'ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे, ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे'
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयां और
मिर्ज़ा ग़ालिब ने बरसों पहले अपने आप को बहुत खूब बयां किया था। उन्होंने खुद ही बता दिया है कि वह क्यों दूसरों से अलग हैं और आज भी बल्लीमारान की गलियों से उठकर उनकी महक अदब की हर महफ़िल में गूंजती है।
शेर-ओ-शायरी के सरताज कहे जाने वाले और उर्दू को आम जन की जुबां बनाने वाले ग़ालिब को उनकी सालगिरह के अवसर पर गूगल ने एक खूबसूरत डूडल बना कर उन्हें खिराज-ए-अकीदत पेश की है।
उर्दू और फारसी भाषाओं के मुगल कालीन शायर ग़ालिब अपनी उर्दू गजलों के लिए बहुत मशहूर हुए। उनकी कविताओं और गजलों को कई भाषाओं में अनूदित किया गया।
डूडल में लाल रंग का लबादा और तुर्की टोपी पहने नजर आ रहे हैं और उनके पीछे जामा मस्जिद बनाई गई है। उन्होंने इश्क से लेकर रश्क तक प्रेमी-प्रेमिकाओं की भावनाओं को अपनी शायरी के जरिए बखूबी बयां किया।
ग़ालिब मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बड़े बेटे को शेर-ओ-शायरी की गहराइयों की तालीम देते थे। उन्हें वर्ष 1850 में बादशाह ने दबीर-उल-मुल्क की उपाधि से सम्मानित किया।
ग़ालिब का जन्म का नाम मिर्जा असदुल्ला बेग खान था। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। ग़ालिब ने 11 वर्ष की उम्र में शेर-ओ-शायरी शुरू की थी। तेरह वर्ष की उम्र में शादी करने के बाद वह दिल्ली में बस गए। उनकी शायरी में दर्द की झलक मिलती है और उनकी शायरी से यह पता चलता है कि जिंदगी एक अनवरत संघर्ष है जो मौत के साथ खत्म होती है।
ग़ालिब सिर्फ शेर-ओ-शायरी के बेताज बादशाह नहीं थे। अपने दोस्तों को लिखी उनकी चिट्ठियां ऐतिहासिक महत्व की हैं।
उर्दू अदब में ग़ालिब के योगदान को उनके जीवित रहते हुए कभी उतनी शोहरत नहीं मिली जितनी इस दुनिया से उनके रुखसत होने के बाद मिली। ग़ालिब का 15 फरवरी 1869 को निधन हो गया। पुरानी दिल्ली में उनके घर को अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है।
पढ़िए, ग़ालिब की 220वीं सालगिरह पर उनके कुछ चुनिंदा शे'र-
1- आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है
ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार नहीं है
2- आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
है गरेबाँ नंग-ए-पैराहन जो दामन में नहीं
3- आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
4- बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे
5- बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूँ मुझ को ग़म क्या है
6- बज़्म-ए-शहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
रखियो या रब ये दर-ए-गंजीना-ए-गौहर खुला
7- ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की
8- हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
9- हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझ से
10- ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे