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07 April 2023

प्रथम दृष्टि: पंच परमेश्वर

“न्यायाधीशों और अदालती निर्णयों की आलोचना तो सही है मगर मंशा पर सवाल उठाना और ट्रोल आर्मी का पीछे पड़ जाना किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता”

पिछले दिनों विपक्षी सांसदों के एक समूह ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिखकर सोशल मीडिया में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डी.वाइ. चंद्रचूड़ के खिलाफ ट्रोलिंग के मद्देनजर हस्तक्षेप करने की मांग की। इन नेताओं ने कहा कि जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ महाराष्ट्र में पिछले वर्ष हुए सरकार गठन के मामले में सुनवाई कर रही है, जिसके कारण वे ऑनलाइन ट्रोलिंग के शिकार हो रहे हैं। स्वयं जस्टिस चंद्रचूड़ का मानना है कि सोशल मीडिया मौजूदा समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है। उनके अनुसार सोशल मीडिया उस समय का उत्पाद है, जब सच्चाई झूठी खबरों का शिकार हो गई है। हाल में विभिन्न अवसरों पर उन्होंने कहा कि आज हर छोटी चीज के लिए असहमत व्यक्ति से ट्रोल किये जाने का खतरा होता है। इसमें न्यायाधीशगण अपवाद नहीं हैं। उदाहरण देते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि किसी मामले की जिरह के दौरान अदालत में स्वतंत्र सुनवाई होती है जिसमें न्यायाधीश भी हिस्सा लेते हैं, लेकिन उस समय उनकी कही हर बात अंतिम नहीं होती है। फिर भी, उस दौरान व्यक्त किये विचार को सोशल मीडिया पर डाल दिया जाता है और उसके आधार पर उनका मूल्यांकन शुरू हो जाता है। उनके अनुसार, न्यायाधीश सुनवाई के दौरान मामले से संबंधित विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए ऐसा करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि आज के दौर में लोगों में धैर्य और सहनशीलता नहीं है क्योंकि वे अपने से भिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने कहा कि वे स्वयं ट्विटर से दूर रहते हैं क्योंकि न्यायाधीशों के लिए यह जरूरी है कि वे सोशल मीडिया पर चल रहे विचारों के शोरगुल से प्रभावित न हों।

उनसे पहले पूर्व प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना ने सोशल मीडिया में न्यायपालिका पर बढ़ते हमलों पर चिंता व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार को लिखा था कि केंद्रीय एजेंसियों को उनसे प्रभावी ढंग से निपटना होगा। हालांकि केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजीजू ने बाद में स्पष्ट किया कि किसी कानून के जरिये न्यायाधीशों की आलोचना को मीडिया या सोशल मीडिया में बंद करना संभव नहीं है।

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वैसे जस्टिस चंद्रचूड़ पहले न्यायमूर्ति नहीं हैं जो ट्रोलिंग का शिकार हो रहे हैं। उनसे पहले सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व न्यायाधीशों को अपने फैसलों के कारण सोशल मीडिया पर आलोचना का सामना करना पड़ा। उनके खिलाफ न सिर्फ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप लगे बल्कि आपत्तिजनक टिप्पणियां तक लिखी गईं। कुछ मामलों में संज्ञान भी लिया गया और आरोपितों के खिलाफ न्यायालय की अवमानना की कार्रवाई भी शुरू हुई, लेकिन सोशल मीडिया की ट्रोल ब्रिगेड बाज नहीं आयी।  यह सही है कि आलोचना के बगैर लोकशाही की परिकल्पना नहीं की जा सकती और न्यायपालिका को इससे अलग कर नहीं देखा जा सकता है, लेकिन यह भी देखना चाहिए कि क्या आलोचनाएं न्याय देने की प्रक्रिया में किसी कानूनी या मानवीय चूक के कारण हो रही हैं या निहित राजनीतिक या अन्य स्वार्थ के लिए। दुर्भाग्यवश, आज अधिकतर ट्रोलिंग किसी खास एजेंडे के तहत एकपक्षीय विचारों को व्यक्त करने का सोशल मीडिया ऐसा माध्यम बन गया है जिससे कोई भी प्रजातांत्रिक संस्थान अब अछूता नहीं दिखता, न्यायपालिका भी नहीं। बदलते दौर में इससे बचा नहीं जा सकता, लेकिन जो बढ़ती चिंता का सबब फिलहाल दिख रहा है वह विभिन्न मामलों में न्यायाधीशों के फैसले पर उनकी मंशा पर लगातार सवाल उठना है। आजकल अनेक अदालती निर्णयों को राजनीति के रंग में रंगने का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है।

अदालत का निर्णय अच्छा या बुरा हो सकता है, उसकी आलोचना भी बिला शक की जा सकती है, लेकिन न्यायपालिका की मंशा पर शक करना उचित नहीं। पिछले कुछ साल में न्यायालयों के अनेक निर्णयों पर विवाद हुए, लेकिन कानूनी रूप से उन्हें ऊंची अदालतों में चुनौती देने के पूर्व अधिकतर सियासी दलों ने अपनी-अपनी सुविधानुसार न सिर्फ उनकी आलोचना की है बल्कि उन्हें पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित बताया। ऐसे अवसरों पर उनके द्वारा ‘न्यायपालिका में पूर्ण आस्था’ व्यक्त करने के बावजूद सोशल मीडिया की ट्रोल सेना के शब्दों में न्यायपालिका की गरिमा का ख्याल नहीं रखा जाता। किसी भी प्रजातांत्रिक देश के लिए यह स्वस्थ परंपरा नहीं है।

यह सही है कि प्रजातंत्र के बाकी तीन स्तंभों की तरह न्यायपालिका की प्रतिष्ठा में समय के साथ ह्रास हुआ है। कई न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार सहित कई तरह के आरोप लगे हैं। अगर एक मशहूर पाश्चात्य कथन को उद्धृत करें तो जूलियस सीजर की पत्नी की तरह प्रजातंत्र के सभी स्तंभों को संदेह से परे होना चाहिए, लेकिन न्यायपालिका इकलौता स्तंभ है जिसे भारतीय संस्कृति में विशेष दर्जा प्राप्त है। यहां पंच लंबे समय से परमेश्वर समझे जाते रहे हैं। आज भी अधिकतर लोगों की देश की न्यायिक व्यवस्था में अक्षुण्ण आस्था है और तमाम शिकवे-शिकायतों के बावजूद यह आम धारणा है कि न्यायालय का दरवाजा खटखटाने से उन्हें देर-सवेर न्याय मिलेगा। ऐसी आस्था बरकरार रखने के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए।

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TAGS: आउटलुक संपादकीय, Outlook editorial, गिरिधर झा
OUTLOOK 07 April, 2023
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