‘सेवा सदन’ सौ वर्ष बाद भी प्रासंगिक
प्रेमचंद की सभी रचनाएं सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत हैं। सेवा सदन उनका ऐसा ही उपन्यास है, जो इस साल सौ वर्ष पूर्ण कर रहा है। एक शताब्दी के लम्बे अंतराल के बावजूद यह आज भी इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि इसकी नायिका का जीवन नारी जीवन की समस्याओं के साथ-साथ धर्माचार्यों के ढोंग,पाखंड, दोहरे चरित्र और समाज में व्याप्त दहेज-प्रथा, बेमेल विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष करता नजर आता है। साथ ही इसमें वेश्या-जीवन और मध्यम वर्ग की आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को भी प्रमुखता के साथ चित्रित किया है।
हालांकि यह एक आम जीवन की कहानी है, जिसमें उपन्यास की नायिका सुमन के जीवन की अहम घटनाओं के अंतर्गत नारी की दयनीय स्थिति को दर्शाया गया है। यह कहानी है एक ईमानदार थानेदार कृष्णचंद्र की, जो अपनी कम आमदनी के बावजूद ईमानदारी से जीवन बसर कर रहा है। उसकी दो बेटियां सुमन और शांता हैं, जिनके विवाह के लिए कृष्णचंद्र दहेज देने के लिए धन जुटाने को विवश होता है और रिश्वत लेने का अपराध करता है। मगर जल्द ही उसका रिश्वत का भेद खुल जाता है और उसे जेल हो जाती है। संकट के हालात में सुमन का विवाह एक विधुर व्यक्ति गजाधर से कर दिया जाता है। मगर बेमेल विवाह और गरीबी से त्रस्त पति-पत्नी के बीच मन-मुटाव शुरू हो जाते हैं और एक रात सुमन पर दुराचार का आरोप लगाकर उसका पति उसे घर से निकाल देता है। अकेलापन, अपमान, तिरस्कार और विवशता में सुमन अपने कस्बे की वेश्या भोली की शरण लेती है और आगे चल कर हालात ऐसे बनते हैं कि वह खुद वेश्या बन जाती है। उसका पिता सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल हो जाने के गम में आत्महत्या कर लेता है। प्रेमचंद ने जहां इसमें एक बेबस पिता और ईमानदार थानेदार की लाचारी को शब्द दिए हैं, वहीं सुमन के विधवा आश्रम में ठहरने और स्वयं का जीवन समाप्त कर लेने जैसी घटनाओं के जरिए स्त्री-जीवन की लाचारी को भी बड़े मार्मिक अंदाज में चित्रित किया गया है। इस उपन्यास की खासियत है कि इसमें उन्होंने एक वेश्या के जीवन की वास्तविकता को न सिर्फ उकेरा है, बल्कि उसे एक प्रेरणा के तौर पर भी सामने रखा है।
प्रेमचंद ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत धनपत राय के नाम से उर्दू उपन्यास से की थी।‘बाजारे-हुस्न उनका उर्दू में लिखा उपन्यास है, जिसे बाद में उन्होंने‘सेवासदन’के नाम से हिंदी में भी प्रकाशित कराया। प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से समाज के सम्पन्न और शक्तिशाली वर्ग पर भी भरपूर कटाक्ष किए हैं। वह सेवासदन’में धर्म के ठेकेदारों को बेनकाब करते हुए लिखते हैं,‘आजकल धर्म तो धूर्तों का अड्डा है। इस निर्मल सागर में एक से एक मगरमच्छ पड़े हुए हैं। भोले-भाले भक्तों को निगल जाना उनका काम है। लंबी-लंबी जटाएं, लंबे-लंबे तिलक और लंबी-लंबी दाढ़ियां तो महज लोगों को धोखा देने के लिए पाखंड है।’ प्रेमचंद का यह वक्तव्य एक शताब्दी के बाद आज भी प्रासंगिक है। इस उपन्यास की यह खासियत है कि वह इसके माध्यम से सिर्फ सामाजिक कुरीतियों और आडंबरों से ही रूबरू नहीं कराते, बल्कि उनका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं।