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03 February 2016

मिले-जुले समाज से पाकिस्तान महरूम है-इंतिजार हुसैन

आकांक्षा पारे काशिव

भारत की यादें किस तरह जेहन में हैं

छोटा सा कस्बा डिबाई और फिर मेरठ में पढ़ने की यादें कभी हल्की नहीं पड़ीं। हमेशा लगा मैं अपने दोस्तों के साथ हूं और कल फिर कॉलेज जाना है। मैंने सन 1946 में उर्दू में मेरठ कॉलेज में दाखिला लिया था।

भारत क्यों छोड़ दिया आपने

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छोड़ा नहीं था। उस वक्त बड़ों का जो फैसला था वह मान लिया गया। हमारे वक्त तब सारी बातें बड़े ही तय किया करते थे। हम सभी को लगा जैसे अलग-अलग सूबे होते हैं बस वैसे ही पाकिस्तान नया सूबा है। जहां सरकार लोगों को बसा रही है। जब मर्जी होगी यहां चले आएंगे। या आराम से आना-जाना करेंगे। पर क्या पता था वह दूरी ऐसी बन जाएगी कि लौटना मुश्किल होगा।

सन 1947 के बाद आप भारत कब लौटे

पच्चीस साल बाद। मैंने भारत, अपना घर, अपने दोस्तों सबी से मिलने की उम्मीद छोड़ ही दी थी। तमाम कोशिश की पर कोई रास्ता नहीं मिला। फिर किसी ने बताया हर साल पाकिस्तान से निजामुद्दीन औलिया के उर्स के मौके पर जायरीन जाते हैं। मैंने कमेटी के मैनेजर को कहा कि इसमें पत्रकारों को भी शामिल किया जाना चाहिए। उन दिनों मैं मशक अखबार में काम करता था। उन्होंने मेरी बात मानी और इस तरह मैं पच्चीस साल बाद पहली दफे भारत आया। उसके बाद प्रेमचंद शताब्दी वर्ष में आया और इस तरह सिलसिला चल पड़ा। यह मेरे दूसरे घर की तरह है।

कहानियां लिखना कब शुरू किया

एम ए में पहली कहानी लिखी थी, कय्यूमा शीर्षक से। लेकिन पाकिस्तान चले जाने के बाद अपनी उसी कहानी को दोबारा मांजा और एक उर्दू रिसाले में भेजी। कहानी छप गई तो हौसला आया।

आपको कहानियों के लिए प्रेरणा कहां मिलती है

कबीर से। मैंने कबीर खूब पढ़ा है। उन्हें पढ़ना मुझे पसंद है। इसके अलावा बौद्ध धर्म में देखिए फिक्शन की एक रवायत है। जीवन में सभी जगह दर्शन है। यही दर्शन मेरी प्रेरणा है।

 

भारत पाकिस्तान में साहित्य के माहौल को आप कैसे देखते हैं

हिंदुस्तान में पढ़ने की रवायत है। मुझे यह बताने में अच्छा लग रहा है कि मेरे अफसाने हिंदुस्तान में लोग बहुत इज्जत से पढ़ते हैं। मैं उन सभी का शुक्रगुजार हूं। यहां लोग दूसरी जबान पढ़ने के लिए भी तैयार रहते हैं। अनुवाद भी खूब होते हैं। यह दिखाता है कि यहां साहित्यिक माहौल बहुत अच्छा है।

भारत-पाक की कहानियों के विषय, पात्र, कथावस्तु में आप क्या अंतर पाते हैं

यहां लोकतंत्र है। पाकिस्तान में वह कभी-कभी ही रह पाता है। इसका बहुत फर्क पड़ता है लेखन पर। यहां की कहानियों में नए-नए विषय हैं। पाकिस्तान में ऐसा कम देखने को मिलता है। फिर हमारा समाज भी बदल गया है। यहां कई कौम के बाशिंदे हैं। हमारे यहां खालिस मुसलमान। सिंध में फिर भी हिंदू हैं। बाकी जगह इनकी संख्या कम है। मिला-जुला समाज बहुत सी बातें देता हैं। पाकिस्तान इससे महरूम है। इन सबका असर पाकिस्तान के साहित्य पर भी पड़ा है।

आपके पसंदीदा लेखक

बहुत से हैं। पर राजेंदर सिंह बेदी, कृश्नचंदर और मंटो तो हैं हीं। 

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OUTLOOK 03 February, 2016
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