साहित्योत्सव में डूबे रसिक
कपिला वात्स्यायन ने कहा, गांधी, आंबेडकर और नेहरू एक ही समय के तीन बड़े नाम थे, जिन्होंने हमारे दिमागों को प्रभावित किया। नेहरू और अम्बेडकर गांधी की छाया में रहे लेकिन उनके सोचने और समझने के तरीके़ भिन्न थे। जैसे कि अस्पृश्यता को लेकर आंबेडकर का नजरिया बिल्कुल अलग था। नेहरू पूर्व और पश्चिमी संस्कृति के संयोजक के रूप में देखे जा सकते हैं। उन्होंने कई उदाहरण देते हुए गांधी, आंबेडकर और नेहरू के व्यक्तित्व और सोच की विशिष्टता प्रर प्रकाश डाला।
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि तीनों में भले ही कुछ मतभेद थे लेकिन उनका लक्ष्य एक था, भारतवर्ष की उन्नति। नेहरू कभी कट्टर गांधीवादी नहीं रहे। उन्होंने गांधी को उद्धृत करते हुए कहा कि सत्य निर्गुण होता है, अज्ञेय होता है। सगुण और गेय तब बनता है जब सत्य अहिंसा का वस्त्र धारण करता है। उन्होंने अस्पृश्यता के संबंध में महात्मा गांधी की उक्ति की याद दिलाई। ‘अस्पृश्यता को हिंदू धर्म अगर धार्मिक रूप देगा तो मैं हिंदू धर्म छोड़ दूँगा।’
विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रख्यात विद्वान एवं शिक्षाविद् कृष्ण कुमार ने कहा कि गांधी की कल्पना स्वाधीन मनुष्य की थी यानी वे मनुष्य पर राज्य का नियंत्रण नहीं चाहते थे। वे चाहते थे कि हर व्यक्ति आत्मराज से संचालित हो यानी उस पर नियंत्रण के लिए कोई और तंत्र न हो। यह एक ऐसी कल्पना थी जिसको साकार करने की एक बड़ी पहल आंबेडकर ने की। हालांकि दोनों के सिद्धांत अलग-अलग थे। आगे उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता तभी संभव है जब शब्द स्वतंत्र होंगे। सच्ची स्वतंत्रता का सपना तभी सच होगा जब शब्दों को आजादी मिलेगी।
प्रख्यात ओड़िया लेखक एवं अकादेमी के सदस्य मनोज दास ने कहा कि विचार ही सबसे बड़ा होता है और इन तीनों महान चिंतकों के विचारों ने ही आम जनता के बीच में अपनी पैंठ बनाई। बीसवीं शताब्दी के उथल-पुथल भरे वातावरण में इन तीनों के चिंतन ने ही शांति और समानता की बागडोर संभाले रखी।