शहनाई के जादूगर को भूल गया डुमरांव
- उमेश कुमार राय
बक्सर जिले में एक सब-डिविजन है डुमरांव। यों तो इसकी पहचान ऐसे क्षेत्र के रूप में है, जहां कभी रियासतें हुआ करती थीं, लेकिन इससे इतर भी डुमरांव की एक पहचान है। यह पहचान शहनाई को दुनियाभर में मशहूर करनेवाले बिस्मिल्ला खां से जुड़ती है।
21 मार्च 1916 को बिस्मिल्ला खां का जन्म डुमरांव के राजगढ़ महल के करीब स्थित ठठेरी बाजार में किराये के मकान में हुआ था। उनके शुरुआती 10 साल इसी किराये के मकान और इसके आसपास खेलते हुए गुजरे थे। कहा जा सकता है कि शहनाई में फूंक भरने का हुनर उन्होंने यहीं सीखा। लेकिन, अफसोस की बात है कि उनके जन्म के 100 साल पूरे हो जाने के बाद भी डुमरांव में उनकी एक भी निशानी को संजोकर नहीं रखा गया है।
डुमरांव स्टेशन से लेकर ठठेरी बाजार के उक्त मकान तक ऐसा एक भी शिलालेख या बोर्ड नहीं मिलता, जिससे पता चल सके कि बिस्मिल्ला खां की पैदाइश इसी सरजमीं पर हुई थी। जिस किराये के मकान में उनका जन्म हुआ था, वह खस्ताहाल है और लोग इससे अनजान हैं। मकान में काठ का एक दरवाजा लगा है। इसके नीचे का हिस्सा दीमक चाट गया है। इसकी देखभाल करनेवाला भी कोई नहीं है।
सन 1926 में बनारस जाने के चार दशक बाद राजगढ़ प्रासाद से कुछ दूर भिरुंग राउत की गली में बिस्मिल्ला खां ने जमीन खरीद कर छोटा-सा मकान बनवाया था। वह जब भी डुमरांव आते, तो इसी मकान में ठहरते थे। इस मकान को दो साल पहले ही बेच दिया गया। यहां भी कोई बोर्ड नहीं है। भिरुंग राउत की गली में रहनेवाले मोहम्मद कयूम कहते हैं, “इस मकान से बिस्मिल्ला साहब की बहुत-सी यादें जुड़ी हुई हैं। अच्छा होता अगर यहां म्यूजियम या उनके नाम से स्कूल खोल दिया जाता। लेकिन, सरकार की तरफ से ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया।"
गौरतलब हो कि बिस्मिल्ला खां के पिता पैगंबर बख्श खां डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में रोज सुबह-शाम शहनाई बजाने आते थे। वह राजगढ़ प्रासाद के प्रांगण में स्थित बिहारीजी के मंदिर की दायीं तरफ बने दालान में बैठ कर शहनाई बजाया करते थे। बिस्मिल्ला खां महज चार साल के थे, तभी से अपने पिता के साथ महल में जाने लगे थे। बिस्मिल्ला खां महज 10 साल की उम्र में डुमरांव छोड़ कर शहनाई सीखने के लिए अपने चाचा अली बख्श विलायतु के पास बनारस चले गये थे। जिस दालान में बिस्मिल्ला अपने पिता के साथ बैठते थे, वह दालान भी ढहने के कगार पर है।
डुमरांव राज परिवार के महाराजा चंद्र विजय सिंह ने आउटलुक को बताया कि पैगंबर बख्श खां सुबह और शाम को नियमित तौर पर शहनाई बजाने के लिए आते थे। जब वह शहनाई बजाकर लौटते, तो उन्हें राज परिवार की तरफ से सवा सेर का लड्डू दिया जाता था। बख्श खां के साथ बिस्मिल्ला खां भी नियमित आया करते थे। कहा तो यह भी जाता है कि लड्डू के लालच में ही बिस्मिल्ला खां अपने पिता के साथ महल में जाते थे।
बिस्मिल्ला खां पर किताब लिखनेवाले लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने आउटलुक को बताया, “बिस्मिल्ला खां के मन में शहनाई बजाने की ललक अपने पिता को देखकर पैदा हुई थी। उस वक्त चूंकि बिस्मिल्ला खां बहुत छोटे थे, तो उनके पिता ने उन्हें फूंकने के लिए एक पिपही बनाकर दे दी थी। उसे फूंकते-फूंकते ही वह शहनाई बजाने लगे थे।“
महाराजा चंद्र विजय सिंह बताते हैं, ‘बिस्मिल्ला खां जब भी डुमरांव आते थे, बिहारीजी के मंदिर में जरूर कदम रखते थे और शहनाई भी बजाते थे।’
भारतरत्न बिस्मिल्ला खां के मकान व उनसे जुड़ी तमाम यादें डुमरांव में बिखरी पड़ी हैं, लेकिन उन्हें संजोने का प्रयास सरकार ने कभी नहीं किया। स्थानीय लोगों के मुताबिक, सन 1994 में लालू प्रसाद यादव डुमरांव आये थे, तो उन्होंने भिरुंग राउत की गली में स्थित बिस्मिल्ला खां के मकान को टाउनहाल सह पुस्तकालय बनाने की बात कही थी। लेकिन, इसके लिए कभी भी प्रयास नहीं किया गया। नीतीश कुमार जब सीएम बने, तो उन्होंने भी आश्वासन दिया, लेकिन जमीन पर कोई काम नहीं हुआ। मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने कहा, "मैं चाहता हूं कि डुमरांव में कम से कम उनके नाम पर एक कॉलेज खुल जाये। पिछले 4 साल से प्रयास कर रहा हूं। इस साल इस पर बात बनती दिख रही है।"
स्थानीय जनप्रतिनिधियों का कहना है कि भिरुंग राउत की गली में स्थित उनके मकान को लेकर विवाद था, जिस कारण पूरी योजना ठंडे बस्ते में डाल देनी पडी। डुमरांव नगर परिषद के पूर्व वाइस चेयरमैन चुनमुन प्रसाद वर्मा ने बताया कि उनकी तरफ से प्रयास किया गया था, लेकिन उक्त मकान को लेकर विवाद था और बाद में उसे बेच भी दिया गया। इस वजह से वहां संग्रहालय नहीं बनाया जा सका।
महाराजा चंद्र विजय सिंह का कहना है कि बिस्मिल्ला खां डुमरांव ही नहीं पूरे देश के गौरव हैं, लेकिन बिहार सरकार ने गौरव को सम्मान दिया ही नहीं। यह सरकार की उदासीनता ही है कि एक के बाद एक बिस्मिल्ला खां की निशानियां मिटती जा रही हैं।
बिस्मिल्ला खां के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने डुमरांव को भुला दिया था और खुद को बनारसी कहलाना पसंद करते थे। मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने इस संबंध में कहा, “मैं जब भी उनसे मिलने बनारस जाता था, तो वह डुमरांव के बारे में खूब बातें किया करते थे।“ उन्होंने बातचीत के दौरान कहा था कि वह जहां भी कार्यक्रम करने जाते हैं, तो अपना जन्म स्थान डुमरांव ही बताते हैं, फिर कोई कैसे कह सकता है कि उन्होंने डुमरांव को भुला दिया।