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08 January 2015

उदासियों, संघर्षों और जिजीविषा का चितेरा

हृषिकेश सुलभ द्वारा साभार

मैं पटना से बाहर, मोतीहारी के पास एक गांव माधोपुर में था, जब उनकेरॉबिन शॉ पुष्प के देहावसान की खबर सांझ में मिली। रात में ढलती हुई वह सांझ बेचैनियों से भरी हुई थी। यह जानते हुए कि वह अस्वस्थ हैं, उनसे न मिल पाने के अपराधबोध का हाहाकार भर गया था मेरे भीतर।

स्मृति शेष ः रॉबिन शॉ पुष्पमाधोपुर में भक्तिकालीन सरभंग संप्रदाय के कवि भीखम दास की समाधि है। रात के अंधेरे में पगडंडियां टेरते हुए मैं पुरोधा कवि के समाधिस्थल तक पहुंचा था कि शायद सुकून मिले। राबिन शॉ पुष्प के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए सुबह लौटते हुए पीछे छूटते गांवों से निकलकर उनकी कहानी में प्रवेश लेना था। यह कहानी आभा ब्राउन की नहीं है, ओनील और आभा ब्राउन और उनके माता-पिता मेरे साथ हो लिए थे। गांवों से विस्थापन की अकथ पीड़ा की सघन बुनावट वाली यह कहानी मेरे जैसे असंख्य पाठकों के जीवन से बहुस्तरीय संवाद करती है। गहरे संकट-काल में अक्सर याद आते हैं आभा और ओनील के पिता। नन्हीं-सी मेहा के बनाए उस चित्र को, जिसमें उसके पिता ओनील का गांव चित्रित है, मैं कभी भूल नहीं पाता हूं। इस कहानी में आभा के पिता और पति की छूट गई मूल भूमि जखअम की तरह टीसती-रिसती रहती है।

आज जब यह पूरा देश अग्निकुंड बन चुका है, 'हिंसा, लूट, भ्रष्टाचार, घृणा और असंवैधानिक सत्ताओं की अग्निपताकाएं लहरा रही हैंÓ, पुष्पजी की कहानी अग्निकुंड की इवलिन डेविस को भी भूल पाना कठिन है। आजादी के बाद समाज में पांव पसारते भ्रष्टाचार और देश की शासन-व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में कसते पैरवीतंत्र के मकडज़ाल से जूझती इवलिन की इस कथा में अतीत के सूत्र परतंत्र भारत से जुड़े हैं। मिस्टर डेविड और इवलिन का घर ग्रेस विला इस कहानी में एक देश में तब्दील हो जाता है। राबिन शॉ पुष्प अपनी कहानियों में अतीतजीवी हुए बगैर अतीत के गह्वरों में छिपे सत्य का अनुसंधान करते रहे और समकालीन जीवन के सत्य से उसकी मुठभेड़ कराते रहे। 'हमारे गणतंत्र पर गिद्ध मंडरा रहे हैं। खादीवाले गिद्ध, वर्दीवाले गिद्ध, कुर्सी पर गिद्ध, कुर्सी के पीछे गिद्ध।Ó उनकी कहानी गिद्ध और गणतंत्र का यह संवाद पहली नजर में सरलीकृत लगता है पर कथा में इसकी आवेगमयता का कोई सानी नहीं। एक रंगकर्मी के जीवन-प्रसंगों के माध्यम से वह हमारे जीवन पर ग्रहण की तरह छाए राजनतिज्ञों की हिंसा की कथा रचते हैं। एक अलग प्रकार की हिंसा की कथा कहते हुए राबिन शॉ पुष्प ने अपनी कहानी हत्यारे जा रहे हैं में सुरक्षा की आड़ में सत्ता की हिंसा की चालाकियों और कुरूपताओं को उद्घाटित किया है। इस कथा का नायक एक आदर्शवादी शिक्षक का आदर्शवादी बेटा, बेहद संवेदनशील सुरक्षाकर्मी है। देश की सीमा पर युद्ध के लिए जाते हुए कभी जिन लोगों ने तिलक लगा कर विदा किया था, देश के भीतर शांति-व्यवस्था के नाम पर उन्हीं के विरुद्ध अघोषित युद्ध में सुरक्षाकर्मियों को झोंक दिए जाने की दुरभिसंधियों को यह कहानी उजागर करती है।

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फणीश्वर नाथ रेणु के साथ पुष्प जीमुझे याद है, वह मेरे लेखन के शैशव के दिन थे। जयप्रकाशजी के आंदोलन के दौरान इमरजेंसी के दिनों में पटना में सैनिकों का भारी जमावड़ा था। इसके कुछ ही दिनों बाद यह कहानी प्रकाशित हुई थी। राबिन शॉ पुष्प ने घर-परिवार के इर्द-गिर्द पसरी प्रसन्नताओं-उदासियों, दहकते संघर्षों और स्पंदित होते राग-विराग को अपनी कहानियों में चित्रित करते हुए मनुष्य की जीजिविषा और प्रपंच दोनों को रचा है। शरणार्थी की इति, अजनबी होता हुआ मकान की इला श्रीवास्तव, टाइपराइटर की पारुल आदि अनेक स्त्रियों का जीवन रचते हुए पुष्पजी यथार्थ से अपनी कल्पनाशीलता का कलात्मक मेल करते हैं और पाठकों की स्मृतियों में बस जानेवाली कहानियां रचते हैं।

कई कथा-संकलनों, उपन्यासों, रेडियो नाटकों की रचना और बिहार के रचनाकारों पर केंद्रित कई पुस्तकों के संपादन के साथ-साथ अपने संस्मरणों के लिए भी राबिन शॉ पुष्प को याद किया जाएगा। बेहद उबड़-खाबड़ अतीत और जीवन रहा उनका। उन्होंने अपने आत्मकथ्य में लिखा, 'हमारे पूर्वज गरीबी और सामंतों की बर्बरता की वजह से, विवशतावश अंग्रेजों की शरण में गए थे कि उन्हें राहत मिल सके। मां के मन में कहीं था, कि बेटा साहित्यकार बने, इसलिए मेरा नाम रवींद्रनाथ रखा था, जो अंग्रेजियत में बहकर रॉबिन बन गया।Ó इकत्तीस अक्टूबर की ढलती हुई दोपहरी में उन्हें मिट्टी पर चादर ओढ़कर सोते देख मैं सोच रहा था, 'भले अंतिम दिनों में अपनी नालायकी के चलते न मिल सका, पर अब घर से बाहर आते-जाते मिल सकता हूं।Ó उन्हें मेरे मोहल्ले पीरमुहानी के ईसाई कब्रिस्तान में दफनाया गया है। मेरे घर से पांच सौ कदमों की दूरी पर। अपने तरल, लोकप्रिय और संप्रेषणीय गद्य से पाठकों के दिलों पर राज करने वाले हिंदी के इस रचनाकार की साहित्य के मठाधीश आलोचकों ने सुधि नहीं ली। यह कोई नई बात नहीं। भारतीय भाषाओं का यह चलन है। बहरहाल, भइया अब जल्दी-जल्दी मुलाकातें होंगी आपसे। अब तो पास-पड़ोस का मुआमला है। न शोकांजलि न विदा। जैसे पहले करता था, बस वैसे ही केवल प्रणाम!

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TAGS: रॉबिन शॉ पुष्प, बिहार, सुलभ
OUTLOOK 08 January, 2015
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