विश्व हिंदी सम्मेलन कथा
इस समस्त आयोजन को इस नजर से नहीं देख रही हूं कि इसका आयोजक कौन था। किसी भी असुविधा, अव्यवस्था और असंतुष्टि के नजर से भी नहीं देख रही हूं न इस दृष्टिकोण से मूल्यांकन करना चाह रही हूं कि किस स्थान पर और क्यों। यह सोचकर भी अभिव्यक्ति नहीं कर रही हूं कि सरकार किसकी है? किसकी देख-रेख में यह आयोजन है। इस नजर और नजरिया से देखने-परखने का प्रयास कर रही हूं कि यह देश मेरा है। हम इस देश के नागरिक हैं। हमारी छोटी सी भूमिका किस तरह की रही है? आगंतुकों के सामने हमारे देश की साख, इज्जत और रुतबे पर बट्टा लगे इससे बेहतर है कि वक्त की कड़वी दवा को हलक से चुपचाप उतार लिया जाए। ठीक वैसे ही जैसे घर में बेटी की शादी हो उस वक्त परिवार के सदस्यों को न्योता नहीं दिया जाता बल्कि सब अपनी-अपनी जिम्मेदारी से बंधे काम में जुट जाते हैं। दिल-दिमाग के सारे गिले-शिकवे, गुबार और दुश्मनी को भुलाकर सिर्फ इतना याद रखते हैं कि दरवाजे की इज्जत, घर की इज्जत, गांव और कुनबे की इज्जत है। हिंदी के वैवाहिक आयोजन में ऐसा क्यों कर नहीं हुआ? हमें हमारी विचारधारा इतनी अजीज थी कि देश की एकता और अखंडता तार-तार करने से भी गुरेज न था। ऐसे एकाकी बुद्धिजीवियों की सोच से घिन आती है।
यह आयोजन भारत सरकार के विदेश मंत्रालय, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्ली, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय-वर्धा, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय-भोपाल तथा मध्य प्रदेश सरकार के संयुक्त तत्वावधान में दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में तमाम चुनौतियों, संदेशों, संकेतों और समस्याओं की अनुशंसा सहित अनेकानेक विवादों के साथ संपन्न हुआ।
हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन 10 सितंबर को कई गणमान्य अतिथियों ने मिलकर किया। उनका हिंदी के साथ क्या संबंध है? यह मंथन का विषय है। कार्यक्रम के प्रथम दिन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह सम्मेलन बाकी हिंदी आयोजनों से भिन्न है। भिन्नता तो ठीक बात है लेकिन अभिन्नता समझ नहीं आई। यह ‘साहित्य केंद्रित’ न होकर ‘भाषा केंद्रित’ है। साहित्य महकमें के लोगों को यह अपमानजनक लगा। कलम घसीटी दुनिया के लोग उबल पड़े। जो पहले से ही थोक भाव में अनिमंत्रण से भरे बैठे थे।
बुद्धिजीवीओं का गुस्सा फूट पड़ा। हम इसकी निंदा भी करते हैं, लेकिन साहित्य के हस्ताक्षर कहे जाने वालों की भी की भर्त्सना की जानी चाहिए। भले ही यह आयोजन घोटालों के लिए चर्चित और गैस त्रासदी का गवाह शहर-ए-भोपाल में आयोजित किया गया हो लेकिन भारत देश तो हमारा है न। जहां की धरती पर हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल सागर की लहराती धाराएं हैं। भले ही इनका पानी खारा हो लेकिन भाषा और बोलियों में मिठास कूट-कूट कर भरी हुई है। ग्रंथों में शक्कर उड़ेलने वाले कलमकारों में इतनी कडुवाहट आई कहां से जो यह भी भूल गए कि घर में कोई आयोजन हो तो किसी एक की बेइज्जती संपूर्ण कुनबे की पगड़ी उछलने वाली बात है। हमारे सोकॉल्ड (कथित) साहित्यकारों ने यही किया। जो गलती सरकार ने की वही कलम के सिपाहियों को शोभा नहीं देता है।
भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा भाषा संरक्षण का सुझाव बेहतर था। वस्तुतः देखा जाए तो विभिन्न भाषाओं के बीच बेहतर तालमेल और हिंदी शिक्षण हेतु एप्लिकेशन (ऐप) बनाने की जरूरत पर बल दिया। यह ऐप जैसी सुविधा हर हाथ में मौजूद है। जरूरत है तो घर-घर हिंदी के प्रति सम्मानजनक सोच पैदा करने की क्योंकि हिंदी भाषी लोगों की अपेक्षा गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी के संवर्धन में महती योगदान दिया है। हिंदी भाषी हिंदी बोलने के नाम पर धरती में गड़ता सा महसूस करते हैं। उनकी इस सोच का प्रदर्शन इस विश्व सम्मेलन में भी खूब देखने को मिला।
विदेशों से आए आगुंतकों द्वारा हिंदी में वार्तालाप करना और हिंदी में ही अपनी अभिव्यक्ति इस बात प्रमाण है। हमारे भारतीय विद्वान फीस देकर सम्मेलन में भाग लेना अपना अपमान समझ रहे थे वहीं विदेशियों में यह गर्व की बात थी कि हम अपने योगदान से भारत के इस सम्मेलन का हिस्सा बने हैं। उनसे बात करके ऐसा लगा जैसे उनके हाथ कोई बहुत बड़ी पूंजी लग गई हो।
भारतीय हिंदी सेवियों के संदर्भ में अब कुछ आंतरिक किस्सों पर नजर डालें तो लगता है जैसे सब के सब देशांतर से आए हैं। जिसकी सरकार उसकी मुहर। यह लगना तय था लेकिन इस किरकिरी के साथ एक सामूहिक आयोजन संपन्न होगा इसकी उम्मीद न थी। शुरू से ही कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी इस सम्मेलन को लेकर निम्नस्तरीय आलोचना करते रहे खास धुर विरोधी नेता, पत्रकार पूरे जोश से आमंत्रित किए गए। मंच तक पहुंचकर अपनी ढपली भी बजाई। एक बुद्धिजीवी ने अपने अंदाज के नुक्ताचीनी अंदाज में पड़ताल की और यह जानकारी दी कि एक अंग्रेजी शब्द को 22 बार प्रयोग में लाया गया। जबकि हिंदी ने सभी भाषाओं के शब्दों को समुचित स्थान देकर ही आगे बढ़ी है। हिंदी का हृदय विशाल है जहां सबको समुचित जगह मिलती रही है। यह हमारी हिंदी की अद्भुत पहचान है। इस बात को कभी झुठलाया नहीं जा सकता है।
मुझे शिकायत फिल्मी दुनिया की महान हस्ती अमिताभ बच्चन से भी है। अपने साहित्यिक पिता के सम्मान के लिए वक्त नहीं था कोई बात नहीं। कम से कम देश के सम्मान में बोलने के स्थान पर चुपचाप सम्मेलन में आकर बैठ तो सकते थे।
कुछ एक मामले में हिंदी का यह आयोजन बहुत महत्वपूर्ण रहा। सम्मेलन साक्षी के रूप में सी डैक का न्यूज डैमो, पुणे, गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट, एनबीटी, संचार मंत्रालय, प्रौद्योगिकी मंत्रालय, राजभाषा विभाग और एप्पल की उपस्थिति बेहद सराहनीय रही। ई-माध्यमों में हिंदी की दुनिया विस्तार ले रही है यह सबसे बड़ा आकर्षण का केंद्र रहा। अलग-अलग प्रतिनिधियों द्वारा यूनिकोड, भाषा कंप्यूटिंग, सॉफ्टवेयर पोर्टेबिलिटी के माध्यम से जानकरी देना और परिचर्चा काबिले तारीफ था।
हिंदी फलक को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग सत्रों विविध विषयों पर चर्चा-परिचर्चा का सुगम संयोजन रहा। लगभग 67 देशों में पढ़ाने वाले भारतीय प्राध्यापकों तथा विदेशी हिंदी सेवियों ने अपने अनुभव बांटे जो रोचक था। उनके अनुभवों के आलोक से हिंदी का सुंदर भारत दृश्यमान हो रहा था। पत्रकारिता और सोशल मीडिया में हिंदी बहुत ही समृद्ध है। अनुवाद और तकनीकी लेखन की बात न की जाए तो विश्व साहित्य और धरोहर की बात अधूरी रह जाएगी जिसे अनुवाद की परंपरा ने विकसित करने में महती भूमिका निभाई है।
तमाम विमर्शों के मध्य अगर प्रकाशन जगत की समस्याओं पर वर्तालाप न किया जाए तो शायद भाषा, साहित्य की बात पूरी नहीं होती है। साथ ही बाल साहित्य, इंटरनेट की हिंदी, सिनेमा की हिंदी भी केंद्र में रही। नाट्य प्रस्तुतियों के माध्यम से भी हिंदी की प्रकाशपुंज को व्यक्त किया गया। माना कि संचालनगत त्रुटियों को नजरंदाज नहीं जा सकता है। विशाल आयोजन के नजरिए से संचालकों का चयन सावधानीपूर्वक न किया जाना खल रहा था।
बहुतेरे लोगों की एक बड़ी शिकायत थी कि पंजीकृत लोगों के लिए ठहरने की व्यवस्था नहीं की गई थी। यह सच है। कम से कम पंजीकृत लोगों के ठहरने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए थी। इस तरह की कमियां दूर की जा सकती थी। असंतुष्ट हिंदी प्रेमियों को छोटी-छोटी चीजों का ख्याल रखकर सम्मानजनक स्थिति बनाई जा सकती थी। सब कुछ के बावजूद कब तक बड़े, बूढ़े, प्राचीन दरख्तों के बल पर समृद्धि की कहानी लिखी जा सकती थी।
इसमें तकरीबन 39 देशों के हिंदी सेवियों तथा भारत के लगभग 5000 हिंदी के सेवकों के साथ आयोजित यह सम्मेलन निरंतर चर्चा के केंद्र में रहा। हिंदी सम्मेलन ने यह सिद्ध कर दिया कि बड़ी-बड़ी बातों के पुल बांधने वाले दरअसल अपने ही खोल में जिंदा हैं। हजारों रुपये पानी में बहाने वाले श्रम के नाम पर खर्च करने से गुरेज करते हैं। इस हद तक आक्रामक हो जाते हैं कि सब कुछ भूलकर केवल यह याद रखते हैं कि हमारे रसूख में कोई फर्क न आए। यह सोच कहीं से भी उचित नहीं है। पिछले नौ सम्मेलन इस बात के गवाह हैं। 9 वें विश्व हिंदी सम्मेलन में बहुत कुछ ऐसा घटा था जिसे भुलाया नहीं जा सकता है बावजूद उस देश-शहर के लोगों ने पूरी दुनिया को भनक तक न लगने दी। हम सब ऐसा मिसाल पेश करने में नाकाम क्यों रहे? यह चिंतन, मंथन का विषय है।