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08 May 2021

शहरनामा/ गोंडा: अपनी साहित्यिक विरासत को संजोता शहर

Symbolic Image

अपने शहर की छवि

शहर की पहली स्मृति आंखों में ऐसी रचती-बसती है कि वह आधार छवि बन जाती है और बाद की छवियां उसी में जोड़-घटाव करती रहती हैं। उत्तर प्रदेश के अपने शहर गोंडा को मैंने पहली बार मार्च-अप्रैल ’84 के मध्य किसी तारीख को देखा। तब आठवीं का छात्र था और छात्रवृत्ति की परीक्षा देने जिला मुख्यालय आया था। आया नहीं, लाया गया था। लाए थे शिक्षक वासुदेव जी। साथ में 5 विद्यार्थी और थे। परीक्षा सेंटर था फकरूद्दीन अली अहमद राजकीय इंटर कॉलेज। कॉलेज की भव्य इमारत देखकर चकित था। उसके सामने मेरा जनता इंटर कॉलेज कितना बेनूर, कितना छोटा था! उस दिन गोंडा कचहरी में किसी मुकदमे की पेशी थी और मेरे बड़े भाई शहर आए हुए थे। पहली बार पूरा सेब खाने को मिला था। पहले एक सेब के चार-छह टुकड़ों में एक टुकड़ा पाने का ही अनुभव था। विस्फारित आंखों से शहर को जितना देख सका, स्मृति-कोश में भरता गया था। बस अड्डे से वापसी की बस पकड़नी थी। तब बस अड्डे पर अखबार-पत्रिकाओं की दो दुकानें थीं। दसवीं कक्षा से जब अकेले शहर आने-जाने लगा तब वहीं से उपन्यास खरीदता था। बाद में जाना कि पाठक, शर्मा, कर्नल लिखित ये लुगदी, पल्प या लोकप्रिय उपन्यास थे।

दो नदियों की तलहटी

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गोंडा की प्राकृतिक सीमा दो नदियां बनाती हैं। उत्तर में क्वानो, दक्षिण में सरजू-घाघरा। मेरा गांव सरजू-घाघरा के माझा क्षेत्र में पड़ता है। बांध बन जाने से बाढ़ आनी बंद हो गई थी लेकिन असर पूरा दिखता था। परास, बहादुरपुर जैसे गांवों के किसान और पशुपालक सावन-भादों में इधर आ जाते और उतरते क्वार वापस होते थे। उनके होने से दूध-दही की बहार रहती थी।

दंगे की आंच

जिस वर्ष वजीफे का इम्तहान देने गया, उसी वर्ष अक्टूबर में इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी। हत्या के बाद भड़के दंगे की आंच गोंडा भी पहुंची थी। बड़गांव रोड, चौक आदि पर सिखों की दुकानें लूट ली गईं, जला दी गईं। नवाबगंज और करनैलगंज में भी ऐसा ही मंजर रहा। स्कूल खुला तो शिक्षकों में महीनों इसी पर चर्चा होती रही।

स्मृतिशेष पुस्तकालय

गोंडा शहर की व्यस्त जगहों में बस अड्डा और रेलवे स्टेशन के अलावा जिला महिला चिकित्सालय, जिला चिकित्सालय, कचहरी और लालबहादुर शास्त्री महाविद्यालय (लोकप्रिय नाम एलबीएस) आते हैं। छुट्टी के दिनों में कचहरी और कॉलेज सन्नाटे में डूबे होते हैं लेकिन अस्पताल परिसर रात-दिन चहल-पहल भरा होता है। महिला चिकित्सालय के सामने जिला सेवायोजन केंद्र हुआ करता था। कभी यहां पंजीकरण करवाने वालों की बड़ी भीड़ लगा करती थी। सेवायोजन केंद्र के साथ नौकरियों के आवेदनपत्र बेचने वाली ढाबलियां खुल गई थीं। रोजगार समाचार बेचते-बेचते ये ढाबलीवाले साहित्यिक पत्रिकाएं भी रखने लगे। जब भी उधर से गुजरता, चाय पीते-पान खाते लोग सेवायोजन केंद्र से मिली चिट्ठियों पर चर्चा करते मिल जाते। वहीं पास इंटर कॉलेज के सामने जिला पुस्तकालय था। छोटा-सा हालनुमा कमरे जैसा। मैंने अक्सर उसे ताले में जकड़ा पाया। शाम को दो-तीन बार खुला दिखा लेकिन उस निर्जन ‘भवन’ में कभी घुसने का साहस ही न हुआ। अब तो वह बंद ही हो गया है। सोचता हूं कि कभी कोई साहित्यिक अभिरुचि वाला जिलाधिकारी आए तो उसके सामने पुनरुद्धार का अनुरोध करूं।

साहित्यिक विरासत

गोंडा को अपनी साहित्यिक विरासत पर नाज है। गोंडा जनपद का इतिहास लिखने वाले डॉ. श्रीनारायण तिवारी ने साक्ष्यों का अंबार लगाकर साबित करना चाहा है कि मानसकार तुलसीदास गोंडा के ही थे। सर्वथा भिन्न कारण से मैं भी इस मत का समर्थन करता हूं। महाकाव्य के मंगलाचरण में तुलसीदास ने विस्तार से दुर्जनों की वंदना की है। विद्वानों ने इसे उनकी मौलिक सूझ कहा है। गोंडा अकेला जनपद है जहां तीन ‘दुर्जनपुर’ हैं। सबसे बड़ा वाला दुर्जनपुर पुराना कस्बा है जो तरबगंज से नवाबगंज जाते बीच में पड़ता है। रगड़गंज से गोंडा जाते रास्ते में टिनवां कुआं पड़ता है। रात-बिरात चलने वाले लौवा टपरा को भी दुर्जनपुर कहते मिले थे।

वर्तमान आबोहवा

अभी गोंडा शहर में साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र ‘पूर्वापर’ पत्रिका के संपादक डॉ. सूर्यपाल सिंह का आवास है। सूर्यपाल जी स्वयं अच्छे कथाकार एवं वक्ता हैं। एलबीएस के डॉ. शैलेंद्रनाथ मिश्र, डॉ. जयशंकर त्रिपाठी तुलसी सभागार में सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजन करते रहते हैं। बहुभाषाविद-अनुवादक जगन्नाथ त्रिपाठी और लेखक-समीक्षक छोटेलाल दीक्षित के स्मृतिशेष होने से गोंडा की साहित्यिक आबोहवा में जो वैक्यूम बना था उसे भरा जाना तो नामुमकिन है, लेकिन कई रचनाकार-अनुवादक आश्वस्त तो कर ही रहे हैं।

गांधी दान

गोंडा की पहचान मात्र कांवड़िया सप्लायर के रूप में न रह जाए, इसके लिए संस्कृतिकर्मियों की दरकार और तीव्रता से महसूस हो रही है। संस्कृत के प्रगतिशील कवि महराजदीन पांडेय ‘विभाष’ का लेखन सांस्कृतिक नवाचार का प्रस्थान हो सकता है। दो शक्तिपीठों- देवीपाटन और उत्तरी भवानी (मां वाराही) के मध्य स्थित गोंडा ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ का सहभागी बन सकता है। 9-10 अक्टूबर 1929 को गांधीजी गोंडा में थे। तब इस शहर ने उन्हें आभूषणों और रुपयों से भरी थैली सौंपी थी। शहर की स्मृति में सुसुप्त इस घटना को उदगारने की आवश्यकता है।

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TAGS: Shaharnama, Gonda
OUTLOOK 08 May, 2021
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