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26 December 2015

बाल अपराध बढ़ाएगा किशोर (अ)न्याय विधेयक

गूगल

इस विधेयक में जघन्य अपराध को ऐसे किसी भी अपराध के रूप में परिभाषित किया गया है जिसकी सजा 7 साल या ज्यादा हो। मतलब साफ है, यह कानून सिर्फ बलात्कार और हत्याओं ही नहीं, सरकार के प्रिय अभियोग ‘देशद्रोह’ जैसे मामलों में भी बच्चों को बड़ों की जेलों में भेजने का रास्ता भर है। साफ कहें कि कड़े कानून बनने से अपराध नहीं रुकते। रुकते होते तो बलात्कार के लिए सजा में मृत्युदंड जोड़ देने के बाद बलात्कार रुकने की जगह खुद राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2013 में दर्ज कुल 33,707 मामलों से बढ़कर 2014 में 36,735 न हो जाते। हां, इस विधेयक के कानून बनने के बाद सरकारों के पास भारत के तमाम हिस्सों में चल रहे लोकतांत्रिक और गैरलोकतांत्रिक- दोनों तरह के आंदोलनों से निपटने का एक और रास्ता भर खुल गया है- यह रास्ता है इन संघर्षों में फंसे हुए बच्चों को अपने हथियार की तरह इस्तेमाल करना। आखिर कौन नहीं जानता कि भारत में सुरक्षा एजेंसियां किस तरह व्यवहार करती हैं और इस कानून के बनने के बाद उन्हें 16 से 18 साल तक के बच्चों पर देशद्रोह और भारत के खिलाफ युद्ध करने के आरोप लगाने से कौन रोक पायेगा? 

पर इस विधेयक की दिक्कत बस इतनी भर नहीं है। यह विधेयक सामंती और पितृसत्तात्मक परिवारों को उनके कड़े जातीय और खाप कानूनों को तोड़ प्रेम करने वाले युवा किशोरों पर नियंत्रण रखने का एक और बहुत कारगर हथियार मुहैया कराएगा। अफसोस कि इसमें कुछ नया भी नहीं होगा, ये परिवार घर से भागकर विवाह करने वाले दुस्साहसी युवाओं पर पहले भी अपहरण और बलात्कार के मुकदमे लगाते ही रहे हैं, अब वे इन बच्चों को किशोर सुधार गृहों की जगह वयस्क जेलों में भेजने में सक्षम हो जाएंगे। भारतीय न्यायपालिका परिवारों द्वारा बागी किशोरों को सबक सिखाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इस नुक्ते से अंजान नहीं थी। ठीक उलट, कई बार यह साफ़ होने पर कि मामला सहमति के संबंधों और परिजनों द्वारा विवाह की इजाजत न मिलने पर जोड़ों के भागने का है- उसने ऐसे जोड़ों की मदद करने की भी कोशिश की है। भारतीय अदालतें ऐसे तमाम मामलों में किशोरों को परिजनों द्वारा मानसिक और शारीरिक यातना से बचाने के लिए उन्हें परिवार को सौंपने की जगह संरक्षण गृहों में भेजती रही हैं। नए कानून के बाद उनके लिए 16 वर्ष से ज्यादा उम्र के लड़कों के मामले में ऐसा करना असंभव ही हो जाएगा। इसमें यौन संबंधों के लिए सहमति की उम्र का 18 वर्ष पर टिका रहना जोड़ दें, और ऐसे तमाम किशोरों के लिए जीवन फिर बस बंद गली ही बन के रह जाएगा।    

वस्तुतः यही विधेयक नहीं बल्कि कोई भी विधेयक ऐसे समाज में यौन हिंसा रोकने में सक्षम नहीं होगा जिसमें सामूहिक बलात्कार जैसे गंभीर आरोपों के बावजूद लोग केंद्रीय मंत्री और संसद उपसभापति जैसे पदों पर पहुंच जाते हों। हां, यह विधेयक अपने किशोर ही नहीं, बालिग बच्चों को भी अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक प्रेम संबंधों से रोक अपने हुक्म मानने में मदद जरुर करेगा। उस समाज में जिसमें फर्जी डिग्रियों से लेकर फर्जी जन्म प्रमाणपत्र तक सहज उपलब्ध हों ऐसा करना कुछ खास मुश्किल भी नहीं होगा। अफ़सोस, कि बर्बर अपराध के खिलाफ उभरे जन आक्रोश से पैदा हुआ यह विधेयक उनके लिए कम और सहमति के संबंधों में शामिल किशोरों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनेगा। उससे भी ज्यादा अफ़सोस यह कि सिर्फ उन्हीं के लिए नहीं बनेगा। यह विधेयक उन बच्चों के लिए भी बेहद खतरनाक होगा जो पीढ़ियों तक चलने वाली लड़ाइयों वाले परिवारों में पैदा हुए हैं। ग्रामीण भारत में आम बात मानी जाने वाली ऐसी लड़ाइयों के हिंसक वारदातों में बदलने के तुरंत बाद दोनों पक्षों द्वारा विरोधी पक्ष के सभी सदस्यों के खिलाफ जघन्य अपराधों (हत्या का प्रयास, गंभीर चोट पहुंचाने जैसे अपराध- उनकी भी सजा सात साल से ज्यादा है) की धाराओं में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराना एक आम बात है। इस विधेयक के बाद ऐसे तमाम किशोर भी बड़ों की जेलों में नजर आएंगे। 

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बावजूद इसके कि ये इस विधेयक में अंतर्निहित सबसे बड़े खतरे हैं, इसमें तमाम और दिक्कतें भी हैं। उदाहरण के लिए यह विधेयक तमाम अंतर्राष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन करता है। इनमें संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1989 में पारित बाल अधिकार संधि, पर यह विधेयक संयुक्त राष्ट्र संघ की सामान्य सभा द्वारा 29 नवम्बर 1985 को अंगीकृत किए गए ‘किशोर न्याय प्रशासन के लिए न्यूनतम नियम” (बीजिंग नियम) सबसे प्रमुख हैं। यह विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(3) का भी उल्लंघन करता है जिसके तहत विशेष कानून सिर्फ बच्चों के ‘हित’ में बनाये जा सकते हैं, उनके खिलाफ नहीं. इन संधियों में यह तथ्य भी जोड़ लें कि किशोर अपराधियों की उम्र कम करने के निर्णय वाले देशों में बाल अपराध दरों में कोई कमी नहीं आई है तो तस्वीर बिलकुल साफ़ हो जाती है। हां, इन सारी बातों से भी ज्यादा भयावह यह है कि इस विधेयक ने उंमाद और आक्रोश को न्यायिक और विधायिक प्रक्रिया का स्त्रोत बना दिया है। कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने यह बात लोकसभा में इस विधेयक पर चर्चा के दौरान रेखांकित भी की थी। उन्होंने कहा था कि यह विधेयक राजनैतिक लाभ के लिए न्याय को कुर्बान करने वाला विधेयक है। इस विधेयक पर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के राज्यसभा में भी विरोध और इसे ‘सेलेक्ट कमेटी’ में विचार के लिए भेजे जाने की मांग के बाद अंततः समर्थन करने को मजबूर हो जाना शशि थरूर की बात को सही साबित करता है।  

काश कि इस विधेयक के हादसे से ‘आक्रोश इंडस्ट्री’ के ‘उदारवादी’ और ‘प्रगतिशील’ नेता सीख लें कि आक्रोश और उंमाद आपराधिक न्याय व्यवस्था में सुधार का विकल्प नहीं हैं। काश कि वे समझ सकें कि भीड़ किसी को पीट पीट कर मार तो सकती है पर न्याय करना उसके बस का काम नहीं है. काश कि वे समझें कि आक्रोश कितना भी जायज हो, सभी धर्मों की दक्षिणपंथी ताकतें उसे उंमाद में बदलने में सफल हो जाएं तो सबसे ज्यादा क्षति न्याय को ही होती है। न्याय के लिए काम करने वाली न्याय व्यवस्था कि जरुरत होती है। ऐसी न्यायपालिका कि जो पीड़ित को न्याय दिलाये और आसानी से दिलाए, जहां न्याय पाने के लिए जन आक्रोश और उंमाद की जरुरत न पड़े। ऐसी न्यायपालिका की भी जहां न्याय त्वरित हो- अपने देश जैसा नहीं जहां 2014 तक केवल बलात्कार के ही 1,25,433 मामले मुकदमा शुरू होने की प्रतीक्षा में थे, और इनमें से 90,000 तो पिछले सालों से थे। तब तक बस यह उम्मीद की जा सकती है कि राष्ट्रपति महोदय इस विधेयक को सरकार को पुनर्विचार के लिए लौटा दें, उनके पद की गरिमा उन्हें इस उन्माद से मुक्त रख सकती है।  

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TAGS: दामनी, किशोर, निर्भया, अपराधी, राष्ट्रपति, विधेयक, नाबालिग, बलात्कार
OUTLOOK 26 December, 2015
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