हुए पाया गया है। चाहे वह वकील-पुलिस की झड़प हो, जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों द्वारा सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का संघर्ष हो या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों के दो समूहों के बीच झड़प या शाहीन बाग का धरना। लेकिन पिछले चार दिनों में पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक झड़पों ने शांति व्यवधान के हर तरीके को बहुत पीछे छोड़ दिया है। इन सभी स्थितियों में चल रहे सिलसिलेवार घटनाक्रम स्थानीय पुलिस की अयोग्यता को ही दर्शाती है। क्या किया जाना है, इसमें स्पष्टता का अभाव है। फिर चाहे वह अस्पष्टता बल के प्रयोग में हो या संयम के प्रयोग में। चाहे वो मजबूत सुरक्षात्मक कार्रवाई के बारे में हो या कानून की मजबूत शाखा को लचीला बनाने के बारे में। पुलिस की गैर जिम्मेदाराना प्रतिक्रिया के स्पष्ट कारण हैं। आखिर क्यों पुलिस तीस हजारी कोर्ट मामले में उपद्रवी वकीलों पर सख्त कार्रवाई नहीं कर सकी, क्यों जामिया में कुछ पुलिसकर्मियों ने हद से बाहर जाकर कार्रवाई की। क्यों पुलिस जेएनयू हॉस्टल में नकाबपोश गुंडों को छात्रों पर हमला करने से नहीं रोक सकी या क्यों शाहीन बाग में सीएए प्रदर्शनकारियों के साथ भीड़ जमा होने से पहले पुलिस तुरंत उन्हें वहां से नहीं हटा सकी। कुछ मुद्दे हैं जो जवाब की बाट जोह रहे हैं। अब पूर्वी दिल्ली के कुछ अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में जिसमें 32 लोगों ने अपनी जान गंवा दी, जिसमें दिल्ली पुलिस का बहादुर हेड कॉन्स्टेबल और आईबी का एक अफसर भी था। ये मौतें दिल्ली पुलिस को अवनति की ओर ले गई हैं। इसलिए ऐसे किसी भी व्यक्ति के रूप में जो कभी इस बल का गौरवान्वित सदस्य रहा हो और खौफनाक निर्भया घटना के वक्त कुछ समय इस बल का मुखिया भी रहा हो, जिसने इन घटनाओं को अनकही पीड़ा के साथ देखा हो वह यहां जो भी लिख रहा है, भरे मन से लिख रहा है।

जहां तक मैं पुलिस बल को जानता हूं, कानून और व्यवस्था की स्थितियों से निपटने का इसका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा रहा है। 1984 के सिख विरोधी दंगों के दौरान इसकी विफलता अलग तरीके की है। वरना हिंसक भीड़ से निपटने के लिए इनका प्रयास सराहनीय था। हालांकि किसी भी रेजिमेंटेड फोर्स की तरह हमेशा यह भी अपने नेतृत्वकर्ताओं की तरह ही अच्छी या बुरी रही है। 1 जुलाई 1978 के बाद से जबसे दिल्ली पुलिस कमिश्नर सिस्टम के तहत आई तब से, दिल्ली पुलिस ने कानून और व्यवस्था की स्थितियों से निपटने में पूर्ण स्वायत्तता का आनंद लिया। केंद्र सरकार के अधीन कार्य करते हुए, दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के माध्यम से इसकी देखरेख करने वाला गृह मंत्रालय और एलजी भी दिल्ली पुलिस के रोजमर्रा के कामकाज में दखल नहीं देते हैं। दिल्ली पुलिस परिस्थितियों को देखते हुए त्वरित कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र है। इसलिए यदि आप अपने काम को नहीं आंक सकते तो यह आपका दोष है।

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फील्ड में तैनात दिल्ली पुलिस का हर अधिकारी जानता है कि बेकाबू होती किसी स्थिति से कैसे निपटा जाए और वह इससे निपटने में सक्षम है। हर अधिकारी के पास पर्याप्त अनुभव है और उनके पास वास्तविक स्थिति से निपटने का पर्याप्त प्रशिक्षण है। उन्हें इस बात का भी आत्मविश्वास है कि यदि कुछ गलत हुआ तो उनके बॉस उनके साथ खड़े रहेंगे। उन्हें स्पष्ट रूप से पता होता है कि उन्हें क्या हिदायद दी गई है। उन्हें पता होता है जब चीजें हाथ से निकल रही हों तो किस तरह दृढ़ और मजबूत होना चाहिए। इस तरह के दंगों के दौरान जो बात सामने आई है वह यह कि अनकहे निर्देशों का पालन सबसे बाद में करना चाहिए। किसी भी रेजीमेंटे फोर्स में लीडर- दिल्ली पुलिस का कमिश्नर ही वह है जो सबको एक सूत्र में बांधता है। यदि वह निर्णय नहीं ले पाता या यदि वह नैतिक साहस से परे है, या उसमें आत्मविश्वास की कमी है, तो यह संदेश नीचे की पंक्ति तक जाता है और उसका व्यक्तित्व उसके बल की प्रतिक्रियाओं में परिलक्षित होता है। मैं यह कहने का दुस्साहस कर रहा हूं कि हाल ही के महीनों में जो हमें दिखा वह यही था।

दिल्ली पुलिस संसाधनों की कमी की शिकायत नहीं कर सकती न ही यह किसी और पर उंगली उठा सकती है, खासकर तब जब कानून और व्यवस्था की स्थिति से निपटने की बात आती है। जोन, रेंज, जिले, सब-डिवीजन और पुलिस स्टेशन- ये सब पुलिस प्रशासन की इकाईयां हैं। ये सभी आकार में छोटी और मैनेज की जाने वाली इकाईयां हैं। पदानुक्रम श्रृंखला में सुपरविजन करने वाले अधिकारियों की संख्या को देखते हुए- विशेष पुलिस आयुक्त, संयुक्त पुलिस आयुक्त, जिला डीसीपी, अतिरिक्त डीसीपी, उप-विभागीय एसीपी और फिर एसएचओ आते हैं। कठिन परिस्थितियों का सामना करने के लिए न गाड़ियों की कमी है न ही किसी और प्रकार के संसाधनों की। लेकिन जब बल में नेतृत्व की कमी होती है, तो इनमें से किसी का कोई फायदा नहीं होता। इसके बाद जब कठिन परिस्थितियों से सामना होता है तो नैतिक शक्ति और उद्देश्य की भावना की कमी होने लगती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि सिपाही कमजोर नहीं होता, कमजोर सिर्फ जनरल होते हैं!

इसलिए, जरूरी है कि सरकार के पास दिल्ली के पुलिस आयुक्त के रूप में उपलब्ध सबसे सक्षम अधिकारी का चयन करने के लिए एक मजबूत प्रणाली होनी चाहिए। यह शहर देश की राजधानी भी है इसलिए सबसे अच्छे से कम में इसमें समझौता नहीं होना चाहिए। दिल्ली के लिए कमिश्नर चुनते वक्त सिर्फ योग्यता ही एकमात्र पैमाना होना चाहिए। खुदा न खास्ता, यदि पुलिस बल कमिश्नर के खिलाफ विद्रोह कर दे, और उन्हें शांत करने की कोशिश में वे उसे बंधक बना लें जैसा कि 5 नवंबर को हुआ था, इसलिए सरकार को इस घटना पर ऐसा रवैया नहीं रखना चाहिए जैसे कुछ हुआ ही न हो। यदि ऐसा होता है, तो यह उनके खुद के लिए भी खतरा है और उन असहाय नागरिकों के लिए भी संकट जैसा है,  जैसा कि दिल्ली की हाल की घटनाओं ने दिखा दिया है।

(लेखक रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी हैं और दिल्ली के पुलिस कमिश्नर भी रह चुके हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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TAGS: neeraj kumar, former Commissioner Delhi Police
OUTLOOK 29 February, 2020
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