Advertisement
30 November 2015

मणि मोहन की कविताएं

गूगल

सुबह

आज फिर खुली रह गई

नींद की खिड़की

Advertisement

आज फिर घुस गया

बेशुमार अंधेरा भीतर तक

आज फिर जहन में

तैरते रहे

शब्द और सपने

अंधकार की सतह पर

आज फिर

सुबह हुई

इस अंधेरे को

उलीचते-उलीचते।

पुताई करते हुए एक खयाल

कितनी भी दक्षता और तन्मयता के साथ की जाए घर की पुताई

रह ही जाते हैं

कुछ कोने खुरदरे

जो हर बार रंगीन होने से बच जाते हैं

पेंट की आखरी बूंद खत्म होते ही

अचानक हमारी निगाह पड़ती है

इन छपकों पर

और ये मुस्कराते हुए जान पड़ते हैं

मानो कह रहे हों

बची रहने दो

घर में थोड़ी सी जगह

दुख और उदासी के लिए भी।

दु:स्वप्न

देखना एक दिन

नदी आएगी

हमारे शहरों में

गुस्से से फुंफकारती

और बहाकर ले जाएगी

अपनी रेत

देखना इसी तरह

किसी दिन

समुद्र भी घुस आएगा

हमारे घरों में

और बहाकर ले जाएगा

अपना पूरा नमक

देखना किसी दिन

सच न हो जाए

इस अदने से कवि का

यह दु:स्वप्न।

ज्ञानी जी

सुनो ज्ञानी जी!

एक ज्ञान की बात सुनो

जिस स्त्री के साथ रह रहे हो तुम

पिछले तीस बरस से

वह तुमसे प्रेम नहीं करती

सुनो ज्ञानी जी!

एक भेद की बात सुनो

इस स्त्री के मन में

एक अंधेरा कोना है

जहां एक लाश सड़ रही है

बरसों से

और अब अंतिम बात

मैं इस स्त्री से...

खैर जाने दो

क्या फर्क पड़ता है

तुम तो मर चुके हो

बरसों पहले।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोरसे
TAGS: poem, mani mohan, कविता, मणि मोहन
OUTLOOK 30 November, 2015
Advertisement