केजरीवाल की जीत के सियासी मायने बड़े
दिल्ली में एक बार फिर आम आदमी पार्टी की सरकार बनने जा रही है। सत्ता में दोबारा प्रचंड बहुमत के साथ अरविंद केजरीवाल की वापसी के कई मायने हैं। खास तौर पर जब भारतीय जनता पार्टी 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनावों में न केवल प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई थी। बल्कि उसने दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों को जीतकर आम आदमी पार्टी को तीसरे नंबर पर धकेल दिया था। ऐसे में सबकी नजर इन चुनावों पर थी। राजनीतिक दलों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के मन में केवल यही सवाल था कि क्या नरेंद्र मोदी- अमित शाह की जोड़ी लोकसभा जैसा कमाल दिखा पाएगी। या फिर पिछले पांच साल से दिल्ली में नई तरह की राजनीति का दावा करने वाले केजरीवाल का जादू चलेगा। नतीजों से साफ है कि दिल्ली की जनता ने केजरीवाल की राजनीति को पसंद किया है। उन्होंने उनके उस मॉडल को स्वीकार कर लिया है जिसमें आम जनता को उनसे ताल्लुक रखने वाली चीजों का सीधे फायदा मिलता है। इन चुनावों से यह भी साफ हो गया है कि दिल्ली की जनता ने चुनावों में भाजपा की शाहीन बाग के नाम पर चलाई गई हिंदू-मुस्लिम राजनीति को भी अस्वीकार कर दिया है। जबकि कांग्रेस के लिए इन चुनावों में कुछ भी पॉजिटिव नहीं है। हालांकि जिस तरह से दिल्ली कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने चुनावों से दूरी बना ली थी, उसी से यह अंदाजा लग गया था कि उन्हें इन परिणामों का पहले से ही आभास था।
केजरीवाल ने चुनावों में भाजपा के राष्ट्रवाद और हिंदू-मुस्लिम एजेंडों की काट निकालने के लिए बेहद चालाकी से अपने आप को बचाए रखा। उन्होंने लगातार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-अमित शाह पर हमले किए। केजरीवाल भाजपा के उस एजेंडे में नहीं फंसे जिसमें उसकी कोशिश रहती है कि वह विपक्षी पार्टी को मतदाताओं के सामने गैर हिंदू पार्टी के रूप में स्थापित कर दे। लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली। इन चुनावों में केजरीवाल ने “सर्जिकल स्ट्राइक” के समय दिए गए बयान से बनी छवि को बदलने में कामयाबी भी हासिल की। इसके लिए उन्होंने बहुत मंजे हुए राजनीतिज्ञ की तरह कश्मीर पर धारा 370 को लेकर लिए गए फैसले का न केवल समर्थन किया बल्कि दिल्ली में नए नागरिकता कानून के विरोध में जो शाहीन बाग का मुद्दा उठा, उससे भी उनकी पार्टी ने दूरी बनाए रखी। इसके अलावा उन्होंने बार-बार मंदिर जाकर भी, भाजपा की आप को गैर हिंदू पार्टी साबित करने की रणनीति को सफल नहीं होने दिया। इस चुनाव से एक बात और साफ हो गई है कि गरीब तबका, पूरी तरह से आम आदमी पार्टी के साथ रहा। केजरीवाल को बिजली, पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में किए गए काम का पूरा फायदा निचले तबके ने उन्हें वोट देकर दिया है। जबकि पहले कांग्रेस इन गरीबों की पार्टी हुआ करती थी। लेकिन अब यह तबका आप की ओर शिफ्ट हो गया है। दूसरे इन चुनावों में अल्पसंख्यक वोट भी पूरी तरह से आम आदमी पार्टी को मिले हैं। भाजपा को लगता था कि अल्पसंख्यक वोट आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में बंटेगा, जिसका उन्हें फायदा मिलेगा। लेकिन अल्पसंख्यकों ने केजरीवाल की शाहीन बाग से बनाई दूरी को नजरअंदाज करते हुए आप को वोट दिया है।
इसके अलावा इन चुनावों में युवाओं ने भी भाजपा को नकारा है। खास तौर से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और ठीक चुनावों के पहले गार्गी कॉलेज में जो कुछ हुआ, उससे न केवल युवाओं में, बल्कि मध्यम वर्ग में भी एक संदेश गया कि, कानून-व्यवस्था के मामले में एक मजबूत छवि वाली सरकार दिल्ली में असफल हो रही है। दिल्ली पुलिस का भी रवैया बहुत खराब रहा, इन चुनावों मे उसकी छवि को बहुत झटका लगा है। जिस तरह से दिल्ली पुलिस एक पार्टी बनती नजर आई, वह भी लोगों के बीच एक गलत संदेश लेकर गया। खास तौर पर जब दिल्ली में विरोध प्रदर्शन होते हैं तो उसका रवैया काफी सख्त हो जाता है। जबकि वह खुद जब दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर धरना देती है, तो वह सख्ती अपने खिलाफ नजर नहीं आती है।
एक अहम बदलाव आम आदमी पार्टी ने भी इन पांच सालों में जो किया है, वह यह है कि उसने अपने आप को एक परिपक्व पार्टी के रूप में बदला है। जिस तरह से पहले कार्यकाल में 28 सीटें मिलने के बाद देश भर में केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की कोशिश की थी। उससे उन्हें काफी नुकसान हुआ। इसका नतीजा इन्हें पंजाब विधानसभा चुनावों में भी भुगतना पड़ा था। साथ ही इस दौरान पार्टी में गुटबाजी भी बढ़ी। केजरीवाल ने अपने कई वरिष्ठ साथियों को भी बाहर का रास्ता दिखाया, उससे पार्टी की छवि को धक्का लगा। लेकिन चुनावों के कुछ समय पहले से पार्टी ने अपनी छवि बदलने पर खासा ध्यान दिया। केजरीवाल की जो बात-बात पर केंद्र सरकार से भिड़ने की छवि बन गई थी, उसे भी दूर करने की सफल कोशिश की गई।
बड़ी जीत की एक प्रमुख वजह आम आदमी पार्टी के बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, सीसीटीवी कैमरे के जरिए सुरक्षा के वादों का जनता पर सीधा असर पड़ा है। उसे न केवल इन पांच सालों में यह वादे पूरे होते दिखे बल्कि लोगों को राहत भी मिली। इन नतीजों से आम आदमी पार्टी का नया जन्म भी होता दिखता है। अब पार्टी को जरूर ऐसा कही न कही लगेगा, कि केंद्र में भाजपा सरकार के विकल्प के रूप में पार्टी अपने को पेश कर सकती है। क्योंकि अब पार्टी नौसिखिया नहीं रह गई है। उसे दोबारा जबरदस्त बहुमत मिल गया। साथ ही यह देखना होगा कि अरविंद केजरीवाल क्या एंटी बीजेपी धड़े के लोगों के साथ खड़े होते हैं या फिर एकला चलो की रणनीति पर काम करेंगे। लेकिन केजरीवाल के लिए यह इतनी आसान राह नहीं होगी। आगे की राजनीति यह तय करेगी कि क्या उग्र राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर वोटों का विभाजन दिल्ली की तरह फेल होगा? इसका असर आने वाले दिनों में बिहार और पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनावों में दिखेगा। लेकिन भाजपा के लिए यह सीख भी है कि वह विकास के एजेंडे पर देश को ले जाए। क्योंकि कितना ही वह इकोनॉमी की वास्तविक स्थिति को दबाने की कोशिश करें, लेकिन जनता वास्तविक स्थिति को समझ रही है। इन फ्रंट पर केंद्र सरकार नाकाम हो रही है। ऐसे में, भाजपा का यह नारा कि ‘देश बदला अब दिल्ली बदलो’, जनता को रिझा नहीं पाया है। अब देखना है कि क्या दिल्ली की तरह देश भी बदलने जा रहा है, जिसका सीधा नुकसान भाजपा को हो सकता है।