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29 May 2021

स्मृति : सूना-सूना-सा संस्कृति का आंगन

महामारी कोविड-19 की तबाही से जीवन जगत का कोई क्षेत्र बाकी नहीं है। लेकिन उससे भी ज्यादा मार वर्षों से उपेक्षित स्वास्थ्य तंत्र के बुरी तरह नाकाम हो जाने से हुई। अनेक मौतें अस्पताल में दाखिले न होने, ऑक्सीजन और दवाइयां न मिलने से हुईं। स्वास्थ्य तंत्र और समूची व्यवस्था की यह खस्ताहाली इतनी दर्दनाक और घातक साबित हुई, जिसका दंश लंबे समय तक समाज और देश को भुगतना पड़ेगा। इसका सबसे ज्यादा असर सांस्कृतिक और बौद्धिक क्षेत्र में हुआ है, जिसकी भरपाई संभव नहीं है क्योंकि संस्कृति का निर्माण एक दिन में नहीं होता। संस्कृति हमारी सभ्यता का आईना होती है। संयोग यह भी है कि कोरोनावायरस का संबंध जितना पर्यावरण और चिकित्सा शास्त्र से है, उससे अधिक सभ्यता विमर्श से है। आखिर हम कैसी सभ्यता बना रहे हैं? लेखकों, विचारकों और संस्कृतिकर्मियों ने इन प्रश्नों पर हमेशा विचार किया है। महामारी की दूसरी लहर में तो देश के कई नामी-गिरामी कलाकार लेखक, चित्रकार, बुद्धिजीवी हमसे विदा हो गए। इस साल अप्रैल में लेखकों, कलाकारों के निधन की खबरों की मानो झड़ी-सी लग गई। यह सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा है। यह क्षति काफी व्यापक और देश के हर क्षेत्र में है। यहां कुछेक की चर्चा हो पाई है मगर हम सबके प्रति अपना शीश नवाते हैं।

 माधुरी के पूर्व संपादक तथा हिंदी में पहला थिसारस बनाने वाले अरविंद कुमार, ज्ञानपीठ से सम्मानित कवि शंख घोष, ओडिया के प्रख्यात लेखक मनोज दास से लेकर प्रख्यात सितारवादक देबू चौधरी, उनके सितारवादक पुत्र प्रतीक चौधरी, शास्त्रीय गायन के बनारस घराने के स्तंभ पंडित राजन मिश्र, लोकप्रिय लेखक नरेंद्र कोहली, प्रख्यात कथाकार-नाटककार रमेश उपाध्याय, इतिहासकार लेखक लालबहादुर वर्मा, उर्दू के आलोचक-नाटककार शमीम हनफी, वयोवृद्ध कवि-चित्रकार विजेंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ के स्तंभ प्रकाश दीक्षित, वरिष्ठ आलोचक कृष्ण दत्त शर्मा, प्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार मंजूर एहतेशाम, चर्चित लेखक तथा जाने-माने चित्रकार प्रभु जोशी, आलोचक रेवती रमण, केदारनाथ अग्रवाल साहित्य के संपादक अशोक त्रिपाठी, आधारशिला पत्रिका के संपादक दिवाकर भट्ट, नृत्य समीक्षक सुनील कोठारी, जय झरोटिया से लेकर शायर जहीर कुरैशी, हिंदी उर्दू के लेखक मुशर्रफ आलम जौकी, रंगकर्मी अजहर आलम, चित्रा सिंह, कवि गजलकार कुमार नयन जैसे लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की लंबी फेहरिस्त है जो इस महामारी में इस सिस्टम के ध्वस्त हो जाने के कारण इस दुनिया से चले गए।

पंडित रविशंकर और विलायत खान के बाद जिस शख्स ने सितार को लोकप्रिय बनाया वे देबू चौधरी थे। बांग्लादेश में जन्मे आठ नए रागों की रचना करने वाले सेनिया घराने के सितारवादक अगर आज जीवित रहते तो संगीत की दुनिया को नई ऊर्जा मिलती। उनके निधन से देश में सितार का एक और तार टूट गया। पिछले 40 साल से राजन-साजन मिश्र की जोड़ी हिंदुस्तानी संगीत के सुरों से दुनिया भर के श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किए हुए थी। यह शंकर-जयकिशन की जोड़ी की तरह थी जिसमें एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। राजन मिश्र बनारस की पहचान थे।

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राजन-साजन मिश्र जैसे साधकों की तरह हिंदी में शब्द साधक भी रहे हैं। एक जमाना था जब हिंदी में शब्द साधकों की लंबी परंपरा थी, जो कोश के निर्माण कार्य से जुड़े थे। इनमें रामचंद्र वर्मा, हरदेव बाहरी और फादर कामिल बुल्के जैसे लोग शामिल थे। माधुरी के पूर्व संपादक अरविंद कुमार इसी परंपरा के शब्द साधक थे। दिल्ली प्रेस में टाइप-सेटर, प्रूफ-रीडर से 1963 में माधुरी के संपादक बनने वाले अरविंद कुमार ने शब्दों को जिंदा रखने का जो काम किया है, वह भाषा, सभ्यता, संस्कृति निर्माण का हिस्सा है। एक और वज्रपात नरेंद्र कोहली के रूप में हुआ, जिनके पाठकों का एक विशाल वर्ग था। उन्होंने साहित्य में मिथकों का पुनर्पाठ कर भारत की सभ्यता को प्रस्तुत करने का प्रयास किया। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े प्रकाश दीक्षित तो 400 कहानियां और तीस किताबें लिखकर साहित्य की दुनिया में ग्वालियर के कोने में पड़े रहे। उनकी ही परंपरा में दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राध्यापक तथा आलोचक डॉ. कृष्ण दत्त शर्मा रहे। शर्मा ने ड्राइडन, कॉलरिज, इलियट, रामविलास शर्मा और मुक्तिबोध की आलोचना-दृष्टियों पर लेख और किताबें लिखी थीं। उन्होंने कुछ दिन पहले रामविलास शर्मा की रचनावली का संपादन पूरा किया था।

 प्रगतिशील मूल्यों में विश्वास करने वाले 86 वर्षीय कवि विजेंद्र ने ‘सौंदर्यशास्त्र: भारतीय चित्त और कविता’  शीर्षक से आलोचना-पुस्तक लिखकर भारतीय सौंदर्य शास्त्र की व्याख्या की। फ्रांस के विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक रायमो एरोन के शिष्य लालबहादुर वर्मा ने इतिहास को जनता से जोड़ने और लोगों में सही ऐतिहासिक समझ विकसित करने का काम किया, क्योंकि आज के दौर में इतिहास को ही सबसे अधिक भ्रष्ट किया गया है। वे राहुल सांकृत्यायन, वासुदेवशरण अग्रवाल, भागवतशरण उपाध्याय और ईश्वरी प्रसाद की परंपरा के इतिहासकार थे, जो हिंदी में लिखना पसंद करते थे। वे सही अर्थों में जन इतिहासकार थे। कहा जाता है कि उनकी मुलाकात सात्र से भी हुई थी।

1962 से लिखने वाले रमेश उपाध्याय पूंजीवादी समाज, बाजार और भूमंडलीकरण के कटु आलोचक थे। ऐसे लेखकों की जरूरत हर समाज को रहती है जो शासक वर्ग से सवाल कर सकें। लेकिन आज ऐसे लोग ही सत्ता के दमन के शिकार हो रहे हैं।

 जिस तरह रमेश उपाध्याय को अस्पताल में आइसीयू बेड मिलने में दिक्कत हुई, उसी तरह चर्चित चित्रकार, कथाकार तथा रेडियो प्रस्तोता प्रभु जोशी को अस्पताल में बेड मिलने में दिक्कत हुई। प्रभु जोशी को तो एंबुलेंस में ही जान गंवानी पड़ी। वे इंदौर शहर की पहचान थे। क्या प्रभु जोशी के बिना इंदौर शहर का वही रंग रहेगा? क्या हिंदी के आलोचक रेवती रमण के बिना मुजफ्फरपुर वही रहेगा, जो पहले था। वहां जानकीवल्लभ जोशी और गीतकार राजेंद्र प्रसाद सिंह के बाद राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय लेखक रेवती रमण ही थे। कस्बों के सांस्कृतिक निर्माण में ऐसे लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। क्या रेवती रमण की तरह मंजूर एहतेशाम के बिना भोपाल वही रह पाएगा? उनका चर्चित उपन्यास सूखा बरगद 35 साल पहले भारतीय समाज में मुस्लिम समुदाय की गहरी पीड़ा और विस्थापन का बेजोड़ दस्तावेज था। बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद यह पीड़ा गहरी हुई है। वह उपन्यास उसी तरह सराहा गया जिस तरह शानी का काला जल और विनोद कुमार शुक्ल का नौकर की कमीज। उस उपन्यास का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और अंग्रेजी में उसके अनुवाद ने मंजूर भाई की ख्याति में चार चांद लगा दिए। दस्ताने लापता से वे और चर्चा में आए। उसके अंग्रेजी अनुवाद को न्यूयार्क टाइम्स ने उस समय का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बताया था। वे सांप्रदायिक सौहार्द, भाईचारे और मुहब्बत के प्रतीक थे जो इस मुल्क की साझी विरासत को बचाए रखना चाहते हैं।

हिंदी उर्दू के चर्चित अफसानानिगार मुशर्रफ आलम जौकी तो मात्र 59 वर्ष की उम्र में चल बसे। दुखद तो यह हुआ कि उनकी लेखिका पत्नी तबस्सुम फातिमा भी दो दिन बाद कोरोना से चल बसीं। बिहार के आरा मे जन्मे जौकी ने हिंदी उर्दू अदब की दुनिया में अपनी विशेष पहचान बनाई थी। वे कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय सहारा के उर्दू संस्करण के संपादक बने थे लेकिन उनका मन अखबारी दुनिया में नहीं लगा और लेखन की दुनिया में फिर से पूरी तरह रम गए।

 मंजूर भाई की तरह जौकी के साहित्य में मुसलमानों का दर्द छिपा था। वे भारतीय राजनीति को इसका जिम्मेदार मानते थे। मुसलमान शीर्षक से उपन्यास लिखा ही, उन्होंने गुड बाय राजनीति नामक एक नाटक भी लिखा था, जिसमें वर्तमान राजनीति के पतन पर रोशनी डाली गई थी। इसके अलावा इमाम बुखारी का नैपकिन नामक एक कहानी संग्रह भी आया था। दोनो कौमों की कट्टरता से वे जूझ रहे थे। उनकी पत्नी तबस्सुम ने परवीन शाकिर, सारा शगुफ्ता पर किताबों के अलावा उर्दू की शाहकार कहानियां, सरहद पार की कहानियां, पाकिस्तान की शायरी नामक किताबों का भी संपादन और अनुवाद किया था।

कोलकाता के जाने-माने रंगकर्मी अजहर आलम भी हमसे विदा हो गए। वे मात्र 50 वर्ष के थे। हिंदी उर्दू रंगमंच के जाने-माने निर्देशक की रंगकर्मी पत्नी उमा झुंझुनवाला मौत की मुंह से निकल आई हैं। कोलकाता के मौलाना आजाद कॉलेज में उर्दू के प्रोफेसर अजहर आलम ने करीब 50 नाटकों में काम किया था और उर्दू में सात नाटकों का रूपांतर और लेखन भी किया था।

उन्होंने उर्दू थियेटर परंपरा विषय पर पीएचडी की थी और 1960 के बाद उर्दू नाटकों के अनुवाद विषय पर शोध भी किया था। उनके चर्चित नाटकों में चेहरे और रूहें हैं। उन्होंने लिटिल थेस्पियन नामक एक नाट्य कंपनी बनाई थी, जिसके वे निदेशक थे। उषा गांगुली के बाद कोलकाता में अगर किसी ने हिंदी में रंगमंच की बागडोर संभाली तो वे अजहर ही थे। हिंदी उर्दू की दुनिया से खूबसूरत रिश्ते निभाने वाली शायरा अफसानानिगर नॉवलिस्ट और अनुवादक तरन्नुम रियाज भी कोरोना की शिकार हो गईं। बीसवीं सदी की उर्दू लेखिकाओं पर एक किताब उन्होंने साहित्य अकादमी के लिए संपादित किया था।

दुष्यंत कुमार ने हिंदी गजलों की जिस परंपरा को मुकाम पर पहुंचाया था, उस परंपरा को आगे बढ़ाने वालों में कुंवर बेचैन और जहीर कुरैशी भी शामिल थे। मेरठ में जन्मे और गाजियाबाद में हिंदी के प्राध्यापक कुंवर बैचेन ने हिंदी गजलों को लोकप्रिय बनाया। उनकी गजलों में आम आदमी की विडंबना, सत्ता और राजनीति के मूल्यों के पतन और समाज में हो रहे बदलाओं पर गहरा कटाक्ष मिलता है।

 

ऐसे लेखकों, संगीतज्ञों और संस्कृतिकर्मियों की लंबी फेहरिस्त है जो इस महामारी में सिस्टम के ध्वस्त हो जाने के कारण दुनिया से चले गए, पर उनकी रचनाएं अमर हैं

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TAGS: कुंवर बेचैन, लाल बहादुर वर्मा, जय झरोटिया, कोविड-19, सांस्कृतिक क्षेत्र, स्मृति, Lal Bahadur Verma, Jai Jharotia, Covid-19, Cultural Zone, Memory
OUTLOOK 29 May, 2021
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