बुक रिव्यू: उन विज्ञापनों के पीछे की कहानी, जो हमें नॉस्टैल्जिया में ले जाते हैं
प्रहलाद कक्कड़
- पॉप्स के. वी. श्रीधर की किताब '30 सेकंड थ्रिलर्स' की समीक्षा
मैंने पिछले 20 सालों में पॉप्स श्रीधर के विज्ञापन की दुनिया में उतार-चढ़ाव भरे सफर को खासा पसंद किया है। इंदिरा गांधी के बाद, भारतीय विज्ञापन उद्योग पर राज करने वाले क्रिएटिव डायरेक्टर देश छोड़कर चले गए। इसकी वजह से इस इंडस्ट्री में उदासी छा गई। सभी कॉपीराइट वाले और क्रिएटिव डायरेक्टर अंग्रेजी में ही सोचते थे और सपने देखते थे।
तब तक विज्ञापन केवल अंग्रेजीदां लोगों और कान्वेंट से पढ़े हुए शहरी ग्राहकों तक ही सीमित थे और देशज भाषाओं वाले, बहुत सी ख्वाहिशें रखने वाले ग्राहकों के पास खराब अनुवाद किए हुए विज्ञापन पहुंचते थे, जिनके मुहावरों का कोई ओर-छोर नहीं होता था।
पॉप्स की 30 सेकेंड के विज्ञापनों वाली दिलचस्प यात्रा शुरु होती है, उन लोगों से जिन्होंने भारतीय विज्ञापन का पूरा माहौल ही बदल दिया और चीजों का भारतीयकरण किया। विज्ञापन ने पीयूष पांडेय, प्रसून पांडेय और कमलेश पांडेय के सपनों के जरिए नए व्यापार और नए मुहावरे गढ़े। हालांकि भारतीय विज्ञापन जगत में अंग्रेजीदां लोगों का प्रभाव था लेकिन वह धीरे-धीरे कम होने लगा। विज्ञापन की दुनिया में पुनर्जागरण हुआ। पॉप्स ने इस किताब में क्या किया कि वे हमें नॉस्टैल्जिया में ले गए और उन्होंने इन 30 सेकेंड या एक मिनट के रोमांचक विज्ञापनों के पीछे झांकने का मौका दिया।
मुझे बस ये लगता है कि पॉप्स ने किताब में इन विज्ञापनों को क्रिएट करने वालों के खास कैरेक्टर्स का बैकग्राउंड भी दिया होता। ये किरदार सच में अलग-अलग परिवेश से आते थे, जैसा कि भारत है। वे अपने साथ व्यवहार, जुनून, अनुभव भी लाए, जिसने राष्ट्र की आंखें खोल दीं। विज्ञापन की दुनिया के ये दिग्गज अपनी-अपनी क्षमताओं में फ्री थिंकर्स थे। विज्ञापन के छात्रों के लिए, ये एक उभार का दौर था, जहां कंटेट और आइडिया ही राज करते थे और तकनीकी कम होती थी।
पॉप्स ने भारत के टेलीविजन के कुछ बड़े विज्ञापन चुने और हमें उन्हें बनाने की प्रक्रिया तक ले गए। प्रोफेशनल लोगों के लिए ये नॉस्टैल्जिया है और सामान्य ग्राहकों के लिए यह जिंगल्स के साथ बड़े होने की याद है, ऐसी लाइन और विज्ञापन जो भारतीय होने की प्रक्रिया का एक हिस्सा रहे हैं।
इतिहास के जानकारों और समाजशास्त्रियों के लिए यह किताब एक विविधता से भरे देश के मन, उसके किरदारों, सपनों, पक्षों को समझने का जरिया है। ये किताब हर किसी के लिए है, जिनकी लाइफ को भारत के विज्ञापनों ने छुआ है और हमारे व्यवहारों में कुछ हद तक ये सोचने के ढंग पर असर डाला है कि हम कौन हैं, हम क्या हैं या 'हम ऐसे ही हैं।' विज्ञापन की दुनिया के एक दिग्गज द्वारा लिखी गई ये किताब व्यावहारिक, असली और हर हाल में पढ़ने लायक है।
धन्यवाद पॉप्स, इन दृश्यों के पीछे जाने के लिए और हमें वैसे ही बताने के लिए जैसे वे हैं।