ताराशंकर बंद्योपाध्याय - बंगाली भाषा के सर्वाधिक प्रसिद्ध संवेदनशील उपन्यासकार
ताराशंकर बंदोपाध्याय 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के प्रमुख बंगाली उपन्यासकारों में थे जिन्होंने उपन्यास लेखन के क्षेत्र में अद्वितीय सफलता प्राप्त की। बंगाली भाषा के सुप्रसिद्ध साहित्यकार ताराशंकर जी ने अपने आसपास की दुनिया से कहानियां बुनकर उत्कृष्ट गद्य लिखा। अपनी संवेदनशील कृतियों के कारण वे समकालीन बंगाली उपन्यासकारों में सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे। उन्होंने 65 उपन्यास, 53 कहानी संग्रह, 12 नाटक, 4 निबंध-पुस्तकें, 4 आत्मकथाएं और 2 यात्रा कहानियां लिखीं। उन्होंने 1959 में बंगाली फीचर फिल्म ‘आम्रपाली’ का निर्देशन किया था।
ताराशंकर जी का जन्म 1898 की 23 जुलाई को वीरभूमि (बंगाल) के लाभपुर गांव के जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता हरिदास बंद्योपाध्याय और माता प्रभाती थीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा 1916 में लाभपुर जादबलाल एच.ई. विद्यालय से हुई जहां से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर सेंट जेवियर्स कॉलेज, कोलकाता और साउथ सबर्बन कॉलेज (अब आशुतोष कॉलेज) में प्रवेश लिया। सेंट जेवियर्स कॉलेज में इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान वे असहयोग आंदोलन में शामिल हुए। राजनीतिक हलचलों से उनके अध्ययन में विघ्न पड़ा और वे उनके ही गांव में नजरबंद कर दिए गए। वहां से मुक्त होने के बाद, राजनीतिक सक्रियता और स्वास्थ्यगत कारणों से उनका अध्ययन आगे जारी नहीं रह सका और वे विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर सके। उन्हें 1921 के असहयोग आंदोलन में कारावास हुआ जहां से छूटने पर उन्होंने कुछ समय नौकरी की। उनको 1930 में स्वतंत्रता आंदोलन का सक्रिय समर्थन करने के लिए गिरफ्तार किया गया लेकिन बाद में रिहा कर दिया गया। ताराशंकर बंदोपाध्याय का विवाह उमाशी देवी से हुआ था। उनकी पांच संतानें क्रमशः बड़ा पुत्र सनतकुमार, बड़ी बेटी गंगा, दूसरी बेटी बुलू, छोटा बेटा सरितकुमार और सबसे छोटी बेटी बानी थे।
राजनीतिक जीवन छोड़कर उन्होंने स्वयं को साहित्य सृजन के लिए समर्पित करने का फैसला किया। उन्होंने काव्य और नाटक की रचनाएं रचकर साहित्य जगत में प्रवेश किया। उन्होंने अपने उपन्यासों में सामग्री और संभावनाओं से भरपूर, यथार्थवाद को नए दृष्टिकोण से स्वीकार किया, जिससे पाठक तत्कालीन समाज के रूढ़िवाद और पाखंड से ग्रसित, सीमित मानवीय संबंधों की सच्चाई को जान सके। प्रादेशिक जीवन को व्यापक रूप में चित्रित करने में उनको महारत हासिल थी। उन्होंने लेखन से ये साबित किया कि पुरुषों और महिलाओं के बीच यौन-संबंध कभी-कभी समाज के मौजूदा कानूनों और निर्देशों से ऊपर के स्तर पर चले जाते हैं। उनका उपन्यास ‘राधा’ इसका उपयुक्त उदाहरण है। इन विशेषताओं के कारण उन्हें अच्छी सफलता और अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई। उनकी कृतियों में प्रादेशिक जीवन का इतना सजीव चित्रण होता था मानो किसी फोटोग्राफर ने चित्र उतार दिए हों।
1932 में वे पहली बार शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर से मिले। 1942 में उन्होंने बीरभूम जिला साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की और बंगाल में फासिस्ट-विरोधी लेखक तथा कलाकार संघ के अध्यक्ष बने। 1944 में उन्होंने कानपुर में रहने वाले अप्रवासी बंगालियों द्वारा आयोजित बंगाली साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1947 में उन्होंने कोलकाता में आयोजित ‘47वें प्रभास बंगा साहित्य सम्मेलन’ का उद्घाटन किया। 1948 में वे कोलकाता के ताला पार्क के अपने घर में रहने चले गए। 1952 में वे विधान सभा के सदस्य नामित किए गए। वे 1952-60 के बीच पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य रहे। 1960-66 के बीच राज्य सभा के सदस्य रहे। 1966 में संसद से सेवानिवृत्त होकर उन्होंने नागपुर बंगाली साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की।
प्रारंभिक साहित्यिक जीवन में ही उनके उपन्यास ‘हाँसुली बाँकेर उपकथा’ के लिए उनको 1947 में कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा ‘शरत स्मृति पुरस्कार’ प्रदान किया गया। उन्हें 1956 में उनके उपन्यास ‘आरोग्य निकेतन’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘रवींद्र स्मारक पुरस्कार’ प्रदान किया गया। 1967 में उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘गणदेवता’ के लिए उनको ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्रदान किया गया। 1969 में भारत सरकार द्वारा ताराशंकर बंद्योपाध्याय को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया।
ताराशंकर जी के प्रसिद्ध उपन्यास 1953 में प्रकाशित ‘आरोग्य निकेतन’, ‘गणदेवता’, 1900 में प्रकाशित ‘हाँसुली बाँकेर उपकथा’, ‘सेरा ताराशंकर’, ‘राधा’, ‘कालिंदी’, ‘निशिपोद्दो’, ‘चैताली घुरनी’, ‘धत्रितबत्ता’, ‘पंचग्राम’, ‘काबी’, ‘कालसागर’, ‘रस्काली’ हैं। उनकी कहानी ‘जलसाघर’ पर महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने फिल्म बनाई थी। 1971 के 14 सितंबर की सुबह, उनके गृह राज्य पश्चिम बंगाल के कलकत्ता स्थित उनके घर में महान उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय का निधन हो गया। उत्तरी कोलकाता के निमतला श्मशान घाट में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।