विवादों के कारण नामवर की जीवनी प्रकाशकों ने वापस ली
हिंदी के युवा आलोचक अंकित नरवाल ने अपने प्रयासों से नामवर जी की जीवनी ‘अनल पाखी’ लिख डाली। वे पिछले तीन वर्षों से यह जीवनी लिख रहे थे और नामवर जी के निधन के दो वर्ष बाद ही यह जीवनी सामने आ पाई। अंकित नरवाल कन्नड़ के मशहूर लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति की भी जीवनी लिख चुके हैं और इस जीवनी पर उन्हें ‘युवा साहित्य अकादमी’ पुरस्कार मिल चुका है। लेकिन क्या उन्होंने इस जीवनी में नामवर सिंह के साथ ‘न्याय’ किया और उनके संपूर्ण ‘व्यक्तित्व ’ और ‘कृतित्व’ को समेट लिया? इसमें कुछ तथ्य गलत हैं तो कुछ बातों को छिपा भी लिया गया। हालांकि कुछ ऐसी बातें भी हैं, जिन्हें आम तौर पर हिंदी का आम पाठक नहीं जानता है या बहुत कम जानता। विवाद भडक़ा तो प्रकाशक ने न सिर्फ पुस्तक वापस ले ली है, बल्कि राजकमल प्रकाशन ने भी अपनी पहल छपी पुस्तक वापस ले ली है, जिसके आधार पर इसमें कुछ गलत तथ्य छपे थे।
इस जीवनी में नामवर जी के पुत्र द्वारा संपादित और राजकमल से प्रकाशित पुस्तक ‘आमने सामने’ में डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी और नामवर जी के बीच हुई बातचीत के हवाले से दावा किया गया है कि नामवर जी कभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे और महात्मा गांधी की जब हत्या हुई थी तो संघ परिवार के लोगों की धरपकड़ में नामवर जी भी गिरफ्तार कर लिए गए थे। उन्हें 3 महीने पुणे तथा लखनऊ जेल में काटने पड़े थे। जब वे जेल से छूटे तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उनके सम्मान में जेल के द्वार पर स्वागत भी किया था लेकिन महापंडित राहुल सांकृत्यायन की एक पुस्तक ने उनके जीवन को बदल दिया और वे संघी से माक्र्सवादी बन गए। लेकिन तथ्य उलट है।
नामवर जी के कभी संघ में होने को लेकर सोशल मीडिया में जब विवाद हुआ तब श्री त्रिपाठी ने इस बात का खंडन किया और कहा कि नामवर जी के बारे में गलत छपने से यह भ्रम पैदा हुआ। दरअसल वे (श्री त्रिपाठी) संघ में थे और जेल गए थे। लेकिन जीवनी में और भी कई प्रसंग हैं।
लेखक ने अब तक नामवर जी पर प्रकाशित विभिन्न पत्रिकाओं के विशेषांकों, समय-समय पर नामवर जी पर प्रकाशित संस्मरणों, पुस्तकों, लेखों और उनके इंटरव्यू को ही मुख्य आधार बनाया। इसके अलावा नामवर जी के परिजनों, उनके शुभचिंतकों और उनके अंतरंग मित्रों से बातचीत के जरिए भी उनके व्यक्तित्व को जानने का प्रयास किया गया है लेकिनअब तक पहल, वसुधा, पाखी, बहुवचन, साक्षात्कार जैसी अनेक पत्रिकाओं में नामवर पर निकले विशेष अंकों से उनके बारे में बहुत कुछ जान लिया गया था, लेकिन बहुत कुछ अभी भी अज्ञात था। कुछ साल पहले सुमन केसरी द्वारा संपादित ‘जेएनयू में नामवर सिंह’ जैसी पुस्तक और सुधीश पचौरी और भारत यायावर द्वारा लिखी पुस्तकों से नामवर जी को जाना गया था। लेकिन इस पुस्तक में सारे तथ्यों को एकत्रित करके इसे जीवनी का एक रूप प्रदान किया गया है।
नामवर जी के जीवन की एक दूसरी प्रमुख घटना यह रही कि 1947 में निराला ने उन्हें उनकी एक कविता पर युवा कवि का पुरस्कार भी दिया था लेकिन कालांतर में नामवर जी ने कविता का रास्ता छोडक़र आलोचना का रास्ता अपना लिया और उनका पहला कविता संग्रह अप्रकाशित ही रह गया। कविता से आलोचना की तरफ मुखातिब होने के पीछे किशोरी दास वाजपेयी का एक पद उनके लिए प्रेरणा स्रोत बना। उस पद में किशोरी दास जी ने ‘कूड़े कचरे को बुहारने’ की बात लिखी थी। नामवर जी को यह बात जंच गई और उन्होंने साहित्य में फैले इस ‘कूड़े कचरे’ को दूर करने के लिए आलोचना का क्षेत्र अपनाया और जीवन भर साहित्य में ‘सफाई’ करते रहे। आलोचना की दुनिया में उनकी पुस्तक ‘छायावाद’ ने उन्हें स्थापित किया, जो उन्होंने महज 29 साल की उम्र में लिखी थी। यह नामवर जी की विलक्षण प्रतिभा का ही कमाल था। उन्होंने छायावाद के बारे में रामचंद्र शुक्ल और नंददुलारे वाजपेयी की स्थापनाओं से एक गलत स्थापना विकसित की और उसे राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ कर देखा। उनकी इस स्थापना से उन्हें साहित्य में मान्यता मिली लेकिन इससे पहले उनकी पुस्तक ‘बकलम खुद’ आ चुकी थी।
नामवर जी हिंदी साहित्य के छात्र भले रहे पर उनकी गहरी रुचि संस्कृत साहित्य, विश्व साहित्य, अंग्रेजी आलोचना, इतिहास, राजनीति शास्त्र और दर्शनशास्त्र में रही। उन्होंने चीजों को हमेशा एक ऐतिहासिक और विश्व दृष्टि से देखने की कोशिश की। उन्होंने साहित्य में ऐसी दृष्टि विकसित की, जो उनसे पहले के आलोचकों में नहीं थी। वे हिंदी के पहले ऐसे बुद्धिजीवी रहे जिन्होंने इतिहास, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र, संस्कृति-कला की मिलीजुली दृष्टि से साहित्य और समाज को देखा, जाना और परखा। उन्होंने परंपरा को न तो पूरी तरह खारिज किया और न ही पूरी तरह आत्मसात किया। इसी तरह उन्होंने आधुनिकता को भी पूरी तरह आत्मसात नहीं किया और न ही उससे खारिज किया, बल्कि उसके साथ हमेशा एक आलोचनात्मक दृष्टि बनाए रखी। वे तुलसी को बड़ा कवि मानते रहे पर कबीर के महत्व को भी उन्होंने रेखांकित किया। मुक्तिबोध और अज्ञेय दोनो उन्हें प्रिय थे। हालांकि अज्ञेय के साथ उनके रिश्तों में उतर-चढ़ाव रहा।
लेकिन उन्होंने साहित्य में दक्षिणपंथी दकियानूसी विचारों का हमेशा विरोध किया और रूपवादियों, कलवादियों तथा रस सिद्धांतवादियों से लगातार मोर्चा लिया। ‘कविता के नए प्रतिमान’ में डॉक्टर नगेंद्र के साथ एक लंबी जिरह ‘रस सिद्धांत’ के खिलाफ की। दरअसल नामवर जी निराला, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय की धारा के समर्थक थे। जीवनी से पता चलता है कि वे मुक्तिबोध को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने के पक्ष में थे और उन्होंने अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी को सुझाया भी, जो अकादमी की हिंदी परामर्श समिति के संयोजक थे लेकिन द्विवेदी जी ने मुक्तिबोध की बजाय डॉक्टर नगेंद्र को उनकी पुस्तक ‘रस सिद्धांत’ पर 1965 का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया और इस काम में अकादमी के तत्कालीन अपसचिव एवं तार सप्तक के कवि भारत भूषण अग्रवाल सहयोगी बने। दरअसल डॉक्टर नगेंद्र ने ही द्विवेदी जी को चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में नौकरी दिलवाई थी।
इसका नतीजा यह हुआ कि नामवर जी लगातार भारत जी पर इसके लिए तंज करते रहे। भारत जी ने एक दिन नामवर जी से हंसी मजाक में कहा, ‘‘कहिए तो मैं आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार दिलवाऊं।’’ नामवर जी ने मजाक को गंभीरता से लेकर एक महीने के अंदर ‘कविता के नए प्रतिमान’ किताब लिख डाली और उन्हें अपने गुरु से पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
इस जीवनी में इन तथ्यों को छिपा लिया गया है कि नामवर जी ने अपना 75वां जन्मदिन दिग्विजय सिंह की उपस्थिति में मनाया, जिसकी आलोचना हुई। 90वें जन्मदिन पर वे राजनाथ सिंह के हाथों सम्मानित हुए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आलोचक होने के बावजूद उनके साथ मंच पर ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह को संबोधित किया। इसके पीछे जीवनीकार की मंशा समझ में नहीं आती। जीवनी की सबसे बड़ी खामी यह है की इसमें फुटनोट्स नहीं हैं। इससे पता नहीं चलता कि जीवनी में वर्णित बातें किसके हवाले, कब, कहां और किस संदर्भ में कही गई हैं। लेकिन आम पाठकों को नामवर जी के जीवन के बारे में एक खाका मिल जाता है और यह किताब भविष्य में शोध करने वालों के लिए आधार सामग्री हो सकती है क्योंकि सार तत्व को एक जगह एकत्रित कर दिया गया है।
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आधार प्रकाशन
मूल्य: 350 रुपये
पृष्ठ: 359