जन्मदिन: किसानों का दर्द, गांधी होने के मायने और कलम की ताकत बतातीं 'दिनकर' की तीन कविताएं
रामधारी सिंह 'दिनकर' स्वतन्त्रता से पहले एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गए। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
उनके जन्मदिन पर पढ़िए, उनकी तीन प्रासंगिक कविताएं। पहली कविता है 'हमारे कृषक'। किसानों का मुद्दा इस देश में कभी पुराना नहीं हुआ और इस दौर में किसानों की बढ़ रहीं आत्महत्याएं, उनके द्वारा किए जा रहे आंदोलन हमें सोचने को मजबूर करते हैं कि यह देश किस तरह 'कृषि प्रधान देश' होने का दावा करता है। यह कविता किसानों के दर्द को दर्ज करती है।
दूसरी कविता महात्मा गांधी पर है। हिंसा और शोर-शराबे के इस दौर में दिनकर की यह कविता बताती है कि गांधी होने के क्या मायने हैं?
तीसरी कविता में दिनकर कलम और तलवार में कलम को ताकतवर बताते हैं। देश में पत्रकारों, विचारकों की हो रही हत्याओं के बीच ये कविता बताती है कि कलम का महत्व क्या है। विचारों का महत्व क्या है, जिन्हें हिंसा से खत्म नहीं किया जा सकता।
पढ़िए,तीनों कविताएं-
हमारे कृषक
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहां? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आंखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं
पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आंसू पीना
चूस-चूस सूखा स्तन मां का, सो जाता रो-विलप नगीना
विवश देखती मां आंचल से नन्ही तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती
कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है
दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहां हैं
दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे
दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊं दूध कहां किस घर से
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से
हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं
गांधी
देश में जिधर भी जाता हूं,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूं
"जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अंधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !"
सोचता हूं, मैं कब गरजा था ?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था, जिस ने हमें जन्म दिया था ।
तब भी हम ने गांधी के
तूफान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।
वे तूफान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हंसते थे ।
तूफान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।
गांधी तूफान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।
कलम या कि तलवार
दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार
मन में ऊंचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार
अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊंचे मीठे गान
या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान
कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,
दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली
पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे,
और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे
एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी,
कलम उगलती आग, जहां अक्षर बनते चिंगारी
जहां मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले,
बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले
जहां पालते लोग लहू में हालाहल की धार,
क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार
(कविता साभार- कविता कोश)