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02 March 2015

शायर! ओ शायर!

आउटलुक

छोटी बहर से बुहार तो दो बदकिस्मती घर की

रदीफ-काफिये की जुगत से नहीं आता महीने का सौदा

बिजली का बिल नहीं जमा हुआ अब तक

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अपनी गजलों से चांद नोच कर घर में जरा रौशनी कर दो तब जानूं

प्याज का दाम आसमान छू रहा है

अब कहो इरशाद!

या हाथ बढ़ा कर आसमान से किलो भर प्याज ही तोड़ लाओ

कमजोर नजर का चश्मा है उसका

जिसके कांच दरका कर भरे तुमने अपने शराब के प्याले

किनारे रखो वो गिलास और दो चम्मच कफ सिरप पी लो

खांस रहे हो चार दिन से

और कहते हो चार ही तो दिन मिले

दो आरजू के दो इंतजार के

छाती के बाल हैं कि मकडिय़ों का जाला है

कौन मकड़ी थी वो जो बुन गई है घर अपना

टीस की सींक फंसा कर अपने सीने में

एक उम्र से कलेजा सेंक रहे हो इश्क-अंगीठी पे

इन चटोरे लोगों का क्या

आते हैं, कबाब चट कर फुर्र हो जाते हैं

जलाते ही जाते हो दिल अपना बिना ये समझे

कि ऐनक वाली असल में जाली थी

समझती थी खूब कि भुने दिल वालों के यहां ही तो भुनाए जाते हैं

हर तरह के जाली नोट

भूल जाओ उस चेहरे को ठीक वैसे ही

जैसे भुला चुके हैं हम अपने जीवन से चित्रहार, संतरे वाली गोली,

सिगड़ी, चवन्नी, रेडियो सिलोन या आंगन की तुलसी

गालिब-मीर से भी कहो कि अब जाएं अपने-अपने घर

घरवालियां परेशान होती होंगी

अपने ही घर को देख लो जरा!

चार बरस से जाम हैं खिड़कियों के गुटके

कैसी बरसात थी उस साल की भी

लकडिय़ां सूजने पे आईं थीं

बंद नहीं होते घर के दरवाजे- खिड़की

दाढ़ी पर तितलियों को बाग का वहम है

तितलियां उड़ती हैं घर भर में

खिड़कियों की मरम्मत करनी है

चलो! शादी का एल्बम देखते हैं

अरे याद आया

फोन करना है इक पुतइये को

रंग-रोगन करना है दुर्गा पूजा से पहले

कहां-कहां से तो चटक गई हैं दीवारें

उठो तुम भी

पीली पड़ती बातों को अब और न चमकाओ

बेटी के हाथ पीले करने हैं

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TAGS: बाबुषा कोहली, कविता, भारतीय ज्ञानपीठ, नवलेखन पुरस्कार
OUTLOOK 02 March, 2015
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