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05 October 2022

उम्मीद: क्या प्रेम और विश्वास की विजय होगी

उत्तर बिहार के  एक ऐसे मुस्लिम परिवार में जन्म लेने के बाद, जो हिंदू बाहुल्य क्षेत्र में हिन्दुओं के साथ घुल मिलकर जीवन व्यतीत करता रहा,  मैं भगवान राम से विशेष रूप से जुड़ाव महसूस करता हूं। मेरी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू भाषा के प्राइमरी सरकारी स्कूल में हुई। रोज सुबह स्कूल की प्रार्थना सभा में संगीत के साथ “मां शारदे कहां तू वीणा बजा रही है” गाते हुए हमारा परिचय पौराणिक चरित्रों और विचारों से हुआ।

उर्दू स्कूल में ही हम अल्लामा इक़बाल की रचना “लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी” गाते थे। इन्हीं अल्लामा इक़बाल ने राम को अपनी एक कविता में इमाम ए हिंद बताया है। इकबाल ने गुरू नानक और अन्य नायकों, विचारकों, क्रांतिकारियों पर भी ऐसी कविताएं लिखी हैं। तब हमें इकबाल की विभाजन पूर्व राजनीति की रंगत समझ में नहीं आती है।

प्रत्येक वर्ष ठंड की शुरुआत से पहले हिंदी माध्यम के स्कूलों में सरस्वती पूजा का आयोजन किया जाता था। हम प्रसाद पाने की इच्छा से हिंदी स्कूल की तरफ दौड़ लगाते थे। इसे न तो मुस्लिम समाज के लोग हराम समझते थे और न ही हिंदू समाज के लोग इसे अपवित्र मानते थे। समाज में सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारा था। कम से कम सामाजिक तानाबाना किसी भी तरह की कट्टरता और भेदभाव से मुक्त था। यह जरुर था कि दोनों की समाज के कुछ चुनिंदा लोग विभाजनकारी सोच रखते थे। लेकिन इनकी सोच और आवाज को समाज के लोगों द्वारा दरकिनार कर दिया जाता था। इन लोगों को कोई महत्व नहीं दिया जाता था, जिससे उनमें हीन भावना, ग्लानि पैदा होती थी।

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प्राइमरी स्कूलों के विद्यार्थी राजकीय हाई स्कूल में दाखिला लेते थे। लगभग सभी स्कूल सवर्ण हिंदुओं के भूमिदान और आर्थिक अनुदान से बने होते थे, जिन्हें आजादी के बाद सरकार ने अपने अन्तर्गत शामिल कर लिया था। मेरा स्कूल साल 1955 में गांधीवादी स्वाधीनता सेनानी द्वारा स्थापित किया गया था। उसी प्रांगण में साल 1930 में उन्होंने स्वराज आश्रम भवन का निर्माण किया था। हमारे शिक्षकों और बुजुर्गो द्वारा हमें सदा यह बात बताई जाती रही कि हमें गर्व होना चाहिए कि हमारा स्कूल एक गांधीवादी इंसान द्वारा स्थापित किया गया है।

समाज में गर्व का एक और तत्व मौजूद था और वह यह कि समाज की  सामूहिक चेतना इस तरह की थी कि सांप्रदायिक हिंसा की एक भी घटना क्षेत्र में घटित नहीं हुई थी। यदि कभी किसी तरह के तनाव की स्थिति पैदा होती थी तो आपसी बातचीत से उसे सुलझा लिया जाता था। इस समझने, सुलझाने के तरीके को लोग गर्व की तरह लेते थे। एक दूसरे के घर भोजन करना सामान्य बात थी। कोई भी हिंदू विशुद्ध रूप से शाकाहार समर्थक नहीं था। स्कूल को प्रसन्नता होती थी जब मुस्लिम समाज से आने वाले विद्यार्थी, हिंदू सवर्णों ने बेहतर प्रदर्शन करते थे। उनकी उपलब्धि पर खुशी जाहिर करते थे। हिंदू सवर्ण भी चाहते थे कि मुस्लिम समाज के लोग शिक्षा, अर्थनीति, रोजगार के क्षेत्र में उन्नति करें। हालांकि उनके सुर में एक अभिमान होता था।

साल 1986 में देशभर में राम जानकी रथ निकाला जा रहा था, जिसका उद्देश्य अयोध्या में भव्य राम मंदिर के लिए इस्तेमाल होने वाली शिलाओं को आम हिन्दू जनमानस से एकत्रित करना था। वह रथ हमारे स्कूल के प्रांगण में भी पहुंचा था। हालांकि इसे गांव के भूमिहार, ब्राह्मण और स्कूल के संस्थापक द्वारा दूर भेज दिया गया था। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ। मेरे गांव के मुस्लिम उदास और भयभीत थे। उन्हें अपने पर आक्रमण का डर था। उसी दिन हिंदुओं ने आकर हमें आश्वासन दिया कि चाहे देश का माहौल कुछ भी हो, इस गांव के सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे पर कोई आंच नहीं आएगी। मुस्लिम समाज के साथ व्यापार एवं अन्य सरोकार पहले के ही भांति रहेंगे।

मगर परिस्थितियां बदलने लगी थीं। बिहार के बड़बोले सांसदों का जमावड़ा लग रहा था। घोर मांसाहारी व्यक्तियों द्वारा शाकाहार को सनातन धर्म और संस्कृति का अभिन्न अंग बताया जा रहा था। ध्रुवीकरण की मुहिम जोर पकड़ रही थी। अच्छा हिंदू बनने की होड़ लगी थी। धर्मो में श्रेष्ठता की लड़ाई शुरु हो रही थी। ऐसा क्यों हो रहा था?, इसके पीछे क्या कारण थे ? मैं ऐसे सवाल खुद से पूछता हूं।

उदारीकरण और मंडल कमीशन लागू होने के बाद, सर्वण और सशक्त हिंदू समाज के लोगों ने चाहे शिक्षा, व्यापार, रोजगार, राजनीति के क्षेत्र में विकास न किया हो मगर शोषित, वंचित तबके ने गजब की कामयाबी हासिल की थी। उनकी तरक्की साफ नजर आ रही थी। साल 1991 के पहले सर्वण हिंदू और उच्च श्रेणी के मुस्लिम यानी अशरफ मुस्लिम के बीच गंगा जमुनी तहजीब का एक विचार खूब लोकप्रिय था। यह विचार कामयाब भी था। मगर जैसे ही ध्रुवीकरण की कोशिशें तेज हुईं, इस विचार पर भी चोट पहुंची। दोनों ही समाज के कट्टरपंथियों द्वारा अच्छे हिंदू और अच्छे मुस्लिम होने की एक होड़ रहती थी। इस कोशिश में विशेष तरह के धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाता था। मगर इसी कोशिश में कई बार हिंसक और बर्बर प्रदर्शन होते थे, जिनमें पारंपरिक हथियारों की नुमाइश की जाती थी।

ऐसी जगहों और परिस्थितियों में तनाव की स्थिति पैदा होती थी।

इन आक्रोशित मुस्लिमों का प्रभाव अपने समाज में बढ़ने लगा। मोटर मैकनिक, टैक्सी ड्राइवर, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, टायर ट्यूब विक्रेता जैसे काम कर के इन मुस्लिमों की आर्थिक स्थिति बेहतर हुई, समाज में इनकी भागीदारी बढ़ी और इसी कारण यह सबकी नजर में चढ़ गए।

चूंकि खाड़ी देशों का पैसा स्थानीय बाजारों और चुनावों में खर्च हो रहा था, इसलिए समाज में तनाव और मुस्लिम विरोधी माहौल बढ़ने लगा। ऐसे कई हिंदू लोग, जो विदेशों में काम कर रहे थे, उन्हें यह जरूरत महसूस होने लगी कि उनकी धार्मिक पहचान को भी मान्यता मिलनी चाहिए। नए हिंदू वर्ग को ऐसा लगने लगा है संघ परिवार की उन्हें उनकी खोई हुई धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान वापस दिलाने का काम करेगा, जिसे अभी तक विदेशी आक्रांताओं और सेकुलरिज्म का राग अलापने वालों ने उनसे दूर रखा है। इसी मानसिकता के कारण हिन्दू सोच यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होती कि आज भी प्रतिष्ठित संस्थानों, सत्ता में मुस्लिम समाज की भागीदारी की क्या हकीकत है। मुस्लिम समाज के लोग भी अपने गौरवशाली इतिहास के कारण हार मानने के लिए तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि आज मेरी मातृभूमि उत्तर बिहार के लोगों में बाकी देश की ही तरह, ऐसी संस्कृति, ऐसी विचारधारा, ऐसी सोच विकसित हो चुकी है, जो कुछ दशक पहले तक कहीं नहीं थी। बावजूद इसके मैं आज भी आशावादी हूं। मुझे आज भी उम्मीद है कि सामाजिक ध्रुवीकरण का यह दौर समाप्त हो जाएगा। मैं ऐसा इसलिए सोचता हूं कि तमाम विरोध, मतभेद के बाद भी आज भी हम अपने दुख और सुख में एक दूसरे की तरफ देखते हैं।

 एक दूसरे के प्रति पैदा हुए अविश्वास को लेकर हम सभी में ग्लानि और अफ़सोस है। लोगों के जेहन में आज भी यह सवाल चुभते हैं कि मुस्लिम शासकों द्वारा किए गए हिंदू विरोधी कार्यों के लिए क्या आज भी युवा मुस्लिमों से सवाल और स्पष्टीकरण मांगे जाएंगे। यह सवाल , यह अफसोस, यह ग्लानि ही एक उम्मीद है कि राजनीति से पैदा हुईं नफरत पर प्रेम और विश्वास की विजय होगी।

(लेखक इतिहास शिक्षक, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय)

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OUTLOOK 05 October, 2022
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