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14 August 2015

स्वयंभू हुक्मरान और आजादी का घुटता गला

अतुल लोके

13 जनवरी, 2015 को तमिलनाडु के फसल कटाई के पर्व पोंगल की पूर्व संध्या पर तमिल साहित्यिक जगत इस खबर से भौंचक्का रह गया कि प्रमुख लेखक पेरुमल मुरुगन ने एक फेसबुक पोस्ट के जरिये अपनी साहित्यिक आत्महत्या का एलान किया है। बड़ी ही पेचीदा घोषणा में लेखक ने अपने सभी उपन्यास, लघु कहानियां और कविताएं वापस लेने की बात कही, पाठकों से उनकी किताबों की सभी प्रतियां जलाने को कहा और जाति, धर्म, राजनीति से जुड़े और तमाम अन्य संगठनों से उन्हें अकेला छोडऩे का अनुरोध किया ञ्चयोंकि वह न केवल अपने सारे प्रकाशन वापस ले रहे हैं बल्कि खुद को भी सार्वजनिक जीवन से अलग कर ले रहे हैं। यह अप्रत्याशित घोषणा और सार्वजनिक जीवन से उनका लगभग पूर्ण रूप से गायब हो जाना दरअसल उनके उपन्यास माथोरुबगन (अंग्रेजी में वन पार्ट वूमेन) के खिलाफ कई सारे जाति व धार्मिक संगठनों द्वारा छेड़े गए निरंतर, अपमानजनक, बेहद चालाकी से गढ़े गए और व्यक्त‌िगत तौर पर उन्हें निशाना बनाने वाले अभियान की परिणति थी। उन पर आरोप था कि उन्होंने स्थानीय देवी की निंदा की और आम तौर पर हिंदू धर्म की और विशेष रूप से स्थानीय महिलाओं व समुदायों की गलत छवि पेश की।

पेरुमल मुरुगन की स्थिति वास्तव में एक व्यक्त‌िगत रचनात्मक कलाकार की दुविधा को ही प्रतिध्वनित करती है जब उसे एक ऐसी भावोत्तेजित, प्रतिशोधी और हिंसक भीड़ का सामना करना पड़ता है जो तभी संतुष्ट होती है जब कलाकार घुटने टेककर हार मान लेता है और लोगों की रक्त-पिपासा शांत हो जाती है। किसी लेखक को घृणित अभियान का शिकार बनाने का मुरुगन का मामला कोई इकलौता नहीं है और न ही यह किसी खास धर्म, जाति या समुदाय से जुड़ा है। भारत में सेंसरशिप का हाल का इतिहास सरकार और उसकी एजेंसियों द्वारा स्वतंत्र अभिव्यक्त‌ि का मुंह बांधने का उतना नहीं है जितना कि सरकारेतर अथवा न्यायेतर समूहों-जाति और धार्मिक गुटों, भाषायी तथा क्षेत्रीय समूहों और अन्य पहचान आधारित समूहों द्वारा रहा है।

पूरे देशभर में फिल्मकारों, लेखकों, कवियों, चित्रकारों और अन्य रचनात्मक कलाकारों के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे जिन्हें सामुदायिक सम्मान, पहचान और इतिहास पर काल्पनिक, धारणात्मक या गढ़े गए अपमान के इर्द-गिर्द लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा है। तमिलनाडु में ही उन्मादी भीड़ का शिकार होने वाली किताबों और फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है। शासनेतर लोगों द्वारा देशभर में कलाकारों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं कई हैं और अलग-अलग तरह की हैं। मकबूल फिदा हुसैन से लेकर हाल ही में पेरिस में शार्ली एब्दो गोलीबारी के बाद मुंबई के उर्दू अखबार अवधनामा की संपादक शीरीन दलवी तक जिन्होंने अपने मुख्य पृष्ठ पर 2006 में बनाया गया पैगंबर मोहम्मद का कैरिकेचर छापा था। धार्मिक गुटों द्वारा काटे गए बवाल के बाद उन्हें मारने की धमकियां मिलीं और अंतत: उन्हें आईपीसी की धारा 295ए के तहत बदनीयती से किसी धर्म का अपमान करने के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया।

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आज लेखकों, फिल्मकारों, कलाकारों आदि का मुंह बंद करने का काम केवल राज्य द्वारा नहीं बल्कि राज्येतर, न्यायेतर, जातिवादी व धार्मिक ताकतों द्वारा किया जा रहा है जो शायद यह तय करने की कोशिश कर रहे हैं कि रचनात्मक व्यक्ति क्या कह सकते हैं, कर सकते हैं, लिख सकते हैं या क्या अभिव्यक्त कर सकते हैं। ऐसे रचनात्मक व्यक्तियों को इस तरह के हमलों के खिलाफ राज्य की तरफ से कोई सुरक्षा नहीं मिलती। असहिष्णुता, कट्टरता और पूर्वग्रह का माहौल उन रचनात्मक अभिव्यक्तियों का गला घोंट रहा है जो सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक परंपराओं पर सवाल उठाते हैं और उनकी आलोचनात्मक पड़ताल करते हैं। हिंसा और उत्पीड़न का भय दिखाकर विरोधी तथा इतर रायों को दबाने की कोशिश की जा रही है।

ये सभी केवल व्यक्तियों को ही नहीं बल्कि समूचे लोकतंत्र को ही खतरा पहुंचाते हैं। बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार बेहद विस्तार से विरोध करने और इतर विचार रखने की आजादी के अधिकार से जुड़ा है-केवल राजनीतिक विषयों पर ही नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक औऱ वैयक्तिक-यौनिकता आदि पर भी।

नैतिकतावादी पुलिसिंग में उभार को देखते हुए सरकारी अमलों की भूमिका महत्वूपर्ण हो जाती है। जरूरी है कि संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर दिशानिर्देश तय किए जाएं जो राज्येतर व्यक्तियों के हाथों रचनात्मक कलाकारों के मौलिक अधिकारों को खतरा पेश आने की स्थिति में अधिकारियों व सरकारी कर्मचारियों को निर्देशित करें। यह सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि वह उन स्थितियों का निर्माण करे जिनमें व्यक्तियों व समूहों के अधिकारों का हनन न हो और न हनन किया जा सके। उसे ऐसे तरीके व रणनीतियां तैयार करनी चाहिए जो संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित व्यक्ति या व्यक्तियों के जीवन तथा स्वतंत्रता की गारंटी को सुनिश्चित कर सकें। यह स्वाभाविक ही है कि अनुच्छेद-21 में प्रदत्त अधिकारों का कोई अर्थ नहीं है अगर सरकार अपने अधिकारियों व कर्मचारियों और यहां तक कि निजी व्यक्तियों व समूहों द्वारा उनका अनुपालन सुनिश्चित न कर सके। जहां भी अधिकारी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने के अपने संवैधानिक दायित्व में चूक करते हैं तो कानून में उसके लिए कड़ा दंड निर्धारित होना चाहिए।

बेकार व अप्रासंगिक हो चुके ऐसे कानूनों को तत्काल वापस लेने, बदलने या संशोधित करने के लिए व्यापक कानूनी सुधारों की तत्काल जरूरत है जो स्वतंत्र अभिव्यक्ति को रोकते हैं ताकि उन्हें अंतरराष्ट्रीय कानूनों के समकक्ष लेकर आया जा सके। इनमें राजद्रोह से जुड़े कानून की वापसी (आईपीसी, धारा 124ए), अश्लीलता (आईपीसी, धारा 292), समुदायों के भीतर वैमनस्य पैदा करना (आईपीसी, धारा 153ए), मानहानि (आईपीसी, धारा 499) और कुछ अन्य कानून शामिल हैं जिनका खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग पत्रकारों, लेखकों आदि का मुंह बंद करने के लिए किया जाता है। सरकारी अधिकारी-राजस्व व पुलिस, दोनों और साथ-साथ न्यायिक अधिकारियों को भी शिक्षित और हर स्थिति में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की हिफाजत करने के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। स्कूलों, कॉलेजों, प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों और न्यायिक प्रशिक्षण अकादमियों में साहित्य, फिल्म व कला के मूल्यांकन व समालोचना के बारे में कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए।

नागरिक समाज को ज्यादा नहीं तो बराबर का होशियार रहना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कानून व नीतियों में सुधार लाए जाएं और उनसे बोलने व अभिव्यक्ति की आजादी की सुरक्षा की जा सके।

 

देशद्रोह का कानून

आईपीसी की धारा 124ए के रूप में राजद्रोह विरोधी कानून अंग्रेजी हुकूमत द्वारा सरकार की किसी भी आलोचना को रोकने के लिए लाया गया था। स्वतंत्रता आंदोलन के विस्तार के साथ-साथ इसका इस्तेमाल भी बढ़ता गया। सीधे-सरल शब्दों में समझा जाए तो आईपीसी की धारा 124ए ऐसी किसी भी अभिव्यक्ति को-चाहे वह मौखिक हो, लिखित या संकेतों में या किसी भी दृश्य स्वरूप में हो या किसी अन्य रूप में-अपराध मानती है जो सरकार के खिलाफ 'घृणा या अलगाव’ को भड़काने का प्रयास करती है। इस अपराध के लिए दंड समेत उम्रकैद की सजा का प्रावधान है।

इसमें सारी बदमाशी 'अलगाव’ शब्द की है जिसके दायरे में सबकुछ आ जाता है। उतने ही खतरनाक शब्द 'या अन्य रूप में’ हैं जिसके जरिये सरकार पुलिस के मार्फत सरकार के कदमों-नीतियों, कार्यक्रमों व कानूनों आदि की आलोचना की किसी भी कार्रवाई को भी अपराध करार दे सकती है। सभी राजनीतिक धाराओं की सरकारों ने राजनीतिक विरोध को खामोश करने के हथियार के रूप में अपनी नीतियों व कामकाज की गंभीर आलोचना करने वाले या उन्हें चुनौती देने वाले किसी भी व्यक्ति  के खिलाफ राजद्रोह का अभियोग खुलकर लगाया है। इनमें पत्रकार, मानवाधिकार और सामाजिक कार्यकर्ता, सामाजिक आंदोलन, किसान आंदोलन, परमाणु-विरोधी आंदोलन और वह हर व्यक्ति या समूह शामिल रहा है जो सरकार की कड़ी आलोचना करते रहे हैं। वर्ष 2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को महाराष्ट्र सरकार ने इसी धारा में गिरफ्तार किया था क्योंकि उन्होंने राष्ट्रीय प्रतीक का इस्तेमाल करके एक कार्टून बनाया था। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद ही उनके खिलाफ इस अभियोग को वापस लिया गया था।

छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच काम करने वाले सम्मानित डॉक्टर बिनायक सेन माओवाद को काबू में करने के नाम पर छतीसगढ़ पुलिस द्वारा आदिवासियों पर की जाने वाली ज्यादतियों के मुखर विरोधी थे। उन पर रायपुर सेंट्रल जेल में नक्सली नेताओं से मिलकर कथित रूप से पत्रों का आदान-प्रदान करने के मामले में राजद्रोह का आरोप लगा दिया गया और रायपुर की सेशन अदालत ने तो उन्हें दोषी करार देकर उम्र कैद की सजा भी सुना दी।

जानी-मानी लेखिका अरुंधती राय पर 2010 में उस समय राजद्रोह का आरोप लगा दिया गया जब वह कश्मीर गईं और वहां से लौटने के बाद दिल्ली में एक कार्यक्रम में उन्होंने कथित रूप से कहा कि 'कश्मीर कभी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा। यह ऐतिहासिक तथ्य है और भारत सरकार तक ने इस बात को स्वीकार किया है।’ उनके खिलाफ एफआईआर तो दर्ज हुई लेकिन सरकार ने मामले को आगे नहीं बढ़ाया।

वर्ष 2012-13 में तमिलनाडु में कुडनकुलम में परमाणु ऊर्जा संयंत्र विरोधी आंदोलन के दौरान सैकड़ों की संख्या में आम ग्रामीणों के खिलाफ राजद्रोह का अभियोग लगाया गया और उनमें से कई को तो लंबे समय तक जेल में भी रखा गया।

राजद्रोह का सबसे खतरनाक प्रभाव व्यक्ति पर 'देशद्रोही’ का ठप्पा लग जाना है, जिस रूप में पुलिस, राज्य व मीडिया द्वारा उसे संबोधित किया जाने लगता है। इसका गंभीर असर विरोधियों और उनके परिवारों पर पड़ता है। भले ही बाद में साक्ष्य के अभाव में या किसी अन्य वजह से ये आरोप गिरा दिए जाएं लेकिन उनका स्थायी नुकसान तो हो ही जाता है।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सन 1952 में पहली संसद से यह वादा किया था कि राजद्रोह कानून को वापस ले लिया जाएगा, लेकिन उसके बाद 63 साल गुजर चुके हैं, लेकिन आज तक यह वादा पूरा नहीं हुआ है।

आतंकवाद विरोधी कानून

आतंकवाद से लडऩे के नाम पर समय-समय पर कई दमनकारी कानून बनाए गए थे, जिनमें 1911 का राजद्रोहपूर्ण बैठक रोकथाम कानून, 1967 का गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून (जिसे यूएपीए भी कहा जाता है), 1980 का राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, 1958 का सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (आफस्पा), 1974 का कोफेपोसा कानून, 1976 का गड़बड़ी वाले क्षेत्र विशेष अदालत कानून, 1982 का नागरिक उड्डयन की सुरक्षा के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियों का दमन कानून, 1982 का विमान-अपहरण निरोधक कानून शामिल हैं। इनके अलावा कई राज्यों ने अपने अलग कानून बनाए जिनमें 1999 का महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण कानून (मकोका) है, जिसके हाल के पारित गुजरात कानून समेत कई स्वरूप अन्य राज्यों ने भी बनाए। फिर, गुजरात के 1985 के समाज-विरोधी गतिविधि रोकथाम कानून और 2005 के छत्तीसगढ़ के विशेष सार्वजनिक सुरक्षा कानून का भी इस्तेमाल प्रत्यक्षत: आतंक को काबू में करने के लिए किया जाना था।

इनमें सबसे खतरनाक यूएपीए है जिसमें 2004, 2008 और  2012 में संशोधन किए गए। वर्ष 2004 में किए गए संशोधन में 2002 के आतंकवाद निरोधक कानून (पोटा), जिसे बाद में वापस ले लिया गया था और पहले के आतंकवादी व विध्वंसकारी गतिविधि कानून (टाडा), 1985 के सबसे दमनकारी व मानवाधिकार विरोधी हिस्सों को यूएपीए में शामिल कर लिया गया। इसमें 'गैरकानूनी गतिविधियों’ को बेहद ढीले-ढाले तरीके से परिभाषित किया गया है। इसे लागू करने के लिए किसी आतंकवादी गतिविधि का होना ही जरूरी नहीं है, ऐसी कोई भी गतिविधि जिससे उसका खतरा हो या खतरा पैदा होने की आशंका हो, भी इसके दायरे में आ जाती है। यूएपीए सरकारों को नागरिकों की बोलने, अभिव्यक्त करने, एकत्र होने या समूह बनाने की आजादी को सीमित करने का असीमित अधिकार दे देता है।

 

(लेखक मद्रास हाईकोर्ट में अधिवक्ता हैं और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

 

 

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TAGS: वी. सुरेश, अभिव्यक्ति की आजादी, न्यायेतर शक्तियां, बजरंग दल, एबीवीपी, एम.एफ. हुसैन, असीम त्रिवेदी, पेरुमल मुरुगन
OUTLOOK 14 August, 2015
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