जेएनयू में आदिवासी साहित्य की गूंज
इस मौक़े पर ‘आदिवासी साहित्य’ नाम की एक पत्रिका का लोकार्पण भी किया गया। पत्रिका के संपादक और जेएनयू के प्राध्यापक गंगा सहाय मीणा ने बताया कि इन दिनों अकादमिक जगत में आदिवासी साहित्य को लेकर भ्रम की स्थिति है और दूर-दूराज में बड़ी संख्या में सक्रिय आदिवासी रचनाकारों की आवाज दिल्ली तक नहीं पहुंच पा रही है। इस स्थिति को तोड़ने के लिए ही आदिवासी जीवन दर्शन को आधार बनाकर राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका शुरू की गई है।
जेएनयू में हुए इस कार्यक्रम मे देशभर से आए आदिवासी साहित्यकारों ने हिस्सा लिया। इस अवसर पर महाराष्ट्र से आये वरिष्ठ आदिवासी साहित्यकार वाहरू सोनवणे ने कहा कि अंग्रेजों के खिलाफ असली लड़ाई आदिवासियों ने लड़ी क्योंकि उन्होंने आदिवासियों के जंगलों को उनसे छीन लिया जो उनका जीवनाधार था। अंग्रेजों से लड़ते हुए बहुत सारे आदिवासियों को फांसी पर चढ़ाया गया लेकिन पूर्वाग्रहपूर्ण इतिहासलेखन और साहित्य में उन्हें जगह नहीं दी गई। सोनवणे ने आगे कहा कि जो मुक्तिकामी साहित्य को खारिज करते हैं वे वर्चस्ववादी हैं.
कार्यक्रम में झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने कहा कि आदिवासी साहित्य की परंपरा बहुत पुरानी है। उस पर गंभीर शोध की आवश्यकता है। 1928 में आदिवासियों की पहली पत्रिका निकली लेकिन उसका कोई नोटिस नहीं लिया गया। आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने ‘आदिवासी सकम’ नाम से मशहूर पत्रिका निकाली लेकिन इतिहास में उसको जगह नहीं दी जाती। आदिवासियों की चुनौती दोहरी हैं- आर्थिक और सांस्कृतिक। दोनों क्षेत्रों में आदिवासियों को जागरूक और एकजुट करने की जरूरत है।
आदिवासी मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग ने कहा कि बाहर के लोग आदिवासियों के बारे में भ्रम फैला रहे हैं। इसी को दुरुस्त करने के लिए इस तरह की पत्रिकाओं की जरूरत है। आदिवासियों की स्थिति उस हिरण की सी है जो चारों ओर से शिकारियों द्वारा घेर लिया गया है। आदिवासी कार्यकर्ता और शोधकर्ता अभय खाखा ने कहा कि आदिवासियों पर किये गए नृतत्वविज्ञानी अध्ययनों ने आदिवासियों की नकारात्मक छवि का निर्माण किया है और उसी के आधार पर आदिवासी-विरोधी कानून बने है।
इस मौक़े पर जेएनयू के स्कूल ऑफ लैंग्वेज की डीन प्रो. वैश्ना नारंग, भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष प्रो. अनवर आलम और आदिवासी कार्यकर्ता अभय खाखा, पत्रकार दिलीप मंडल, प्रो. गोबिंद प्रसाद, पी.सी. हैंम्ब्रम, डॉ. बन्नाराम, वीरेन्द्र, राजकुमार, डॉ. आसिफ जहरी, डॉ. शिवप्रकाश, मीनाक्षी मीणा, गणेश मांझी आदि भी मौजूद थे।