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01 November 2018

'मतदान केंद्र पर झपकी' का हर शब्द एक वसीयत

मतदान केंद्र पर झपकी

केदारनाथ सिंह का नया संग्रह मतदान केंद्र पर झपकी पुन: उनकी याद दिलाने के लिए हिंदी जगत के सम्‍मुख है। अभी बिल्‍कुल अभी जैसे शुरुआती संग्रह से लेकर मतदान केंद्र पर झपकी तक उनके कई पड़ाव रहे। पहला बड़ा मोड़ उनकी कविता में जमीन पक रही है के साथ आया जो नए काव्‍यास्‍वाद का परिचायक था। अकाल में सारस और तालस्‍ताय और साइकिल दूसरे बड़े मोड़ कहे जा सकते हैं। वे अपनी शैली के आविष्‍कर्ता सिद्ध हुए। उनकी कविताओं में उनका ग्रामगंधी मन बोलता था। अनकहे, अन-अनुभूत की खोज ही केदार जी की कविता की वह केंद्रीय धुरी है जो उन्‍हें केवल हिंदी कविता ही नहीं, भारतीय और विश्‍व-कवियों के बीच उल्‍लेखनीय बनाती है।

केदारनाथ सिंह की कविताएं न तो स्‍थूल शब्‍दों के घेरे में बंद नजर आती हैं, न आलंकारिक प्रयोगों से लैस। वे सहज बातचीत करती हुई हमें एक ऐसे बिंदु पर लाकर छोड़ देती हैं कि हम अचरज से भर उठते हैं। वे हर क्षण इस कवि-चिंता से जूझते दिखाई देते हैं कि आखिर हमारी मनुष्‍यता को क्‍या हो गया है! उनकी कविताओं में कहीं भी हिंसा के छींटे या लाल रंग बिखरे नहीं दिखते पर वे अपने विचारों में प्रगतिशीलता का दामन नहीं छोड़ते। हां, ऐसा करते हुए भी उनकी पहली शर्त कविता को शुद्ध कविता की कसौटी पर खरा देखने की रही है।

इस संग्रह की पहली ही कविता ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ में मतदाता सूची में अपना नाम न देख कर वे पलट कर पेड़ों की ओर देखते हैं जो मस्‍त मलंग खड़े हैं। न सही मतदाता सूची में नाम, वे उस विशाल सूची में तो हैं ही, जिसमें वे सारे नाम हैं जो छूट जाते हैं बाहर। कितना बड़ा ढाढ़स है उनके पास। पेड़ की छांव में उन्‍हें झपकी आ जाती है और जब एकाएक एक पत्ती के गिरने से नींद खुलती है तो उन्‍हें अपने न दिए जाने वाले वोट की महिमा नजर आती है, जो एक नागरिक का सबसे बड़ा अधिकार है और वे खुद इस व्‍यर्थ में नया कोई अर्थ खोजने के लिए व्‍यग्र हो उठते हैं। उनकी एक कविता ‘चीनी मिल के बाहर’ प्रतीक्षारत किसानों की व्‍यथा लिखती है जिसमें वे पूछते हैं, “मेरे देश की एक गाड़ी को कितना समय लगता है मिल के आखिरी कांटे तक पहुंचने में/ मेरे देश के एक हाथ को एक खुले हुए भूखे मुंह तक पहुंचने में कितने बरस लगते हैं?” यही वह कवि-दृष्‍टि है जो कविता में कसे हुए छंदों की तरह ही पृथ्‍वी के छंद को अक्षुण्‍ण देखना चाहती है : ‘यह ब्रह्मांड करोड़ों साल पुरानी/एक जर्जर बैलगाड़ी है/जिसकी धुरी को/मरम्‍मत की जरूरत है।’

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कवि भले ही कल्‍पनाजीवी हो पर यथार्थ की आंच उसे भी दहकाती है। तभी वह कहता है: ‘महादेश की महा सड़क पर/दूर दूर तक देख रहा हूं/रोटी महंगी पानी दुर्लभ/महादेश की सारी नदियां/सूखेपन से भरी लबालब।’ (करना क्षमा कि याद नहीं) एक ऐसा मिसफिट इंसान भी उनका काव्‍यनायक बन सकता है जिसने सदैव ज्ञान के स्रोतों से दूरी बनाए रखी। (एक इन्‍सान)। उनकी कविताओं में पहले भी ऐसे काव्‍यनायक आए हैं। नूर मियां, टमाटर बेचने वाली बुढ़िया, हीरा भाई, बचपन के सखा जगन्‍नाथ-एक पूरा कस्‍बाई जीवन कवि के नेत्र-तल पर प्रतिबिंबित होता है। ‘सृष्टि पर पहरा’ में उन्‍होंने लिखा था, ‘फुनगी पर हिल रहा एक पत्ता भी सृष्‍टि का पहरुआ है।’ इस संग्रह में एक पंख को हिलते देखकर वे लिखते हैं, ‘सिर्फ एक ही पंख काफी था/आकाश को/उसकी गरिमा से भर देने के लिए।’

यों तो उनकी सभी कविताएं कुछ नया पढ़ने-गुनने का-सा एहसास जगाती हैं, फिर भी कुछ कविताएं यहां उल्‍लेखनीय हैं: वसीयतनामा, मिथक, दरवाजे खुले रखो, लौटते हुए आदि। उनकी ज्‍यादातर कविताएं एक विस्‍मय-सा रचती हुई मोहक छंद में बदल जाती हैं। अपने पिछले ही संग्रह में उन्‍होंने लिखा था, ‘हिंदी मेरा देश है, भोजपुरी मेरा घर।’ इस आखिरी संग्रह में अपना यह कौल वे पुन: दुहराते हैं: ‘अपनी तो यह होली/हिंदी में घुल जाए/टुक भोजपुरिया बोली।’ कहना न होगा कि इस ‘टुक’ में मीर के मिसरे- ‘अभी टुक रोते रोते सो गया है’ की रंग-गंध समा गई है।

वे कविता में भले ही आधुनिक प्रयोगों के हामी हों, जीवन के बुनियादी स्‍वभाव से दूर होना उन्‍हें रास नहीं आता। कभी कुंवर नारायण ने कहा था, ‘मुझे मेरे जंगल और वीराने दो।’ केदार जी एक कविता में कहते हैं, ‘लौटा दो हमारे हाथ/चींटियों को उनकी बिल/सांपों को उनकी फुंकार/ नदियों को उनका पानी/जंगलों को उनके घोटुल/जारवा को उनकी जबान/आंखों को उनकी झपकी/... मुझे मेरा घर/मेरे घर को उसकी चौखट/चौखट को मेरे पांव/मेरे पांवों को चलना लौटा दो/अभी भी समय है/बर्फ हूं मैं/मुझे मेरा गलना लौटा दो।’(लौटते हुए) यह जो आदिम स्‍वभाव की ओर लौटना है वह विकास की उस मुहिम के विपरीत है जो दुनिया को आधुनिकता की आंधी में जड़ से उखाड़ देना चाहती है। मघई पान के आस्‍वाद की तरह घुलनशील सारी कविताएं और कवि के अनुभव-पगे एक-एक शब्‍द नई पीढ़ी के नाम वसीयत की तरह हैं।

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TAGS: Book review, matdan kendra par jhapki, kedarnath singh
OUTLOOK 01 November, 2018
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