संगीत-नृत्य में परंपरा-प्रवाह
राजधानी दिल्ली में संगीत-नृत्य के कार्यक्रमों के आयोजन में चंडीगढ़ के प्राचीन कला केंद्र ने तिमाई बैठक का एक नया सिलसिला शुरू किया है, जो बहुत ही कारगर होता दिख रहा है। हाल ही में केंद्र ने 25वीं तिमाई बैठक का आयोजन लिजेंडस ऑफ टुमारो शृंखला के तहत त्रिवेणी संगम के सभागार में किया।
कार्यक्रम में इस बार दिल्ली के युवा और प्रतिभावान सितारवादक सुहेल सईद खां का वादन और ओडिसी नृत्य की सुपरचित नृत्यांगना सुश्री श्राबनी मित्रा और उनके सहयोगी कलाकारों के एकल और समूह नृत्य प्रस्तुतियां हुईं। कार्यक्रम का आरंभ श्राबनी के नृत्य से हुआ। उन्होंने शुरुआत रूद्राष्टकम की प्रस्तुति से की। संत कवि तुलसीदास की इस कृति में भगवान शिव की महिमा, उनके असीम व्यक्तित्व, कृतित्व, और विनाशक शिव के तांडव नृत्य और डमरू की ध्वनि में जो सकारात्मक संदेश और आवाहन है, उसके दार्शनिक पहलुओं को नृत्य के जरिए उजागर करने का श्राबनी ने सहासिक प्रयास किया।
ओडिसी नृत्य के प्रखर गुर देवप्रसाद दास, केलुचरण महापात्र, और पंकज चरण दास के सानिध्य में उन्होंने नृत्य के गुर हासिल करने में अच्छा प्रयास किया है। श्राबनी के संत कवि जयदेव की कृति गीतगोबिंद में रचित अष्टपदी से उद्धृत प्रसंग ‘धीर समीरे यमुना तीरे बसत बनमाली की नृत्य’ अभिनय से प्रस्तुति में अच्छा निखार और लालित्य था। इस काव्य रचना में नायिका राधा और कृष्ण के मिलन में शृंगार रस भाव का जो स्पर्श और उद्वेलन है, वह नृत्य प्रस्तुति में सरसता से उभरा। समूह नृत्य में शृंगार रस की अगली प्रस्तुति ‘अधरम मधुरम नयनम मधुरापति’ भी मोहक थी। इसमें कृष्ण की लीलाओं को सुंदरता से चित्रित किया गया था। आखिर में भगवान विष्णु के दशावतार की प्रस्तुति में भी ओडिसी परंपरा का पूरी तरह निर्वाह था।
दिल्ली के संगीत घराने के मशहूर सितारवादक उस्ताद सईद जफर खां के बेटे सुहेल सईद खां भी इस कला में तेजी से उभरते दिख रहे हैं। उन्होंने राग बागेश्री की आलाप और तीनताल में निबद्ध गत की बंदिश को पेश करने में अपने हुनर और कौशल का भरपूर परिचय दिया। उनके वादन में रागदारी की शुद्धता, मन्द्र से लेकर तार सप्तक में संतुलित स्वर संचार एक-एक स्वर की बढ़त से राग के स्वरूप को दर्शाने का अंदाज से लेकर गमक मुर्की जमजमा बहलावा, मींड और विविध प्रकार की लयों में बंधी तानों की निकास बहुत प्रभावी थी। दिल्ली घराने में गायन और वादन के कई उस्तादों ने ऐसी मुश्किल तानों का ईजाद किया है, जिसे पेश करना आसान नही है। उसके लिए गहरी सूझ और रियाज की जरूरत है। ऐसी तानों को साधने और शुद्धता से निकालने में सुहेल ने वाकई खासी मेहनत से तैयारी की है। द्रुत तीनताल में राग रागेश्री की प्रस्तुति में भी तानों का करिश्मा और लयकारी के खूब रंग थे।
आखिर में मधुर धुन पर गांधी भजन ‘वैष्णव जन तेने रे कहिए, जे पीर पराई जाने रे’ को पेश किया। उनके वादन के साथ युवा तबलावादक मोनिश जमीर ने मुकाबले की संगत की। प्राचीन कला केंद्र के संस्थापक तथा कुशल नर्तक, संरचनाकार गुरु एम.एल. कोसर के मार्गदर्शन में उनके पुत्र सजल कोसर संगीत-नृत्य की विरल परंपरा की गरिगामयी आभा को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने का जो महत्वपूर्ण कार्य कर रहें हैं, वह बहुमूल्य है।