इंटरव्यू/अमिताभ घोष: “अंग्रेजी में लिखता हूं पर अंग्रेजी वाला नहीं”
पहली बार भारत में अंग्रेजी लेखन में ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले अमिताभ घोष की रचनाएं देश की हकीकत को नई दृष्टि के साथ पेश करने के लिए जानी जाती हैं। हाल में उनकी पुस्तक गन आइलैंड का हिंदी में बंदूक द्वीप नाम से अनुवाद प्रकाशित हुआ। उन्होंने अपने इस उपन्यास की प्रेरणा, भाषा, साहित्य और अभिव्यक्ति के सवालों के साथ-साथ अंग्रेजी में पहली बार ज्ञानपीठ मिलने पर आकांक्षा पारे काशिव के ई-मेल से भेजे सवालों पर अपनी राय जाहिर की। कुछ अंशः
भारत में अंग्रेजी में पुराने दौर के लेखकों से आज क्या फर्क दिखता है?
मैंने अपने शुरुआती वर्षों में जिन लेखकों को पढ़ा, उनमें कई आज भी बेहद लोकप्रिय हैं। फिर भी, मुझे लगता है कि उन लोगों के नामों का उल्लेख करना जरूरी है, जिनको भुला दिए जाने का खतरा है। जैसे, ऑबरे मेनन, जी.वी. देसानी, कमला मार्कंडेय, अतिया हुसेन और मनोहर मुलगांवकर। हालांकि इन लेखकों की अपनी पहचान थी लेकिन तब भी उनकी किताबों खोजना आसान नहीं था। उनकी किताबें दुकानों में नहीं, बल्कि ब्रिटिश काउंसिल की लाइब्रेरी में प्रायः मिला करती थीं। अब देखिए जमाना कितना बदल गया है! अब दुनिया में कहीं भी किसी किताब की दुकान में जाकर भारत के प्रतिभाशाली युवा लेखकों की किताबें आसानी से मिल जाती हैं।
आपके उपन्यास सी ऑफ पॉपीज की नायिका भोजपुरी बोलती है, इसमें बहुत सारे हिंदी शब्द भी हैं, इस नए तरह के प्रयोग ने दिलचस्पी पैदा की। अंग्रेजी भाषी लोगों ने इस प्रयोग को कैसे लिया?
मैं अंग्रेजी में लिखता जरूर हूं पर मैं पूरी तरह से अंग्रेजी की चिंता नहीं करता। मैं ऐसे माहौल में बड़ा नहीं हुआ, जहां एक ही भाषा थी। मैं भाषाई विविधता के साथ बड़ा हुआ। मेरे पिता अपने भाई-बहनों से भोजपुरी में बोलते थे, जबकि अपने माता-पिता से खांटी बांग्ला में, दोस्तों से हिंदी बोलते थे और दफ्तर में अंग्रेजी। जब मैं छोटा था तो मुझे बांग्ला सीखने के लिए मजबूर किया जाता था। मेरे अध्यापक इस बारे में बहुत सख्त थे। फिर भी आज मैं कह सकता हूं कि यह सबसे बड़ा उपहार था, जो मेरे माता-पिता मुझे दे सकते थे। उन्होंने मुझे न केवल एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा से संपन्न किया, बल्कि बंगाल के गंभीर और लोकप्रिय साहित्य के द्वार मेरे लिए खोल दिए। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि सुनील गंगोपाध्याय और महाश्वेता देवी जैसे महान और प्रेरणादायक लेखकों से मेरी मित्रता हुई। सुनील दा ने एक बार मेरी किताब द हंग्री टाइड पढ़कर कहा था कि यह बांग्ला उपन्यास है, जो अंग्रेजी में लिखा गया है। मेरे लिए आज भी ये शब्द पुरस्कार की तरह हैं। देखा जाए, तो अधिकांश अमेरिकियों और कुछ यूरोपीय लोगों को छोड़ कर भारत का एकभाषी होना असंभव है।
गन आइलैंड जो अब हिंदी में बंदूक द्वीप के नाम से आया है, इसकी प्रेरणा कहां से मिली?
मेरी आखिरी नॉन-फिक्शन किताब, द ग्रेट डिरेंजमेंट: क्लाइमेट चेंज ऐंड द अंथिंकेबल थी। इस पुस्तक को लिखने के दौरान मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि आधुनिक साहित्य हमारे युग की सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक चुनौती है। इस नाते प्रकृति को उसकी आवाज देना जरूरी है। इसलिए मैंने पूर्व आधुनिक साहित्य की ओर रुख किया और बिप्रदास पिप्पिलाई, सुकोबी नारायण देब और कवि कृष्णरामदास जैसे मध्यकालीन बांग्ला कवियों की रचनाओं को पढ़ना शुरू किया। उनकी रचनाओं के माध्यम से मैंने एक किंवदंती को फिर से खोजा था, जिसे बचपन में मैं खूब पसंद करता था, चांद सौदागर की कहानी। यही गन आइलैंड के लिए मेरी प्रेरणा थी।
आप अपनी पिछली दो किताबों को कैसे देखते हैं?
गन आइलैंड से पहले की किताब, द ग्रेट डिरेंजमेंट हमारे युग के कई संकटों पर एक चिंतन और उपन्यासकारों और कलाकारों के लिए पूर्वसूचना थी। ये चिंताएं इस पुस्तक को एक बिंदु पर सूचित करती हैं, लेकिन अंततः यह उपन्यास कहानियों की शक्ति के बारे में है।
अपने उपन्यास में आप प्रवासियों के बारे में लिखते हैं, जिन्हें हमारे देश से जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। आपने कहानी के मुख्य चरणों में से एक के रूप में इटली को क्यों चुना?
2016 में जब मीडिया यूरोप जाने के लिए बाल्कन को पार करने वाले प्रवासियों, शरणार्थियों की तस्वीरों से भरा हुआ था, मैंने महसूस किया कि जो छवियां हैं, वे कहानियों के साथ फिट नहीं बैठती थीं। कहानी कहती थी कि शरणार्थी मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) और अफ्रीका में युद्ध और नागरिक संघर्ष से भाग रहे थे। हालांकि, मुझे बहुत तकलीफ हुई कि तस्वीरों में कई चेहरे दक्षिण एशियाई थे। इस मामले पर गौर करने पर, मुझे आश्चर्य हुआ कि यह सिर्फ एक आभास नहीं था। दक्षिण एशियाई, विशेष रूप से बांग्लादेशी अनुपात में काफी ज्यादा थे, जो यूरोप में घुसने के लिए समुद्र और पहाड़ों को पार कर रहे थे। वास्तव में 2015 और 2017 के बीच भूमध्य सागर के दक्षिणी किनारे के कुछ शरणार्थी शिविरों में बड़े पैमाने पर दक्षिण एशियाई ही थे, खासकर बांग्लादेशी। यह मुझे हैरान करने वाला लगा और मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि मैं इस पलायन का कोई तात्कालिक कारण नहीं सोच सकता था। निश्चित तौर से इस क्षेत्र में भी कई तरह के झगड़े हुए हैं, लेकिन हिंसा का स्तर सीरिया, अफगानिस्तान जैसा नहीं पहुंचा था। न ऐसा कहा जा सकता था कि दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई है। वास्तव में बांग्लादेश पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक स्तर पर अच्छा प्रदर्शन करने वालों में से एक रहा है और इसकी वृद्धि दर 2018 में भारत से आगे निकल गई है। फिर क्यों इतनी बड़ी संख्या में दक्षिण एशियाई लोग इतनी खतरनाक और महंगी यात्रा कर पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका से पश्चिम की यात्रा कर रहे हैं?
फिर आपने यह पहेली कैसे सुलझाई?
तब मैंने सोचना शुरू किया कि क्या दक्षिण एशिया के लोगों का इतनी बड़ी संख्या में जाना, जलवायु परिवर्तन से संबंधित हो सकता है। सभी जानते हैं कि बांग्लादेश जलवायु परिवर्तन के लिए बेहद संवेदनशील है और बांग्लादेशी प्रवासियों की एक बड़ी संख्या इस विचार का समर्थन करती है। वैज्ञानिकों ने लंबे समय से भविष्यवाणी की है कि समुद्र के स्तर में वृद्धि से बंगाल डेल्टा से बड़ी संख्या में लोग विस्थापित होंगे। मैंने खुद से पूछा, क्या ऐसा हो सकता है। क्या हम बड़े पैमाने पर ‘जलवायु पलायन’ की शुरुआत के साक्षी थे, जिसकी भविष्यवाणी लंबे समय से जलवायु विशेषज्ञों द्वारा की गई थी? मैंने खुद इसका पता लगाने का फैसला किया और 2017 में इटली चला आया। मैंने देश भर में यात्रा की और हाल ही वहां पहुंचे दक्षिण एशियाई प्रवासियों से मिला। मैंने जितने भी लोगों से बात की, उनमें मैंने जल्द ही जान लिया कि कई प्रवासियों के विस्थापन में पर्यावरणीय प्रभावों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनमें से कई ने बाढ़, सूखा और दूसरी स्थितियों के बारे में बताया जिसके कारण खेती करना या मछली पकड़ कर आजीविका चलाने में उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। फिर भी, जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वे खुद को ‘जलवायु शरणार्थी’ मानते हैं, तो उन्होंने यह तमगा अस्वीकार कर दिया।
आपने लंबा वक्त इटली में बिताया। विदेश के प्रवासियों के बारे में लोगों की भावनाएं क्या हैं, वे उन्हें कैसे देखते हैं?
हां, मैंने इटली में काफी समय बिताया, प्रवासी केंद्रों का दौरा किया और ऐसे लोगों से बात की जो प्रवासियों के साथ काम करते हैं। कई मायनों में यह क्रांतिकारी था। जहां तक प्रवासियों के लिए इटली के दृष्टिकोण की बात है, तो वहां स्थितियां काफी विकट हैं। एक तरफ प्रवासियों के लिए बढ़ती दुश्मनी हैं। लेकिन कुछ ऐसे इतालवी लोग भी हैं, जो प्रवासियों का स्वागत करते हैं और उन्हें दोबारा बसने में मदद करते हैं।
भारत में अंग्रेजी का पहले से ही बहुत सम्मान है। अंग्रेजी को क्षेत्रीय भाषाओं के मुकाबले अधिक प्रसिद्धि मिली है। भारतीय भाषाओं के मुकाबले ज्ञानपीठ पुरस्कार पाना कैसा लगा?
मेरे लिए, किसी भी अन्य भारतीय की तरह, ज्ञानपीठ पुरस्कार बहुत खास है क्योंकि यह साहित्यिक उपलब्धियों से आगे बढ़कर पहचान देता है। यह पाठकों और लेखकों के बीच बने असाधारण बंधन को स्वीकारोक्ति देता है। यह बंधन- जिसे एक तरह के प्यार के रूप में वर्णित किया जा सकता है- शायद सबसे बड़ा प्रतिफल है जिसकी कोई भी लेखक आशा करता है। वर्षों पहले, जब मैंने लिखना शुरू किया था, मैं सोच भी नहीं सकता था कि कभी ज्ञानपीठ मिलेगा। उन दिनों जो भारतीय अंग्रेजी में लिखते थे, वे खुद को भारतीय और अंग्रेजी साहित्य दोनों के लिए हाशिए पर समझने के आदी थे। यह एहसास इस तथ्य के बावजूद था कि तब भी भारतीय उपमहाद्वीप के लेखकों ने अंग्रेजी में अच्छा काम किया था, जो वास्तव में व्यापकता और गुणवत्ता दोनों में प्रभावशाली था।