हरिशंकर परसाई, जिन्होंने व्यंग्य को समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा
हरिशंकर परसाई 22 अगस्त 1922 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद के जमानी गांव में पैदा हुए। शिक्षा के दौरान ही उनकी मां की मृत्यु हो गई और उनके पिता असाध्य बीमारी से ग्रस्त हो गए। ऐसे में गहन आर्थिक अभावों के बीच पारिवारिक जिम्मेदारियां उन पर आ गईं। इसके बावजूद उन्होंने जीवन के संघर्षों से जूझते हुए अपनी पढ़ाई जारी रखी। कुछ समय तक उन्होंने अध्यापन कार्य करने के बाद स्वतंत्र लेखन प्रारंभ कर दिया। साथ ही जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। हालांकि इसमें घाटा होने के कारण इसे जल्द ही बंद भी करना पड़ा। इसके बाद वह जबलपुर से ही निकलने वाले एक अखबार ‘देशबंधु’ से भी जुड़े।
हरि शंकर परसाई हिंदी के पहले ऐसे लेखक और व्यंग्यकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से भी जोड़ा। उन्होंने समाज की खोखली होती जा रही व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय समाज की वास्तविकता को अपने व्यंग्य के माध्यम से शब्द दिए। यही वजह है कि सामाजिक पाखंड और जीवन के रूढ़िवादी मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने विज्ञान सम्मत दृष्टि का नजरिया प्रस्तुत किया। हालांकि उन्होंने कहानी, उपन्यास और संस्मरण भी लिखे, लेकिन उन्हें उनके व्यंग्य के जरिए किए जाते रहे तीखे प्रहार के लिए अधिक जाना जाता है। इनके माध्यम से उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और शोषण पर व्यंग्य किए जो आज भी प्रासंगिक हैं। हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे और भोलाराम का जीव उनके कहानी संग्रह हैं। उनके उपन्यासों में रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज और ज्वाला और जल महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा उनके लेखों का भी एक संग्रह है। जाने पहचाने लोग उनका व्यंग्य निबंध-संग्रह है।