स्मृति लेख: आचार्य भोलाशंकर व्यास
आचार्य व्यास जी के लिए आचार्य का मायने था 'जो नई स्थापना करे'। कहते थे --" केशवदास संस्कृत पंडित हैं ..तुलसी से भी बड़े । लेकिन नया नहीं रचते।"
अपने शोध ग्रंथ ''ध्वनिसंप्रदाय और उसके सिद्धान्त " में व्यास जी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारतीय मनीषियों का #शब्दार्थ चिंतन और #शब्दशक्ति विचार इस विषय में किये गए पाश्चात्य विद्वानों के विचार से अधिक प्रौढ़ है।
वह कहते थे कि अभिज्ञानशाकुन्तलम् का विदूषक जैसा व्यंग्य करता है वैसा शेक्सपियर का विदूषक भी नहीं कर पाया ---" इस शकुंतला के प्रति तुम्हारी आसक्ति इस तरह की है कि तुम अब पिंड खजूर खाने के बाद मिठास से इतने अघा गए हो कि अब तुम्हारी अभिलाषा इमली खाने की हो गयी हो ..!
प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक और काव्यशास्त्र के आचार्य डॉ. भोलाशंकर व्यास जी---आचार्य रामावतार शर्मा, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की विद्वत-परंपरा में हिन्दी-संस्कृत भाषा-साहित्य के 'गिने-चुने'(अपने समय में) आचार्यो में से थे।
उनका जन्म 20 फरवरी, 1925 को बूंदी (राजस्थान) के प्रसिद्ध राजपंडित घराने (हाड़ा राजाओं का गुरु घराना) में हुआ था। 23 अक्टूबर, 2005 को बनारस में निधन हुआ। वे विशिष्ट प्रातिभ विद्वान थे।
1947 में आगरा विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. (प्रथम में प्रथम) करने के बाद, 1948 में उन्होंने गवर्नमैंट संस्कृत काॅलेज, वाराणसी से साहित्य में शास्त्री परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। एम.ए. (हिंदी) तथा फिर एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त की। 1952 मेें राजस्थान विवि से पी-एच.डी. तथा 1962 में डी-लिट् की उपाधि प्राप्त की।
अपने शोध के दौरान 1951 में उन्होंने एक साल लंदन विवि. के ’स्कूल आॅफ ओरियंटल स्टडीज’ में प्रो. जे.आर. फर्थ के साथ भाषा-विज्ञान का आधुनिक पद्धत्ति से विशेष अध्ययन किया। वहाँ उन्हें ग्रीक, लातिनी, फ्रेंच, जर्मन तथा अवेस्ता आदि भाषाओं के व्याकरण का भी अध्ययन करना पडा। हेगेल, कार्ल मार्क्स , एंगेल्स, क्रिस्टोफर काॅडवेल, राल्फ फोकस, जार्ज थाम्सन, हावर्ड फास्ट, प्लेखानोफ आदि विचारकों-दार्शनिकों को भी उन्होंने गहराई से पढ़ा।
1953 में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। वहीं प्रोफेसर, अध्यक्ष रहते हुए तीन दशक की सेवा बाद 1983 में सेवानिवृत्त हुए।
इसके बाद तीन साल (1986) तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की एक परियोजना के तहत बीएचयू के ही संस्कृत विभाग में ’एमेरिटस प्रोफेसर’ नियुक्त हुए। यहाँ वे ’भारत के नाटयशास्त्र’ पर शोधकार्य में लगे रहे।
व्यासजी नाट्यशास्त्र के भी प्रकांड पंडित थे
हिंदी दशकरूपक (1955), संस्कृत कवि दर्शन (कवि समीक्षा-1955), हिंदी कुवलयानंद (संपादन, व्याख्या, 1957) ’ध्वनि संप्रदाय और उसके सिद्धांत’, संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन (1957), संस्कृत भाषा (टी बरो के 'संस्कृत लैंग्वेज’ का अनुवाद), 'साहित्य का इतिहास लेखनः समस्या-समाधान, 'प्राकृत पैंगलम’ (दो भागों में, 1957) आदि उनके प्रमुख प्रकाशित समीक्षा, संपादन, व्याख्या और अनुवाद कार्य हैं।
’समुद्र संगम’ (उपन्यास) उनकी रचना का शिखर है, जो वर्ष 2004 में भारतीय ज्ञानपीठ से परिवर्धित, संशोधित होकर संपूर्णता में छपा।इसका पहला संस्करण 1975 में छपा था। 'प्राकृत पैंगलम’ पर आचार्य व्यास जी के कार्य को अपभ्रंश के एक प्रसिद्ध विद्वान् एलसेलाॅर्फ ने विशेष तौर पर सराहा था।
'ध्वनि संप्रदाय’ पर व्यासजी का महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह दुर्भाग्य है कि हिंदी में उसका कोई ढंग से समीक्षक उपलब्ध नहीं है! जो हैं भी वे इन गंभीर कार्यो में रुचि नहीं दर्शाते! आत्मप्रचार और मीडियाजीवी स्टारडम के दौर में ऐसा संभव ही नहीं है! अपनी कृतियों और सुकृतियों से फुर्सत मिले तब तो!
'ध्वनि संप्रदाय और उनके सिंद्धान्त’ में व्यासजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 'भारतीय मनीषियों का शब्दार्थ चिन्तन और शब्द विचार शक्ति इस विषय में किये गये पाश्चात्य विद्वानों के विचार से अधिक प्रौढ़ है।’ ये उनके जैसा ही विशिष्ट प्रातिभ आचार्य अधिकारपूर्वक कह सकता है !उनका कहना था कि कालिदास के ’अभिज्ञान शकुन्तलम्’ का विदूषक जैसा व्यंग्य करता है, वैसा शेक्सपीयर का विदूषक (फाॅलसाफ Falstaff) भी नहीं कर पाया!
हिंदी विभाग , काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वे भाषाशास्त्र, काव्यशास्त्र, बिहारी और कामायनी पढाते थे। व्यासजी संस्कृत, अंग्रेजी , हिंदी भाषा और साहित्य में सिद्धस्त होने के साथ भाषा विज्ञान, प्राकृत, अपभ्रंश, पालि के भी गंभीर अध्येता थे।उर्दू, बंगला, मराठी, असमिया, उडिया, गुजराती, तमिल, मलयालम.....सहित सभी भारतीय भाषाओं और उसके साहित्य पर उनकी गहरी समझ और पकड़ थी। उनकी पुस्तक 'भारतीय साहित्य की रूपरेखा’ में इसे देखा जा सकता है।
डॉ. व्यास जी की बहुमुखी प्रतिभा को डॉ. रामविलास शर्मा जैसे महान् प्रगतिवादी समालोचक भी पहचानते और मानते थे। वय में काफी बड़े होने के बावजूद डॉ. शर्मा जी-- व्यासजी को मित्रवत् सम्मान-स्नेह देते थे।
व्यासजी, शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा अशक्त थे। हाथों में कम्पन, आँखों की कमजोरी, बोलने-सुनने की दिक्कतों तथा लगातार अस्वस्थता के कारण कई वर्षो से ढंग से उनका विधिवत लिखना-पढ़ना नहीं हो पा रहा था। 'समुद्र संगम’ किसी तरह सम्पूर्णता में आ पाया। इसके लिए व्यासजी के विद्यार्थी रहे ख्यात आलोचक प्रो. मेनेजर पांडेय जी का महत्त्वपूर्ण प्रयास रहा।
' समुद्र संगम ' में दो विरोधी विचारधाराओं, दार्शनिक परंपराओं, कलागत मान्यताओं, रीति रिवाजो की परस्पर प्रतिस्पर्धता का रचनात्मक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है। अन्धभक्ति, कटरता और 'सभ्यताओं के संघर्ष' जैसे वैचारिक-राजनीतिक समय-संदर्भ में 'समुद्र संगम' का विशेष महत्व और प्रासंगिकता है।
उन्हें संस्कृत और हिंदी भाषा-साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए कई पुरस्कार-सम्मान मिले
हालाँकि, पुरस्कारों-सम्मानों के सफर में उनके कद और काम के मुताबिक उन्हें वह नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था! उन्हें जब राजस्थान साहित्य अकादमी का सर्वोच्च सम्मान 'साहित्य मनीषी’ दिया जा रहा था तो डॉ. नामवर सिंह जी ने भी कहा था कि 'इन्हें अभी क्यों (मतलब इतनी देर से...) सम्मानित किया जा रहा है?'
व्यासजी कहते थे कि- 'पुरस्कारों-सम्मानों की चिन्ता नहीं करता। यह विषय मेरा नहीं है। ...अध्ययन अध्यापन ही मेरे लिए जरूरी काम और सम्मान रहा है।’
पंडितराज जगन्नाथ की आत्मकथा (समुद्र संगम) का यह अंश व्यासजी की भी आत्मकथा लगती है- "जिन लोगों में मजे-मजे में सरस्वती के नगर को लूट कर विद्या की सम्पत्ति हासिल की है, उनके सामने अगर विद्या-केन्द्रों से बिखरे कणों को चुराने वाले मूर्ख अपनी ज्ञान की डिंग मारें, तो वह दिन दूर नहीं कि आज या कल फणिधर महासर्पों के फणों पर चिडिया के बच्चे पंजा जमा देंगें, हाथियों के मस्तक पर खरगोश आ बैठेगें, और शेरों के सिर पर सियार सुख पूर्वक कदम रख देंगें।"
बहुचर्चित संस्मरण आलेख ’हक अदा न हुआ’ ( आचार्य नामवरजी की षष्टिपूर्ति पर) में नामवर जी के शिष्य, साथी वरिष्ठ विद्वान, समीक्षक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने लिखा है ".....नामवर जी ने द्विवेदी जी के अध्यक्षता काल में अनेक इन्टरव्यू दिये..... लेकिन भाई लोग ऐसी गोटी बिठाते थे कि निराशा ही हाथ लगती थी।......... एक बार तो नामवर जी आदरणीय विजय शंकर मल्ल जैसा लंबा कोट पहनकर इन्टरव्यू देने गये। हम लोग आश्वस्त थे........पर चयन श्री भोलाशंकर व्यास का हुआ।"
ध्यान दीजिए - "....पर चयन श्री भोलाशंकर व्यास का हुआ।"
क्या इससे यह ध्वनि नहीं निकलती है कि कम योग्य अभ्यर्थी का गोटी...जुगाड़ के कारण चयन हो गया?
आप ही बताइये आदरणीय विश्वनाथ जी! तब डॉ. व्यासजी प्रतिभा, अकादमिक उपलब्धि स्तर पर उस समय के डॉ. नामवर जी से कहाँ कम थे? जबकि बनारस और बी.एच.यू. को उस दौर में जानने वाले जानते हैं कि 'बाहरी' (राजस्थानी) अभ्यर्थी व्यासजी के लिए ही कहीं अधिक प्रतिकूल स्थिति थी! वे बनारस के नहीं थे। बी.एच.यू. हिन्दी विभाग के पढ़े-लिखे नहीं थे।
इन पंक्तियों के लेखक एवं अन्य अनेक लोगों सेे व्यासजी कहते थे कि 'काश, दो पोस्ट होता और नामवर भी उसी समय हिन्दी विभाग में नियुक्त हो गये होते!’
असहमति, 'स्पर्धा' (स्टारडम !) के बावजूद नामवर जी की भाषा, स्पष्ट दृष्टि, वक्तृता के भी वे कायल थे। अन्य बातों के हों या ना हों! "नामवर सहज और स्पष्ट बोलते हैं, लिखते हैं -उसके कारण पसंद करता हूँ , पर राजनीतिक-रणनीतिक रूप से मंचीय रूप से बदलते रहते हैं वह पसंद नहीं ।"
बनारस रहने के दौरान व्यास जी का खूब स्नेह-आशीर्वाद मिला। उनके जीवन के अंतिम चार-पाँच वर्षों में उनके पास घंटों बैठने, बोलने-बतियाने (मेरठ-दिल्ली आने से पहले) और सीखने-समझने का सौभाग्य मुझे भी मिला।
हम -- मैं और मित्र हर्षवर्द्धन
प्रायः रोज उनके पास जाते। उनके स्वास्थ्य का ख़्याल रखते हुए कभी नहीं जाने पर अनेक बार वह स्वयं लैंडलाइन फोन पर फोन करके बुलाते थे।
चाय आती थी तो अपनी आलमारी में से अलग से बिस्कुट-नमकीन निकाल कर देते थे। सेविका के जाने के बाद।
उनसे बातचीत में न लिख पाने की उनकी लाचारी बार-बार दर्द बनकर अभिव्यक्त होती थी।
'आत्मकथा लिखिए...' के आग्रह पर उन्होंने अपने बिस्तर के नीचे से 10-15 पृष्ठों में लिखी एक कॉपी निकाली। वह लिख रहे थे।
पर, बोले कि नहीं लिख सकता!
बहुत सी 'मूर्तियाँ' टूटेंगी!
वह विवाद से बचना चाहते थे। दिल दुखाऊँ' नहीं थे।
उस अर्थ में 'साहसी' लेखक नहीं थे! बहुत कुछ आधे-अधूरे लिखे थे।
किसी भी कीमत पर चर्चित होने और दूसरों को खंड-खंड करने की प्रवृत्ति से अलग अपरिग्रही विद्वान थे।
नरेश मेहता ने आचार्य केशव प्रसाद मिश्र के बारे में एक व्याख्यान में कहा है ".... कई बार तो लगा कि वह अब व्यक्ति नहीं स्वयं भोज-पत्र पर लिखित एक दुष्प्राप्य पाण्डुलिपि हो गये है।" आचार्य भोलाशंकर व्यासजी पर भी सटीक बैठता है।
काश! उनके अधूरे कार्य पूरे हो गये होते, जिसे वे ही कर सकते थे!
बहुत सी उनकी अधूरी अप्रकाशित कृतियाँ हैं। पता नहीं कहाँ है! सुरक्षित भी है कि नहीं!
उनके पुत्र लक्ष्मीदत्त व्यास जी तक कुछ आता-पता रहता था। उनकी निजी संग्रह की पुस्तकें सम्भवतः भारत कला भवन , बीएचयू में लक्ष्मी जी ने दे दी थी!
पांडुलिपियों का पता नहीं!
भरत के नाट्यशास्त्र पर अंग्रेजी में उनका लिखे की क्या स्थिति है --छपी की नहीं! नहीं पता!
पुस्तकों, दस्तावेजों में दर्ज व्यास जी की जन्मतिथि 19 अक्टूबर, 1923 (जो उनकी मेधा के कारण कक्षा प्रोन्नति के कारण वास्तविक तिथि से दो वर्ष ज्यादा बढ़ाई गयी) के अनुसार उनकी
जन्म शताब्दी वर्ष प्रारम्भ होकर बीत भी गयी!
बीएचयू के संस्कृत और हिंदी विभाग में कुछ उन पर हुआ कि नहीं --नहीं पता!
खैर, जन्मतिथि-पुण्यतिथि आती रहती है। विद्वानों, शब्दशिल्पियों को याद करने की कोई एक तिथि नहीं होती।
आचार्य व्यास जी के लिखे-पढ़े को नए सिरे से बाँचने-व्याख्यायित करने की जरूरत है।
उन पर विधिवत आयोजन होना चाहिए।
उनका कोई गढ़ नहीं है। किसी लेखक संघ के वे प्रतिबद्ध पुरोधा व्यक्तित्व, लेखक नहीं थे। इसलिए बीएचयू के हिन्दी-संस्कृत विभाग को संयुक्त रूप से यह पहल करना चाहिए। साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञानपीठ और सभी लेखक संगठनों, संस्थानों में व्यास जी की विद्वता के प्रति आदर रखने वाले लेखक और व्यास जी से पढ़े-लिखे लोग मिलकर एक बड़े सार्थक आयोजन में योगदान दें।
वाचस्पति जी (वाराणसी) लगातार इस संदर्भ में पहल करते रहे हैं।
आचार्य व्यास जी की स्मृति को प्रणाम!
(प्रमोद कुमार पांडेय, भारतीय कला -साहित्य विषय के सुपरिचित पत्रकार और बनारस लिट् फेस्ट के सह निदेशक भी हैं )