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02 March 2016

दल से पहले देश की चिंता

गूगल

यही कारण है कि भारत की राष्ट्रीयता के प्रति जिस सोच को आगे बढ़ाया गया है उसमें एक राष्ट्र की अवधारणा के स्थान पर भारत को अनेक राष्ट्रीयताओं का संघीय देश माना गया है। वामपंथ की सभी धाराएं इस पर सहमत हैं। भारत के प्रति यही दृष्टिकोण इन छात्र संगठनों को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से बुनियादी रूप से अलग करता है। परिषद वैचारिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी है और भारत को एक राष्ट्र मानती है, जिसका आधार सांस्कृतिक एकता है। वामपंथी छात्र संगठन राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं। वे पार्टी के हित-अहित और निर्देशन से काम करते हैं। परिषद संघ से जरूर जुड़ा है लेकिन भाजपा के प्रभाव या निर्देशों से काम नहीं करता है। इसका उदाहरण है, 18 मार्च, 1974 को विधानसभा का घेराव हुआ। मुद्दा था शिक्षा में बदहाली, महंगाई और भ्रष्टाचार। आंदोलन तेज हुआ। छात्र संघर्ष समिति का गठन हुआ और इसने विधानसभा भंग करने की मांग की। वैचारिक रूप से निकट जनसंघ के लिए निर्णय का वञ्चत था। जनसंघ ने अपने सदस्यों को निर्देश दिया कि विधानसभा से त्यागपत्र दे दें। इसके 25 विधायक थे। 14 ने निर्णय माना, 11 ने इनकार कर दिया। वे निकाल दिए गए। अगर जनसंघ से परिषद नियंत्रित एवं निर्देशित होती तो पार्टी का निर्णय पहले होता परिषद उसका पालन करती। परंतु यहां उलटा हुआ। 5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में आयोजित सभा में जयप्रकाश नारायण ने आंदोलनकारी छात्रों के सामने व्यापक उद्देश्य रखा, 'संपूर्ण क्रांति’। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया। विद्यार्थी परिषद के हजारों कार्यकर्ता जेल में बंद कर दिए गए।  आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन में संघ, परिषद और सोशलिस्ट कार्यकर्ता कंधा से कंधा मिलाकार काम करते रहे। इस आंदोलन ने ऐतिहासिक परिवर्तन को जन्म दिया, कांग्रेस के राजनीतिक आधिपत्य को समाप्त करना। समाजशास्त्री प्रो. रजनी कोठारी ने भारत की दलीय व्यवस्था को 'कांग्रेस सिस्टम’ की संज्ञा दे दी थी।

विद्यार्थी परिषद ने स्थापनाकाल 1949 से शिक्षा, संस्कृति, लोकतंत्र एवं राष्ट्रीय एकता इन चार प्रश्नों को महत्व दिया है। सन 1977 में सत्ता परिवर्तन के बाद परिषद ने अहम निर्णय लिया, दो वर्षों तक छात्र संघों का चुनाव न लड़ने का। क्याेंकि आंदोलनात्मक गतिविधियों ने संगठन को लचीला बना दिया है। तब रचनात्मक कार्य का निर्णय लिया गया। परिषद के रचनात्मक कार्यों में उîार-पूर्व के छात्रों को प्रतिवर्ष भारत में भ्रमण और प्रवास कराना है। यह संगठन कुछ अपरंपरागत रीतियों के कारण भी जाना जाता है। इसमें शिक्षक ही इसके अध्यक्ष होते हैं जो संगठन को मजबूती प्रदान करता है। आज अगर परिषद की उपस्थिति जेएनयू में भी लगातार बढ़ रही है तो उसका कारण वैचारिक है। राष्ट्र विरोधी नारे एवं गतिविधियों को जो छात्र आंदोलन मानते या कहते हैं वे संभवत: भूल कर रहे हैं। राष्ट्र के अस्तित्व और अस्मिता को चुनौती देकर कोई विचारधारा अपनी जमीन नहीं बना सकती है। 

 

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TAGS: जेएनयू, वामपंथ, वैकल्पिक, ट्राटस्कीवाद, अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन, एबीवीपी
OUTLOOK 02 March, 2016
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