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11 August 2019

फ्रंटियर पर नया नजरिया

नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर पर किताब लिखने का विचार कैसे आया? पाकिस्तान के इस इलाके के बारे में आपने ऐसा क्या खास देखा?

फरवरी 2006 में मुझे पाकिस्तान जाने का मौका मिला। मैं सड़क मार्ग से मुनाबाओ से खोखरापार, हैदराबाद, कराची और बलूचिस्तान गया। पहले मेरा बलूचिस्तान पर किताब लिखने का विचार था। रिसर्च शुरू की तो फ्रंटियर के बारे में अनेक ऐसे दस्तावेज मिले जो उस समय गोपनीय थे, जिन्हें बाद में डिक्लासिफाई किया गया। अगस्त 1947 में नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में 93 फीसदी आबादी मुसलमानों की थी, फिर भी वहां कांग्रेस की सरकार थी। फिर भी उसे पाकिस्तान में मिला लिया गया, क्योंकि वह जिन्ना की “टू नेशन थ्योरी” के खिलाफ था। यह जगह रणनीतिक रूप से अहम थी। इसका महत्व उस समय नहीं समझ पाए, इसीलिए इतनी आसानी से फ्रंटियर को हमने पाकिस्तान के साथ जाने दिया। नेहरू अक्टूबर 1946 में फ्रंटियर गए, तब से मामला बिगड़ने लगा। सबने उन्हें जाने से मना किया था। गड़बड़ी क्यों और कैसे हुई, इसे किताब में बताया गया है।

आपके विचार से फ्रंटियर को पाकिस्तान में शामिल करना अंग्रेजों के हित में था और हम इसे समझ नहीं पाए?

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मैं विभाजन के समय के दस्तावेज देख रहा था तो लगा कि काफी दस्तावेज ऐसे हैं जो फ्रंटियर से ताल्लुक रखते हैं। गांधी जी, नेहरू, गफ्फार खान, तब के वायसराय या लंदन में बैठे अधिकारीगण, वहां के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री सबमें फ्रंटियर को लेकर एक अजीब सी कशिश थी। इसका कोई तो कारण रहा होगा? अंग्रेजों ने क्यों तय किया कि इसे पाकिस्तान को देना है, उन्होंने क्या और कैसे किया, यह इस किताब में है।

हमारे राजनेताओं ने विरोध नहीं किया? इस विषय पर गांधी जी का रुख क्या था?

फ्रंटियर में 1946 में चुनाव हुआ, फिर 1947 में जनमत संग्रह। एक तो चुनाव कराना आपके हक में नहीं था। दूसरा, जनमत संग्रह इस बात पर हुआ कि फ्रंटियर हिंदुस्तान में रहे या पाकिस्तान में। वहां की खुदाई खिदमतगार सरकार ने इसका बहिष्कार किया। गांधी जी केंद्र के फैसले के बिलकुल खिलाफ थे। ये फैसले मई की शुरुआत में हुए थे, जब माउंटबेटन और नेहरू शिमला में थे। उस समय विभाजन की एक योजना लंदन भेजी गई थी। हमने एक अध्याय में इन बातों का जिक्र किया है।

किताब में ऐसी कौन सी बातें हैं जो लोगों को बिलकुल नया नजरिया देती हैं?

पूरी किताब नए नजरिए से लिखी गई है। भारत के लिए विभाजन जरूरी नहीं था। अंग्रेजों ने अपने रणनीतिक हितों के लिए ऐसा किया। लेकिन जब दूसरे अपने हितों के लिए काम करते हैं, तब आपको भी अपना हित देखना है। हम लोगों ने अपने हितों को उस समय देखा या नहीं देखा, यह इस किताब में है। आपको पढ़कर पता चलेगा कि कहां और कैसे गलतियां हुईं। एक अध्याय जिन्ना पर भी है कि फ्रंटियर को लेकर वह क्या करते रहे। उस समय के सभी बड़े नेताओं का जिक्र है। दो-तीन लोग ऐसे हैं जिनके बारे में हम बहुत कम जानते हैं लेकिन उनकी भूमिका अहम थी।

कोई भारतीय नाम भी है जो अब तक ज्यादा चर्चा में न रहा हो?

नेहरू जी का रोल तो सबसे ज्यादा है। मुझे नहीं लगता कि उनके बारे में किसी ने ये बातें कभी लिखी हैं। गांधी जी, गफ्फार खान, अब्दुल कयूम ये सब उस समय के जाने-माने नाम हैं। उनके बारे में जिस संदर्भ में बातें लिखी गई हैं, उसे लोग कम ही जानते हैं।

आप कहते हैं कि लोगों को फ्रंटियर के बारे में बहुत रुचि नहीं रही। गफ्फार खान से जुड़ी बातों के बारे में ही जानते हैं। आपको ऐसा क्यों लगता है कि इसके बारे में और ज्यादा जानकारी होनी चाहिए?

हमारे पड़ोस में क्या हो रहा है, अगर हमें यह नहीं मालूम होगा तो नुकसान किसे होगा? नेपाल, भूटान, तिब्बत, चीन और म्यांमार में क्या हो रहा है, अगर हम इसको नहीं जानेंगे तो नुकसान हमारा ही होगा।

क्या आपने किताब के लिए कोई खास पाठक वर्ग रखा है?

मैंने किताब की शैली बातचीत वाली रखी है। अगर आसान प्रवाह हो तो लोगों की रुचि बनी रहती है। मेरी कोशिश है कि किताब ज्यादा लोगों तक पहुंचे। मैं चाहता हूं कि नई पीढ़ी हमारे रणनीतिक हितों के प्रति जागरूक हो।

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TAGS: Harveer Singh, conversation, Raghavendra Singh, India's Lost Frontier, The Story of the North West Frontier Province of Pakistan
OUTLOOK 11 August, 2019
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