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20 August 2015

त्रिलोचन के 98वें जन्मदिन पर कवितांजलि

इतना तो बल दो

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इतना तो बल दो

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यदि मैं तुम्हें बुलाऊँ तो तुम भले न आओ

मेरे पास, परंतु मुझे इतना तो बल दो

समझ सकूँ यह, कहीं अकेले दो ही पल को

मुझको जब तब लख लेती हो। नीरव गाओ

 

प्राणों के वे गीत जिन्हें में दुहराता हूँ।

संध्या के गंभीर क्षणों में शुक्र अकेला

बुझती लाली पर हँसता है निशि का मेला

इस की किरणों में छाया-कम्पित पाता हूँ,

 

एकाकीपन हो तो जैसा इस तारे का

पाया जाता है वैसा हो। बास अनोखी

किसी फूल से उठती है, मादकता चोखी

भर जाती है, नीरव डंठल बेचारे का

 

पता किसे है, नामहीन किस जगह पड़ा है,

आया फूल, गया, पौधा निर्वाक् खड़ा है।

 

सह जाओ आघात प्राण, नीरव सह जाओ

इसी तरह पाषाण अद्रि से गिरा करेंगे

कोमल-कोमल जीव सर्वदा घिरा करेंगे

कुचल जाएंगे और जाएंगे। मत रह जाओ

आश्रय सुख में लीन। उठो। उठ कर कह जाओ

प्राणों के संदेश, नहीं तो फिरा करेंगे

अन्य प्राण उद्विग्न, विपज्जल तिरा करेंगे

एकाकी। असहाय अश्रु में मत बह जाओ।

 

यह अनंत आकाश तुम्हे यदि कण जानेगा

तो अपना आसन्य तुम्हे कितने दिन देगा

यह वसुधा भी खिन्न दिखेगी, क्षण जानेगा

कोई नि:स्वक प्राण, तेज के कण गिन देगा

गणकों का संदोह, देह व्रण जानेगा

और शून्य प्रासाद बनाएगा चिन देगा

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त्रिलोचन शास्त्री की एक अवधि कविताः

 

टिक्कुल बाबा

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ओहि दिन

टिक्कुल बाबा

चउकी पइ बैठा रहेन

हमहूँ ढुरकत ढुरकत

एक ओरि बैठि गए।

 

बाबा अकेलइ रहेन

करिया तिलकू बिकरमा

अवर लड़िके

कितउ भित्तर बखरी मँs

कितउ कओनेउ कामे से

अन्तहि कतहूँ गs होइहैंइ।

 

बाबा उदास हम्मइँ जानि परेन

एसे हम जाइ परे

दरिआए

बोले नाइँ।

 

उमरिउ हमारि सात आठइ

के बीचे तब रही होए

एतनी बुधि रही

कब बोलइ कब चुप रहइ।

 

बाबा बड़ी बेरि ले

चुपान रहेन

कजनी काउ गुनत रहेन

एक ठि लंबी साँसि लिहेन

बोलेन – ‘बासुदेव

जा चिलम चढ़ाइ ल्यावा।’

 

हम तमाखू गिट्टी चिलम म भरे

भित्तर गए

कंडा कइ निद्धू आगि राखी

खुलिहारिके बोरसी से लिहे

अवर राखी झारि झारिके

आगि चिलम म भरे

हेठे से फूँक मारि मारिके

बची राखी बहिराए

आए तउ बाबा के हाथे

हुक्की रही पहिलेह से

चिलम हमरे हाथे से

लेइ लिहेन।

 

नियाली नरिअरी म लगाइके

पुड़ पुड़ सुरकइ लागेन

धुआँ एहर ओहर उड़इ लाग

हम फरकहँते बइठि गए।

 

बाबा एक बाक कहेन –

‘बासुदेव, काल्हि कटघरा ग रह्यs’

हाँ बाबा

हमिआने हम

बाबा पुड़ पुड़ कइके

फेरि कहेन – ‘रनधीर के

दुआरेउ का ग रह्यs’

ग रहे, हम बोले।

 

बाबा तमाखू पिअत पिअत

मुँह उठाइके हम्मइँ लखत

पूछेन – ‘ओकरे लोटा से

पानी उहाँ पिए रह्यs’

पिए रहे, हम कहे।

 

बाबा फेरि हुक्की पुड़पुड़ाइके

सोधाएन – ‘अवर के के रहा’

करिया तिलकू धरमू ताली

बिकरमा सब साथ साथ रहेन

हमरे सब जोर जोर से पिआसा रहे

दुआरे इनारा गगरा लोटा उबहनि देखे

फेरि सब जन पिअत गए।

 

बाबा से हुक्की बतिआवइ लागि

ओकर ओसरी कइके

फेरि हमरी ओरि भए पूछेन –

‘सब पिएसि उहाँ’

हम कहे – एक ताली नाइँ पिएन

अवर सब पिएसि इ

बाबा कइ हुक्की गुड़गुड़ानि

थोरिक फेरि कहेन –

‘तलिआ बिचारी आ

अवर कुल बुड़न्त किहेन’

हम समझे नाइँ कुछ

टुकुर टुकुर लखत रहे बाबा कँs।

 

अब ई याद परा

मंछा तर आए सब पक्का किहे रहेन

ई पानी पीअइ कइ बाति

कतहुँ केहू से न कहि जाइ

अब तउ बाति खिलि गई

हम जाने, ई हमरइ कसूर आ

सोचे संगहती सब

दोस न हमकाँ देइहीं।

 

बाबा फेरि हुक्की पुड़पुड़ाएन

कहेह – ‘जरि गइ’

उठिके हुक्कौ कँ ठढ़िआइ दिहेन भीति से

चिलमि उलटि के धरेन

अब बैठे पइ बोलेन –

‘तिलकू हमसे कहत रहेन

हम करिया बिकरमा अवर ताली

पानी नाइँ पिए।’

हम कहे – एक ताली

नाय पिएन अवर सब पिएस

अब हम हलुकाइ गए

हमसे जहिरानि नाइँ बाति

तिलकू पहिलेह से

रचे रहेन

ओतना ऊ आड़ बान्ह

एतना ई पूछपेख

हम नाहीं समझे

ई कुलि काहें।

 

पूछि परे, बाबा,

गगरा लोटा माँजिके

हमरे सब पानी पिए

पनिअउ निरमल रहा

फेरि दोस कवन परा

बाबा बोलेन –

तूँ अबहिं समझब्यs न

केतनउ माँजा घँसा

लोटवा गगरवा धोवइ कs रहा, रहे।

 

हम पूछे – एसे का

बर्तन केहू क होइ

पानी पिए दोस कवन।

 

बाबा बोलेन – ‘बाति

लरिक बुद्धि म न आए ई

रनधिरवा कइ छाँह सब बचावथइ

लख्यsहइ दुआरे केहूके ओकाँ

बइठा ठाढ़’

एसे का भ बाबा।

 

बाबा कोपिके बोलेन –

‘ऊ बाम्हनि राखे आ

कइअउ बिटिआ अब ले बेंचि चुका

बेटवन कँ परजाति की

बिटिहनिन से बिअहसेइ।’

 

बाबा कइ कोप लखे

हमहूँ चुपचाप उठे

अवर आनी ओर गए।

 

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TAGS: त्रिलोचन, जन्मदिन, कविताएं, प्रगतिशील काव्यधारा
OUTLOOK 20 August, 2015
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