बॉलीवुड ही नहीं विश्व सिनेमा को भी नुकसान, हर चरित्र को अपना बना लेते थे इरफान
बॉलीवुड सितारों और सुपरस्टार से भरा हुआ है। 100 करोड़ रुपए और पॉवर जो प्रतिभा के साथ या बिना प्रतिभा के बॉक्स ऑफिस पर दहाड़ता है। फिर भी अभिनेताओं का एक छोटा-सा वर्ग है जो अपनी कला के लिए अकल्पनीय जुनून के साथ बाहर खड़ा रहता है। 53 साल के इरफान खान, जिनका 29 अप्रैल को एक लंबी बीमारी के बाद मुंबई में निधन हो गया, वो कलाकारों की उस दुर्लभ जमात में से थे, जिन्होंने हिंदी फिल्मों में सम्मानजनक प्रदर्शन किया।
चरित्र को अपना बनाने की क्षमता से सभी पक्षों को बदल दिया
भारतीय और अंतरराष्ट्रीय सिनेमाघरों की व्याकुलता से उलट दुनिया को एक ऐसा कलाकार मिला जिसने अपनी हर चीज को वास्तविक रूप से दिखाने के लिए अपनी क्षमता से सभी पक्षों को बदल दिया। उनके निधन से विश्व सिनेमा और बॉलीवुड ही नहीं, सबने किसी ऐसे व्यक्ति को खो दिया है जो वास्तव में जन्मजात अभिनेताओं की जमात से संबंधित था। उन्होंने जो कुछ भी किया, उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। कभी भी हॉलीवुड के एक असाधारण अभिनेता और कम बजट वाले कमर्शियल आर्ट्स के बीच भेदभाव किए बिना उन्होंने फिल्म में अभिनय के बाद फिल्मों के उन दृश्यों को हमेशा के लिए चुरा लिया चाहे उनकी भूमिका उस फिल्म में कितनी भी छोटी क्यों न हो।
कई फिल्मों में किया अभिनय
यदि बॉलीवुड को नए दशक की शुरुआत में एक अलग तरह के किरदार की जरूरत थी तो नए-पुराने दर्शकों के साथ वर्षों पुरानी फिल्मों में प्रदर्शन के फॉर्मूला के साथ यह इरफान में मिला। उन्हाेने हासिल (2003), मकबूल (2003), लाइफ इन ए मेट्रो (2007), पान सिंह तोमर (2012), साहेब, बीवी और गैंगस्टर (2013), लंचबॉक्स (2013), हैदर (2014), पीकू (2015) जैसी फिल्मों के अलावा तलवार (2015), हिंदी मीडियम (2017) और अंग्रेजी मीडियम (2020) में अभिनय किया। उन्होंने मनोज वाजपेयी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी के साथ हाई-कैलिबर, "एवरीमैन" अभिनेताओं के समानांतर पावर सेंटर बनाने में मदद की। इरफान ने विशाल भारद्वाज, राम गोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप से लेकर हंसल मेहता और तिग्मांशु धूलिया सरीखे नई पीढ़ी के निर्देशकाें / निर्माताओं के साथ मिलकर काम किया, जिन्होंने फिल्म निर्माण की संवेदनशीलता के साथ भारतीय सिनेमा को जीवन के एक नए पायदान पर पहुँचाया।
हॉलीवुड में बनाई जगह
इरफान ने अपने साथियों से अलग होने का जो तरीका तय किया था उसने अंतरराष्ट्रीय सिनेमा, विशेष रूप से हॉलीवुड पर प्रभाव डाला। जिसे कुछ एशियाई अभिनेताओं ने ही पाया था। भले ही उन्होंने मीरा नायर की विश्व स्तर पर सराही गई फिल्म सलाम बॉम्बे(1988) में एक छोटी भूमिका से करिअर की शुरुआत की थी! इरफान ने द वारियर (2001), द नेमसेक (2007), ए माइटी हार्ट (2007), स्लमडॉग मिलियनेयर (2008), लाइफ ऑफ पाई (2012) काे अपने अभिनय से सार्थक किया। जब तक उन्हें हॉलीवुड की दिग्गज फिल्में, द अमेजिंग स्पाइडर-मैन (2012) और जुरासिक वर्ल्ड (2015) मिली तब तक वो एक क्रॉसओवर एशियाई अभिनेता से कही अधिकबन चुके थे। उस समय तक वो अपने आप काे अंतरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित कर चुके थे। वो गिने चुने स्टार्स में से थे, जिन्होंने अमेरिकी फिल्म उद्योग में अपनी किस्मत आजमाई।
अवसर मेिलने में काफी वक्त लगा
चकाचौंध वाले शहर की अधिकांश सफलता की कहानियों की तरह यह स्टारडम ऐसे ही नहीं आया। सलाम बॉम्बे जैसी फिल्मों में शुरुआती ब्रेक पाने के बावजूद उन्हें सालों तक मेहनत करनी पड़ी और 1980 के दशक के अंत में कमला की मौत (1989) फिल्म आई। भले ही वो जाने-माने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के माध्यम से आए थे, लेकिन सुनहरा अवसर मिलने में उन्हें वर्षों लगे। 1990 के दशक तक, श्याम बेनेगल, सईद मिर्जा और उनके समानांतर कई सिनेमा की दुनिया से बाहर हो गए थे और व्यावसायिक हो चुका बॉलीवुड पूरी तरह से रोमांटिक संगीत से भर गया था जिसमें शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान की ‘खान तिकड़ी’ काम कर रही थी।
टेलीविजन की तरफ रुख किया
एक डॉक्टर की मौत (1990) को छोड़कर, इरफान जैसे अभिनेता को बॉलीवुड की ला-ला लैंड में शायद ही कुछ मिला हो। इसलिए, उन्हें अपने अभिनेता को जीवित रखने के लिए टेलीविजन की ओर रुख करना पड़ा। शुक्र है कि इडियट बॉक्स ने कुछ अच्छे अभिनेताओं के लिए एक मंच प्रदान किया और इरफान ने सीरियल चाणक्य (1992), चंद्रकांता (1994), द ग्रेट मराठा (1994) और बागी अपनी बैट (1995) के साथ मिले अवसर को अपनाया, लेकिन वो महसूस करने लगे थे कि यह उनके लिए एक कठिन दौर है।
अवसर मिलने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा
दर्शक बुलबुले की तरह उठने वाले रोमांस और नासमझ एक्शन से थक गए। वे वास्तविक जीवन में निहित कहानियों के लिए तरस गए, जिसके बाद इरफान ने इस अवसर को लपक लिया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने एक अभिनेता के रूप में अपने दर्शकों और फिल्म उद्योग को बहुत कुछ दिया।
यह समय जाने का नहीं था, दोस्त!
यह अफसोस की बात है। और निश्चित रूप से सिनेमा के लिए कभी न पूरा हाेने वाला नुकसान है। असमय जीवन की अंतिम यात्रा पर निकले विश्व सिनेमा के इस सितारे के लिए यही कहा जा सकता है 'यह समय तुम्हारे जाने का नहीं था, दोस्त!'