श्रीरामदासु: परदे पर संत
रामदासु को परम भक्त के रूप में जाना जाता है, यही कारण है कि नागय्या और नागार्जुन जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने स्क्रीन पर उनके चरित्र को सफल बनाने के अपनी मेहनत का हर कतरा समर्पित कर दिया।
उमा माहेश्वरी भृगुबंध
(डेयटीज ऐंड डिवोटीजः सिनेमा, रिलीजन ऐंड पॉलिटिक्स इन साउथ इंडिया पुस्तक की लेखक। ईएफएल यूनिवर्सिटी हैदराबाद के सांस्कृतिक अध्ययन विभाग में अध्यापन।)
लंबे समय से संत-कवियों और अनुकरणीय भक्तों की कहानियां लोकप्रिय हिंदू धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं।पिछली शताब्दी में, रेडियो और टेलीविजन के साथ सिनेमा ऐसी कहानियों को प्रसारित करने का शक्तिशाली नया माध्यम बन गया।जिस बारे में कम जानकारी है, वह यह कि इन्हीं कहानियों को सिनेमा नए ढंग से प्रस्तुत करता है। यह लेख यही बताने की कोशिश है कि इस पहलू पर ध्यान देना भी उतना ही जरूरी और जानने लायक है। विशेषकर इसलिए कि सिनेमा सामूहिक रूप से हमारा श्रव्य और दृश्य संग्रहकर्ता बन गया है, जिसमें हम अतीत को समझने और वर्तमान को आकार देने के लिए गोता लगाते हैं।
तेलुगु भाषी आबादी के बीच, रामदासु अपने कीर्तनलु के कारण परम भक्त हैं, जो कई शास्त्रीय कर्नाटक संगीतकारों और फिल्मों की प्रदर्शन सूची का हिस्सा हैं। उन्हें प्रसिद्ध भद्राचलम राम मंदिर का निर्माण करने वाले के रूप में पहचाना जाता है।1620 में कंचेरला गोपन्ना के रूप में जन्मे, रामदासु दो ब्राह्मण मंत्रियों- अक्कन्ना और मदन्ना के भतीजे थे, जो गोलकुंडा कुतुब शाहियों के अधीन काम करते थे। अधिकांश दस्तावेजों से संकेत मिलता है कि वह अपने चाचा और उन्हें संरक्षण देने वाले एक अन्य मंत्री मीर जुमला की मदद से भद्राचलम के तहसीलदार बन गए थे। अपने तहसीलदार (1650-65) के कार्यकारल के दौरान, उन्होंने कर के रूप में इकट्ठा राजस्व के कुछ हिस्से का उपयोग करमंदिर निर्माण किया।इस अपराध के लिएउन्हें 1665 में सुल्तान अब्दुल्ला ने कैद में डाल दिया था। 12 साल बाद 1677 में तत्कालीन सुल्तान, अबुल हसन तनशाह (1674-99) जिन्हें तेलुगु में तानी शाह नाम से जाना जाता है, ने रिहा किया।माना जाता है कि लंबे और कठिन कारावास के दौरान, रामदासु ने राम की प्रशंसा में कई कीर्तनलु लिखे।किंवदंती है कि बारहवां साल खत्म होने पर, भेष बदल कर राम और लक्ष्मण सुल्तान के सामने प्रकट हुए और पैसे चुकाए।जब सुल्तान को पता चला कि उसके सामने कौन आया था, तो वह पश्चाताप करने लगा। इसके बाद उसने न सिर्फ रामदासु को मुक्त किया, बल्कि हमेशा के लिए भद्राचलम जागीर से प्राप्त राजस्व मंदिर को उपहार स्वरूप भेंट कर दिया। उनके जीवन की कहानी का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि उन्हें एक सूफी गुरु, कबीर ने राम भक्ति में दीक्षित किया था।विवरण कुछ विविधताओं के साथ, मौखिक रूप सेगीतों के साथलंबे समय से यह प्रचलित है। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, धर्मावरम गोपालाचार्युलु द्वारा किया गया इसका एक मंचीय रूपांतरण, तेलुगु क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय था।
तेलुगु में भक्तिपूर्ण फिल्मों की एक लंबी परंपरा रही है, विशेष रूप से संत-कवियों की कहानियों को चित्रित करने वाली।इसलिए इसमें कोई अचरज नहीं कि दो तेलुगु फिल्मों में रामदासु के जीवन का चित्रण किया।1964 में पहली फिल्म अनुभवी अभिनेता नागय्या ने यह भूमिका की थी, जबकि 2006 में बनी दूसरी फिल्म में नागार्जुन ने। अपने संस्मरण में, नागय्या ने लिखा कि फिल्म का विचार सबसे पहले हैदराबाद के प्रधानमंत्री मीर लाइक अली और मीडिया से जुड़े ईश्वर दत्त को आया था।1946 में, नागय्या को हैदराबाद आमंत्रित किया गया और उन्होंने रामदासु से जुड़े सभी स्थानों का दौरा किया।निजाम की सरकार रजाकार हिंसा के मद्देनजर हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने के लिए फिल्म में पैसा लगाना चाहती थी।लेकिन निजाम के राज्य के पतन और भारतीय संघ में उसके एकीकरण ने इस परियोजना पर विराम लगा दिया।बहुत बाद में नागय्या ने अपने दम पर इस परियोजना को पुनर्जीवित किया और भक्त रामदासु शीर्षकसे फिल्म पूरीकी। कथानक का एक बड़ा हिस्सा रामदासु और सुल्तान तानी शाह के चरित्रों को बताता करता है, इसके अलावा सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति को भी स्थापित करता है।सूफी फकीरकबीर ने रामदासु के जीवन में राम भक्ति की शुरुआत कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई चमत्कार किए, जिससे उनकी आध्यात्मिक शक्ति को बल मिला। फिल्म के संवाद कई हिंदुस्तानी भाषा के गानों के साथ तेलुगु में हैं।जिसके माध्यम से फिल्म उस अवधि की विशेषता वाले पॉलीफोनी (एक साथ कई भागों को संयोजित करने की शैली। प्रत्येक एक व्यक्तिगत माधुर्य का निर्माण करती है और दूसरे के साथ सामंजस्य बिठाती है) को पकड़ने का प्रयास करती है। यह एक धर्मनिरपेक्ष और समकालिक इतिहास प्रस्तुत करता है, जो सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व पर जोर देता है।दूसरी ओर, वरिष्ठ फिल्म निर्माता के. राघवेंद्र राव द्वारा निर्देशित नागार्जुन की श्री रामदासु फिल्म हिन्दुस्तानी गीतों से दूर कबीर के चरित्र को कमतर आंकती हैऔर भद्राचलम मंदिर निर्माण की निगरानी के लिए विष्णु के पृथ्वी पर अवतरण जैसे नएगढ़े हुए पौराणिक तत्वों से परिचय कराती है।फिल्म की यह नई खोज एक लंबे इतिहास में महत्वहीन एपिसोड के रूप में इस्लाम और मुस्लिम की उपस्थिति को हाशिये पर ला खड़ा करती है, जो रामदासु को एक शास्त्रीय और पौराणिक हिंदू अतीत से जोड़ता है।
नागय्या की प्रसिद्ध संत त्रयी जिसमें उन्होंने 15वीं शताब्दी के संत-कवि पोटाना की भूमिकानिभाईं, 18वीं सदी के संत-संगीतकार त्यागय्याऔर 17वीं सदी के कवि-दार्शनिक वेमना की भूमिका निभा कर वे भक्ति फिल्मों के सितारे के रूप में स्थापित हो गए थे। नागय्या द्वारा निभाए गए रामदासु का चित्रण मनोवैज्ञानिक है, जो भक्ति के मार्ग पर व्यक्ति के आंदोलन को दर्शाता है। नागय्या ने अपनी भूमिका में कारावास के दौरान भक्त रामदासु को विभिन्न चरणों से गुजरते हुए चित्रित किया है- पूर्ण विश्वास से घटती आशा, क्रोध से लेकर निराशा और सब कुछ छोड़ देने से लेकर फिर नई आशा तक। इसके विपरीत, श्री रामदासु में समकालीन नायक-केंद्रित तेलुगु फिल्म की सभी विशेषताएं हैं- रोमांटिक गाने, जरूरी हास्य दृश्य और यहां तक कि ढिशुम-ढिशुम भी। भक्त अब खुद भगवान की रक्षा के लिए जिम्मेदार है। जबकि, नागार्जुन की फिल्म के रामदासु को ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया गया है, जो एक जुलूस के दौरान राम की मूर्ति जमीन पर गिरने से बचाता है।मध्यम आयु के गोलमोल से नागय्या के विपरीत,नागार्जुन की फिल्म में उनके मांसल शरीर को प्रदर्शित किया गया है।इसके अलावा, नागार्जुन का रामदासु सख्त सत्ता विरोधी व्यक्ति है।प्रशासक के रूप में,शुरू में उन्हें सामंतवाद का विरोध करते दिखाया गया है।हालांकि, जैसे ही भक्ति की बारी आती है, उसके बाद उनके समाजवादी एजेंडे को भुला दिया जाता है और छोड़ दिया जाता है।
इसके बजाय, प्राथमिकता मंदिर के निर्माण हो जाती है। यह अब अत्यावश्यक हो जाती है और लोगों के बीच भावुक प्रतिबद्धता को बढ़ावा देती है।लेकिन मंदिर बनने के बाद, सुल्तान उन्हें राज्य के राजस्व के दुरुपयोग के आरोप में गिरफ्तार कर लेता है। इसके बाद रामदासु राम के संपूर्ण भगवान होने बारे में प्रभावशाली भाषण देता है और सुल्तान को चेतावनी देता है कि अब हर गांव में राम मंदिर का निर्माण होगा। इसमें यह जोड़ने की कतई जरूरत नहीं है कि मुस्लिम शासकों को ठिकाने से रखने की यह जुझारू शैली और हिंदू बहुसंख्यक के सांस्कृतिक अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास (अल्पसंख्यक-तुष्टिकरण नीतियों से पीड़ित के रूप में चित्रित), हिंदुत्व की वर्तमान बातचीत से प्रेरित है।
दो फिल्मों में कई दृश्य और अन्य तत्व पूरी तरह से विपरीत दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। यह बताता है कि एक ही भक्त के जीवन की कहानी को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। यह हमारा ध्यान उन तरीकों की ओर भी दिलाता है, जिसमें सिनेमाई तकनीक और समकालीन राजनीति हम सभी के लिए धर्म की मध्यस्थता करती है, क्योंकि हम दर्शक और भक्त होने के बीच आगे बढ़ते हैं।
(विचार निजी हैं)