उजले दिनों के कासिद वीरेन डंगवाल नहीं रहे
हिंदी के हस्ताक्षर कवि वीरेन डंगवाल का आज सुबह बरेली में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत वीरेन डंगवाल अपनी शक्तिशाली कविताओं के साथ-साथ अपनी जनपक्षधरता, फक्कडपन और यारबाश व्यक्तित्व के चलते बेहद लोकप्रिय थे। उनके निधन से साहित्य जगत में गहरा दुख है। वीरेन डंगवाल के जाने से हिंदी कविता में एक बड़ा शून्य पैदा हुआ है।
पांच अगस्त 1947 को टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में जन्मे वीरेन डंगवाल की कर्मभूमि बरेली रही। मुंह के कैंसर से उन्होंने बेहद लंबी लड़ाई लड़ी। कैंसर कई बार फिर-फिर उभरा और हर बार उन्होंने अपनी तगड़ी जिजीवीषा से उसे परास्त किया। दिल्ली में उनका कई वर्षों तक अलग-अलग अस्पतालों में उनका इलाज चला। गहरी बीमारी में भी उनके दिल में बरेली से गहरा जुड़ाव और प्रेम हिलोरे मारता रहता था। यही प्रेम उन्हें 20 सितंबर को बरेली खींचकर ले गया और वहां वह तबसे ही अस्पताल में भर्ती थे। यहीं आज उन्होंने सुबह अंतिम सांसे लीं।
उनका फक्कड़ स्वभाव उनकी रचनाओं में भी साफ छलकता है। उनका पहला कविता संग्रह इस दुनिया में 43 वर्ष की उम्र में आया। पहले संग्रह पर उन्हें रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा पुरस्कार मिला। दूसरा संकलन दुष्च्रक में सृष्टा 2002 में आया और इसी साल उन्हें शमशेर सम्मान भी मिला। इसी संग्रह पर उन्हें 2004 में साहित्य अकादमी भी मिला। कवि ने कहा और स्याही ताल भी उनके संग्रह है। उन्होंने कुछ बेहद दुर्लभ अनुवाद भी किए, जिसमें पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्त ब्रेख्त, वास्को पोपा और नाजिम हिकमत की रचनाओं के तर्जुमे खासे चर्चित हुए। वीरेन डंगवाल की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उन्होंने उच्च स्तरीय संस्मरण भी लिखे, जिसमें शमशेर बहादुर सिंह, चंद्रकांत देवताले पर उनके आलेखों की गूंज रही।
कैंसर जैसी मारक बीमारी से लड़ाई के दौरान उन्होंने अपनी सक्रियता को जिस तरह से बनाए रखा, वह अपने आप में मिसाल है। दिल्ली में जब भी संभव हुआ, वह धरना-प्रदर्शन, कविता पाठ, सांस्कृतिक आयोजनों में शिरकत करते दिखाई देते थे। वह जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे।
बतौर पत्रकार भी उन्होंने एक अलग पहचान बनाई। बरेली में अध्यापन के साथ-साथ वह अमर उजाला अखबार का संपादन का भी काम किया। बेहद मिलनसार और मददगार स्वभाव के वीरेन डंगवाल, युवा पीढ़ी के सबसे चहेते रचनाकारों में से एक है। उनकी कविता-आएंगे उजले दिन जरूर आएंगे और दुष्चक्र में सृष्टा, का कविता पोस्टर में भरपूर इस्तेमाल हुआ। उनकी कमी से हिंदी जगत शोकाकुल है।