01 April 2015
कविता - पद्माशा झा
ढूंढो तो
कहां है वह आजादी का बुत
जिसे तराश कर हमने
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खुदा बनाया था।
वह मूरत जो मुस्कराती थी,
गेंदे के फूलों का हार पहनकर
सरस्वती संवर जाती थी
कहां है धूप, दीप, नैवद्य
वाली वह पूजा, गीत
वह चंदन
आंखें मूंदकर होती हुई अराधना
वह गूंजते हुए श्लोक के छंद
चंदन गंध, तुलसी पत्र
कहां हैं वे छलकते हुए जीवन के क्षण
जरा ढूंढो तो
वे प्यार की मीठी बातें
नीली पोशाक में गाए गए
भारत मां के गीत
वे खाई हुई कसमें
बूटों की धुन पर
रोमांचित होती परेड
वह आधी रात का घूमना
निश्शंक
हाथों में हाथ डाले पार्कों में
खिलखिलाना बेवजह
पान की दुकानों पे
यों ही बतियाना बेखौफ
वह चांदनी, वह हवा
उन्मुक्त नीला आकाश
अंधेरे को चीरकर उगता हुआ
सूरज
मां के आंचल सी फैली
धरती
कहां गए वे पीली सरसों के खेत
जरा ढूंढो तो।