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27 October 2024

पुस्तक समीक्षा: कथा एक रंग-युग की,रंग हबीब की

पत्रिका-  'रंग संवाद'

हबीब तनवीर पर एकाग्र अंक

संपादक- संतोष चौबे,विनय उपाध्याय

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प्रकाशक- टैगोर विश्व कला एवं संस्कृति केंद्र, भोपाल

रंग-सम्राट हबीब तनवीर की जन्मशती पर टैगोर विश्व कला-संस्कृति केन्द्र,भोपाल ने अपनी पत्रिका 'रंग संवाद' का अंक उन पर केंद्रित किया है। रंगलोक के इस महानायक पर एक ही पत्रिका में इतनी विपुल सामग्री है किजब पत्रिका के पन्ने पलटे तो लगा हर आलेख हबीब साहब के बारे में कोई न कोई अनोखी बात कह रहा है।जिन लेखों पर नज़र ठिठकी उनमें अशोक मिश्र,ध्रुव शुक्ल,राजेश जोशी,आलोक चटर्जी,भास्कर चंदावरकर,राजकमल नायक,राहुल रस्तोगी,हेमंत देवलेकर,दिनेश लोहानी के लेख थे जिनमें हबीब साहब की रंग-दृष्टि को बेहतरीन तरीके से समझने -समझाने की कोशिश की गई है।

पत्रिका का पहला लेख इस रंग-ऋषि का ही है उनकी रंग-जीवन यात्रा पर,जिसे उनकी आत्मकथा कहा जा सकता है। मोनिका मिश्र तनवीर का 'नेपथ्य ही बन गया नियति' और नगीन तनवीर से हुई बातचीत भी हबीब साहब के बारे में बहुत कुछ अनजाना उजागर करती है।

पत्रिका में तमाम लेखों के बीच एकमात्र कविता है कला समीक्षक और कवि राजेश गनोदवाले की,जो अपनी सर्वथा भिन्न विषय वस्तु के कारण ध्यान आकर्षित करती है। इन कविताओं में नया थिएटर के मुकम्मल होने में छत्तीसगढ़ के गुमनाम गाँवों से आए गायकों-वादकों व अभिनेताओं के योगदान को बहुत ख़ूबसूरती के साथ अभिव्यक्त किया गया है। तबला वादक अमरदास,हारमोनियम के उस्ताद देवीलाल नाग,क्लैरिनेट से समां बांधने वाले रमाशंकर आदि जिनके संगीत से और खिल जाता था नाटक। राजेश ने इन्हें नया थिएटर का ' शुभंकर' कहा है। कविता की ये पंक्तियाँ पढ़िए --" न थे किसी घराने से ये लोग/और न ली थी कभी तालीम कोई/देव-गन्धर्व थे सही मायनों में/आए इधर-उधर से/और समा गये हबीब तनवीर में/बन गए 'नया थिएटर' की ज़रुरी आवाज़"। गोविंदराम,फ़िदा बाई,दाऊमंदराजी,भुलवाराम,फ़ीताबाई,मालाबाई,पूनम-दीपक तिवारी कल्पना कीजिए कैसा लगता नया थिएटर इन अभिनेताओं के बिना ? ये पंक्तियाँ भी देखिए --"सभी नया थिएटर की धमनियों में रक्त की तरह बहते रहे/ये वही लोग हैं/जो हबीब तनवीर के दस्तख़त बन इतिहास/गढ़ते चले गये"।

रामप्रकाश त्रिपाठी ने अपने लेख में हबीब साहब के रंगलोक, उनकी योजना,स्क्रिप्ट को लेकर उनके चिंतन,प्रस्तुति के पूर्व उनकी चिंता आदि बहुत प्रभावी ढंग से उजागर किया है--" किसी भी नाटक के मंचन से पहले उन्हें देखना मेरे लिए अविश्वसनीय अनुभव रहा। वे इतने घबराए हुए दिखते थे जैसे नौसिखिया निर्देशक हों।उनका तनाव,उनकी झुंझलाहट,प्रस्तुति को लेकर उनकी आशंकाएं चकित करती थीं।उनका अस्वाभाविक रौद्र रुप भी पर्दे के पीछे नज़र आता था।वे एक अलग ही हबीब नज़र आते थे।शायद इसका कारण रंग प्रस्तुति के लिए गहरी संलग्नता हो और "जो है उससे बेहतर चाहिए" की उनकी चाहना हो"।

सारंग उपाध्याय के आलेख में हबीब साहब के कला-कर्म की गहराई को नापने की बहुत खूबसूरत कोशिश की गई है--"आगरा बाजार का पहला मंचन जब दिल्ली में हुआ तो नाटक समाप्त होने के बाद हबीब साहब मंच पर हाथ जोड़े खड़े थे ,तालियों की लंबी गड़गड़ाहट में ख़ुद को ढूंढ़ते नज़र आ रहे थे।लग रहा था मानो जीवन के बाज़ार में परिस्थितियों से जूझते ,संघर्ष को जीते और आम आदमी के सपने बुनते कोई फ़रिश्ता खड़ा हो।"

पत्रिका के प्रधान संपादक संतोष चौबे ने एक महत्वपूर्ण बात कही है--"हबीब जी का रंग-संगीत उनके नाटकों का लुभावना पक्ष था।वे लोक गीत,धुनों और उनकी नृत्य सरंचना पर बहुत डूबकर काम करते थे।निश्चित ही उनके रंग-संगीत का अलग से डाक्यूमेंटेशन होना चाहिए।" संपादक संतोष चौबे उनकी रंग-भाषा पर लिखते हैं--"लोक भाषा तथा मानक णभाषाओं के बीच आवा-जाही के रिश्ते से बनी हबीब साहब की रंग भाषा नए सौंदर्य शास्त्र का आधार बनी।नाट्य शास्त्र की जिस लोकधर्मी रंगधारा की अपेक्षा भरत मुनि ने सदियों पहले की थी,वह हमारे समय में हबीब तनवीर के नाटकों में छल-छल कल-कल बहती दिखाई देती है।हबीब जी ऐसे नाटकों के शिल्पी थे जहाँ एक साथ अनेक पीढ़ियों की रुचि और जिज्ञासा पनाह पाती है।"

हबीब साहब की छोटी बेटी एना का आत्म कथ्य,हबीब साहब की शायरियाँ और उनके नाटकों के संगीत की खासियत बताने वाले लेख,उनके द्वारा निर्देशित नाटकों का लेखा-जोखा पत्रिका की अन्य पठनीय सामग्रियों में है। पत्रिका भारतीय रंगमंच के एक युग की कथा कहती है। संतोष चौबे और विनय उपाध्याय के परिश्रम से भारतीय रंगमंच का यह दस्तावेज आकार ले सका।

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TAGS: Book Review, Story of a colorful era, Rang Habib
OUTLOOK 27 October, 2024
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