मिस्टर और मिसेज जिन्ना: प्रेमकथा से ज्यादा राजनैतिक इतिहास
जिन्ना पर न जाने कितनी किताबें आ चुकी हैं। उनकी बेहद खूबसूरत पत्नी, रती पैटी पर भी कई हैं। लेकिन उनके समय के भीषण राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल भरे दौर की मौजूं घटनाओं के चयन और उनके प्रस्तुतीकरण के नजरिए से यह पुस्तक विलक्षण है। पुस्तक पढ़ने में उपन्यास जैसी लगती है, लेकिन यह गल्प नहीं है। बल्कि उस समय का सामाजिक और राजनीतिक इतिहास है। पुस्तक में अंग्रेजी वाक्य संरचना का असर ज्यादा है। कई बार वाक्य का अर्थ निकालने के लिए अनुमान का सहारा लेना पड़ता है। अनुवाद में कुछ अंश छोड़ दिए गए हैं। संभवतः पुस्तक के आकार को सीमित रखने के लिए ऐसा किया गया होगा।
एक खटकने वाली बात रती पैटी का नाम है। रती पैटी के नाम की वर्तनी को अनुवाद में रूटी पेटिट लिखा गया है। हालांकि तर्क दिया जा सकता है कि केनेडियन-फ्रेंच उच्चारण रूटी पेटिट ही है। लेकिन आम तौर पर हिंदी लेखक उनका नाम रती लिखते आए हैं और पाठक भी यही जानते आए हैं।
पुस्तक उस वक्त की खासी जानकारी देती है, जब हिंदुस्तान के पढ़े-लिखे कुलीन समाज में यूरोपीय समाज की व्यक्तिगत स्वच्छंदता के मूल्य फैशन की तरह फैल रहे थे। सेक्स के मामले में अतिनैतिकता की जगह उन्मुक्तता की प्रशंसा होने लगी थी। प्रेम विवाह की प्रवृत्ति बढ़ रही थी, जिसे मान्यता देने के लिए स्पेशल मैरिज एक्ट बन गया था। लेकिन पारसी समुदाय अपने युवक-युवतियों की समुदाय से बाहर शादी को लेकर कुपित रहता था। किसी पारसी की मुसलमान के साथ शादी की कोई नजीर नहीं थी। जिन्ना ने जब रती के पिता और अपने मित्र सर दिनशॉ से उनकी बेटी के साथ शादी करने की मंशा जताई तो तमाम आधुनिकता के पक्षधर होते हुए भी वे बहुत नाराज हुए और शादी रोकने के लिए जिन्ना पर धन के लालच में बेटी के अपहरण का इल्जाम लगाते हुए मुकदमा तक ठोक दिया।
जिन्ना ने रती के 18 साल की होने का इंतजार किया और रती के 18 साल के होते ही दोनों ने गुपचुप शादी कर ली। रती के पिता दिनशॉ को इसका पता अखबार से लगा। पारसी समाज में भूचाल आ गया। उनकी शादी को ‘ब्लैक फ्राइडे’ की संज्ञा दी गई। रती से पारसी समाज, परिवार ने नाता तोड़ लिया। बंबई में ‘ब्लू फ्लॉवर’ के रूप में सराही जाने वाली रती रातोरात अछूत बन गई।
प्रेम करना संभवतः रती की फितरत थी, लेकिन जिन्ना रसिक वृत्ति के नहीं थे। वे केवल काम में लगे रहने में यकीन करते थे। उन पर राजनीतिक, विधायी और अदालती कामों का बोझ था। ऐसे में वह बेमेल शादी कैसे और कब तक खिंची, इसे लेकर पुस्तक निरंतर उत्सुकता जगाए रखती है।
प्रथम विश्व युद्ध खत्म हो जाने के बाद भारतीय राजनीति नया रूप ले रही थी। गांधी शिखर नेता बनते जा रहे थे। उन्हें खिलाफत आंदोलन के जरिए हिंदू-मुसलमानों को एकजुट करने में असाधारण सफलता मिली थी। रोलट एक्ट के विरोध और असहयोग आंदोलन की वजह से सारे देश में राष्ट्रीय भावना का संचार हो चुका था और आंदोलनों में आम लोग भी बड़ी संख्या में भाग ले रहे थे। जिन्ना को न चाहते हुए भी गांधी का साथ देना पड़ रहा था। पुस्तक में राजनीतिक विवरण रती के वैवाहिक रिश्ते में आ रहे खटराग से भी ज्यादा रोमांचक हैं। मुस्लिम लीग में गांधी समर्थक जिन्ना को जलील करने लगे थे। अपने ऊपर उछाले जा रहे कीचड़ से वे एक बार इतने हताश हुए कि रो पड़े। उधर रती का व्यवहार उन्हें मानसिक तौर पर उद्विग्न कर रहा था। अंततः वह जिन्ना को छोड़कर चली गई। शादी के ग्यारह साल बाद ठीक 29वें जन्मदिन पर उनकी मौत हुई। कयास लगे कि नींद की गोलियां खाकर उसने आत्महत्या की होगी। रती के न रहने का जिन्ना के राजनीतिक जीवन पर गहरा असर पड़ा। रती के एक जीवनीकार कांजी द्वारकादास का मानना था कि यदि रती जिंदा रहती तो जिन्ना कभी सांप्रदायिक न होते।