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22 December 2015

अशोक शाह की कविता: पहचान छोड़ आता हूं

छोड़ आता पीछे भिखारी

जब भी मंदिर जाता हूं

अपनी बलवती इच्छाओं के सहारे

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सबसे बलवान भिखारी की तरह

ईश्वर के समक्ष खड़ा हो जाता हूं

घर से रोज अपनी यात्रा   

हराने के लिए शुरू करता हूं

पर हर जीत के पीछे

एक हार छोड़ आता हूं

पौ फटते ही नियमत:

मंजिल तलाशने निकलता

कुछ काम दफ्तर में किया

गपशप कुछ दोस्तों से

मन में थकी शाम लिए

पीछे पूरा दिन छोड़ आता हूं

छूटे अनंत रास्ते पीछे

उन पर कई और चलेंगे

बढ़ेगा पथों का और प्रपंच 

जितना संवेदहीन होगा मनुष्य

दुविधाओं के हर मोड़ पर

नया डर जोड़ आता हूं

इतना ही निकला आगे आज

छूट गए सारे संबंध

रह गए संग अनुबंध

दिल में जमा जख्मों के दस्तावेज 

पड़ोसी से होने लगा परहेज

घर में नहीं दालान अब

बंद कमरों के मकान में

पहचान छोड़ आता हूं

पीछे नहीं छूटीं तो स्मृतियां

यादें चलती आज भी साथ हैं

छूट गई लुकाठी कबीर की

झंडे अब हाथ-हाथ हैं

सीमाएं मजबूत हुई इस कदर कि

हर गली के मोड़ पर

सरहदी निशान छोड़ आता हूं

खुद से अलग क्यों पहचान है

इस बिखराव में कौन सा अजीब ठहराव है

केंचुल की परवाह कभी सांप भी नहीं करता

दिखता है हमारे तालाब का

पानी कितना बदबूदार है

फिर भी इसी मे डुबकी लगाकर

मछली मारने का कारोबार छोड़ आता हूं

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TAGS: ashok shah, poem, अशोक शाह, कविता
OUTLOOK 22 December, 2015
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