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20 November 2022

नजरिया: पदयात्रा राहुल या राजनीति की!

“पदयात्रा ने राहुल गांधी को बदल दिया है, जनता में देश की राजनीति बदलने के सपने को फिर जगा दिया है, कांग्रेस बदलेगी, विपक्ष भी बदलेगा और 2024 मोदी बनाम राहुल होगा”

लोग जुड़ रहे हैं। नेता पीछे छूट रहे हैं। आभामंडल आम लोगों में समा रहा है। खास की चमक जनसमुद्र के सामने फीकी पड़ रही है। राहुल ओस के मोती के समान चमक रहे हैं। यह बदलाव का दौर है। कांग्रेस के लिए, राजनीति के लिए, जनता के लिए, कद्दावर कांग्रेसियों के लिए, गांधी परिवार के लिए। क्या यही भारत जोड़ो यात्रा है?

आजाद भारत में पहली बार गांधी-नेहरू परिवार की विरासत को संभालने वाला कोई नेता सड़क पर है, जो सीधे जनता से संवाद बना रहा है, जिसने अपने इर्द गिर्द के आवरण को हटा दिया है, जिसने अपनी चकाचौंध और परिवार की ताकत को दरकिनार कर दिया है। कोई बिचौलिया नहीं। कोई सलाहकार नहीं। राहुल गांधी के निशाने पर सत्ता पक्ष भी है और विपक्ष भी। क्षत्रप भी हैं और खुद को राष्ट्रीय नेता मानने वाले मुख्यमंत्री भी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा भी निशाने पर है और वामपंथियों की सियासत भी निशाने पर है। नफरत के माहौल में बंटते-टूटते समाज को जोड़ने की कवायद करती यह पदयात्रा कितनी राजनीतिक है? या क्या यह पदयात्रा समाज को संघर्ष करने के लिए तैयार करती है, ताकि जनता खुद तय करे कि वह कैसी राजनीति चाहती है?

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क्या राहुल गांधी किसी संत की भूमिका में कांग्रेस का राहुलीकरण चाहते हैं? क्या इसीलिए वे मौजूदा कांग्रेस की राजनीति से दूर हैं? चूंकि उन्होंने सत्ताधारी कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार को और सत्ता में रहकर कांग्रेसियों के अहंकार को भी समझ लिया है? क्या इसीलिए चुनाव-दर-चुनाव गोते लगाती कांग्रेस को संभालने से उन्होंने इनकार किया और भारत जोड़ो यात्रा की राह पकड़ना ही सही समझा क्योंकि चुनावी जीत के लिए वे कांग्रेस का भाजपाकरण या खुद का मोदीकरण नहीं करना चाहते? या राहुल गांधी पारंपरिक राजनीति के समानांतर एक नई राजनीति तैयार करना चाहते हैं क्योंकि देश की संवैधानिक तथा स्वायत्त संस्थाएं अगर सत्ता का हथियार बन चुकी हैं तो चुनाव कोई लड़े, जीत मोदी सत्ता की ही होगी? विपक्ष के विरोध के स्वर की कोई जगह मीडिया में नहीं है। कांग्रेस बतौर विपक्ष क्या करे? फिर रास्ता बदलना होगा। क्या पदयात्रा जनता का राजनीतिकरण कर रही है और भारत जोड़ो यात्रा ने कांग्रेस को लीडर, काडर और आइडियोलॉजी तीनों दे दिया है? क्या राहुल की पदयात्रा सफल हो चुकी है? यह भाजपा या मोदी की सत्ता के लिए खतरे की घंटी है?

राहुल जिस धागे में देश पिरो रहे हैं, यह धागा भाजपा और आरएसएस की विचारधारा से उपजे सवालों से बना है

शायद नहीं। सवाल चुनावी राजनीति का है, चुनावी लोकतंत्र का है। उसमें राहुल गांधी की पदयात्रा कहां-कैसे फिट बैठेगी? भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को बहुत आस है, लेकिन कांग्रेस इस हकीकत को भी समझ रही है। गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम 8 दिसंबर को आएंगे। उस दिन पदयात्रा राजस्थान में पहुंच चुकी होगी। परिणाम अगर कांग्रेस के खिलाफ आए, तब राहुल की पदयात्रा का कितना राजनीतिक महत्व बचेगा? यूं भी कांग्रेस न तो गुजरात में नजर आ रही है, न हिमाचल प्रदेश में। राजस्थान जहां गहलोत ने गांधी परिवार के निर्देश नहीं माने, वहां राजनीतिक तौर पर भाजपा से कहीं ज्यादा टकराव कांग्रेस के भीतर है। गहलोत और सचिन पायलट का टकराव चरम पर है। वहां भाजपा को जीतने के लिए ज्यादा कुछ करना नहीं है।

तो क्या भारत जोड़ो यात्रा 2024 के लोकसभा चुनाव ध्यान में रखकर निकाली जा रही है? लेकिन, राज्यों में हार मिलेगी तो लोकसभा में जीत कैसे मिल सकती है? लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस-शासित राज्य, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी हाथ से निकल गए तो? पदयात्रा तो फरवरी 2023 में थमेगी। क्या भारत जोड़ो यात्रा का चुनावी राजनीति से कोई वास्ता नहीं है? या राहुल की पदयात्रा उस राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव खोज रही है, जो मुद्दों के आसरे जनता को चुनाव में धकेल तो देती है लेकिन मुद्दे खत्म नहीं होते? पांच साल के लिए सीएम या पीएम किसी बादशाह की तरह काम करते हैं, जो भ्रष्टाचार में गोते लगाते हैं, लेकिन चुनावी जीत ही ईमानदारी का पैमाना होती है। तमाम राजनीतिक दल इस दौड़ में शामिल हो जाते हैं। कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है। फिर गठबंधन की सियासत से मिली सत्ता हो या मुद्दों पर सहमति बनाकर न्यूनतम साझा कार्यक्रम के जरिये सत्ता पाना, चुनावी जीत जनता के साथ चुनावी छल-कपट पर चलती है। विचारधारा मायने नहीं रखती। चुनावी जीत या सत्ता बरकरार रखने के हथकंडे ही विचारधारा की जगह ले लेते हैं। इसके अलावा दूसरा रास्ता भी नहीं है।

दरअसल, राहुल की पदयात्रा को लेकर उठते सवालों के दायरे में चुनावी राजनीति से ज्यादा पदयात्रा के दौरान राहुल के उठाए सवालों पर गौर करने की जरूरत है- राहुल जो संवाद कर रहे हैं, जिन मुद्दों का राजनीतिकरण कर रहे हैं, जिस राजनीति पर खामोशी बरत रहे हैं। असल में राज्य-दर-राज्य पार करती भारत जोड़ो यात्रा पांच बातों को उठा रही है। पहला, मुद्दे हैं लेकिन मीडिया से गायब हैं तो जनता क्या करेगी, विपक्ष क्या करेगा। दूसरा, हर मुद्दे को चुनावी जीत-हार से जोड़कर भाजपा अपनी असफलता लगातार छुपा रही है। तीसरा, चुनावी जीत वोटरों से ज्यादा मशीनरी और मैकनिज्म पर आ टिकी है, जिसमें पूंजी का योगदान सबसे बड़ा हो चला है। चौथा, पूंजी देश की संपत्ति या जनता की संपत्ति की लूट है। बाकायदा राज्य और केंद्र की नीतियां ही भ्रष्टाचार को सिस्टम में तब्दील कर चुकी है। पांचवां, भाजपा और संघ परिवार की विचारधारा जब चुनावी जीत के लिए नफरत के बीज बो रही है, जनता को बांटकर वोटरों का ध्रुवीकरण कर रही है, तो समझना जनता को ही होगा। यानी जनता का राजनीतिकरण।

ध्यान दें तो ये सभी सवाल कांग्रेस में बदलाव खोज रहे हैं। समझा रहे हैं कि कांग्रेस को विपक्ष के तौर पर या राजनीतिक दल के तौर पर नई लकीर खींचनी होगी। मोदी की सत्ता तो कठघरे में है लेकिन कठघरे से बाहर मोदी की सत्ता का विरोध करने वालों को विपक्ष मानने की गलती से भी बचना होगा। क्षत्रपों के राजनीतिक तिकड़मों या उनके राजनीतिक दायरे को समझना है। कांग्रेस अगर क्षत्रपों के साथ खड़ी होती है तो लाभ क्षत्रपों को होता है। कांग्रेस को नुकसान सहना पड़ता है और एक वक्त के बाद क्षत्रपों की राजनीति कांग्रेस या भाजपा में फर्क नहीं देखती। वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं। इसलिए पदयात्रा जब तेलंगाना पहुंची तो यह बड़ा सवाल था कि तेलंगाना के जो मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को सीधे निशाने पर ले रहे हैं, पवार, ममता, केजरीवाल, नीतीश कुमार से मिल रहे हैं, 2024 के लिए विपक्ष की बिसात बिछाने में लगे हैं, उन पर राहुल गांधी की क्या प्रतिक्रिया होगी। लेकिन राहुल गांधी ने के. चंद्रशेखर राव को सीधे निशाने पर लिया। उन्होंने सीधे मुख्यमंत्री पर चोट की, “यहां पर भाइयों-बहनों आपके चीफ मिनिस्टर नहीं हैं, यहां राजा हैं। उनका एक ही लक्ष्य है तेलंगाना की जनता से उनकी जमीन, उनका पैसा कैसे लिया जाए। हर शाम चीफ मिनिस्टर भूमि पोर्टल देखते हैं, जो धरणी पोर्टल है कि किसने क्या खरीदा। उसमें उनको यह भी पता चल जाता है कि उन्होंने कितना खरीदा। शाम को उनकी पर्सनल रिपोर्ट मिल जाती है, कहां-कहां चीफ मिनिस्टर ने जमीन हड़पी।”

इतना तीखा हमला फिर सीधे विपक्षी एका से इनकार, “कांग्रेस टीआरएस से कोई संबंध नहीं रखेगी। यह कंफ्यूजन टीआरएस ने पैदा किया है। वे राष्ट्रीय पार्टी बनाएं,अंतरराष्ट्रीय पार्टी बनाएं, लेकिन कांग्रेस से कोई संबंध नहीं।”

असल में भारत जोड़ो यात्रा का यह पांच मंत्रों का कैनवास कांग्रेस को चुनावी राजनीति के लिए तैयार करने के बदले जनता का राजनीतिकरण करने की दिशा में उन्मुख है। अलग-अलग धर्म, जाति, संस्कृति को समेटे लोगों को एक छतरी तले कैसे लाया जा सकता है, यह कार्य एक राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है लेकिन राष्ट्रीय विचारधारा के जरिये सभी को एक धागे में पिरोया जा सकता है। इसलिए कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की सबसे बड़ी सफलता लीडर, काडर और आइडियोलॉजी को पाने की है, जो राहुल की पदयात्रा से पहले कांग्रेस में गायब थी। इसकी बारीकी को समझें तो राहुल की पदयात्रा का कैनवास गुजरात या हिमाचल का चुनाव नहीं देख रहा है। वे राजस्थान में गहलोत की तिकड़मों में भी उलझना नहीं चाहते हैं क्योंकि पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, कश्मीर में गुलाम नबी आजाद, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिधिंया या फिर जी-23 की उलझन को सुलझाने से कांग्रेस का रास्ता नहीं निकल सकता है। कांग्रेस या गांधी परिवार इस हकीकत को समझ चुका है कि जब तक नेता का कद पार्टी से बड़ा नहीं होगा या पूरी पार्टी नेता के पीछे खड़ी नहीं होगी या नेता के पीछे जनता नहीं होगी, तब तक राजनीतिक तौर पर सत्ता मिलना नामुमकिन है। ध्यान दें तो राहुल गांधी के साथ चल रहे सवा सौ कार्यकर्ता युवा कांग्रेस में दूसरी कतार के नेताओं की तर्ज पर खड़े हो रहे हैं। नेता के साथ मजबूत काडर भी खड़ा करना होगा।

राहुल जिस धागे में देश पिरो रहे हैं, उसे कांग्रेस की राष्ट्रीय विचारधारा बता रहे हैं, लेकिन असल में यह धागा भाजपा और आरएसएस की विचारधारा से उपजे सवालों को लेकर बना है। सत्ता पर भाजपा और संघ काबिज है और तमाम मुद्दे जो भारत जोड़ो यात्रा में उठ रहे हैं, उसके कठघरे में मोदी सरकार और आरएसएस की विचारधारा है। राजनीति की यही महीन लकीर राहुल की पदयात्रा का राजनीतिकरण करती है। राहुल की पदयात्रा ने काडर को खड़ा किया है। इस पदयात्रा ने राहुल को गांधी-नेहरू परिवार की विरासत की ताकत से आगे ले जाकर जमीनी और सरोकारी नेता के तौर पर मान्यता दी है, जहां कांग्रेस के अंतर्विरोध कद्दावर कांग्रेसी नेताओं को काडर बनकर काम करने की दिशा में ले जा रहे हैं। यानी चाहे-अनचाहे कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल को कांग्रेस के ऐसे नेता के तौर पर खड़ा कर दिया है जो 2024 में नरेंद्र मोदी के बरक्स खड़ा हो सके।

इसलिए पदयात्रा के निशाने पर मोदी की सत्ता के साथ गठबंधन की राजनीति भी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि जो कांग्रेस गांधी परिवार के बगैर कुछ भी नहीं, उस कांग्रेस के पास गांधी परिवार की ही पदयात्रा के अलावा कोई राजनीतिक मंत्र भी नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब में कोई कांग्रेसी नेता नहीं जिसकी मौजूदगी कांग्रेस को ताकत दे या कांग्रेस के होने का एहसास कराए। यानी लोकसभा की 543 में से 300 सीटों पर कोई कांग्रेसी नेता है ही नहीं। तो, क्या राहुल की पदयात्रा की राजनीति उसी तरह है जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष बने? या फिर राहुल की पदयात्रा समूची कांग्रेस को बदलने की ताकत रखती है क्योंकि पदयात्रा ने राहुल गांधी को बदल दिया है और जनता में देश की राजनीति बदलने के सपने को जगा दिया है। कांग्रेस बदलेगी। विपक्ष बदलेगा। और 2024 मोदी बनाम राहुल होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकारटीवी शख्सियत और टिप्पणीकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)

 
 
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TAGS: राहुल गांधी, भारत जोड़ो यात्रा, कांग्रेस, पुण्य प्रसून वाजपेई, ओपिनियन, Opinion, Punya Prasun Vajpayee, Rahul Gandhi, Bharat Jodo yatra
OUTLOOK 20 November, 2022
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