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28 October 2015

जीवन की कविताएं

जगह

अब जगह कम पड़ती जा रही है

इस पृथ्वी पर और घर में

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जैसे कबूतर का खोप हो कोई यह दुनिया

कुछ भी रखना हो तो सोचना पड़ता है जगह बनाने के लिए

कोई आए रात-बिरात तो मुश्किल होती है

जबकि घर तो उतना ही बड़ा है और आदमी कम

कई कमरे हैं फिर भी दम घुटता है

हाल के वर्षों में इतना सिमट गया सब कुछ कि छोटा लगता है

क्या घर भी सिमट रहा है अब खाने की थाली की तरह

कभी-कभी सोचता हूं तो हैरानी होती है

चीजों से भर गया अब समय

घड़ी की सूई भी इसके भय से तेज भाग रही है

वहां भी रखा जा सकता है कुछ

इतनी बढ़ी जरूरत

सामान कोई आए तो खुशी से झूमता है घर, उत्सव मनाता है

और आए कोई आदमी तो मन खीज से भर जाता है

कि क्यों आया यह?

फिर लोग उसके जाने का इंतजार करते हैं

वह जाए तो थोड़ी सी जगह खाली हो।

बांध

अब बढ़ रहा है पानी नदी का

जिस बांध को बनाया हमने

वह टूट जाएगा

फिर बह जाएंगे सारे घर

बस्ती लापता हो जाएगी चीख पुकार के साथ

तबाह हो जाएगा सब कुछ

जब टूटेगा भुरभुरी मिट्टी का बांध।

तैयारी

आज रंग जाएगा सबकुछ पहली बार

कोई जगह खाली नहीं बचेगी

कहीं सन्नाटा नहीं होगा कहीं उदासी नहीं होगी

इतनी खूबसूरत हो जाएगी दुनिया धरती पर खिले पहले फूल के साथ

आज रंग में डूब गई हैं नन्हीं सी उंगलियां

पहली बार!

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TAGS: sahankaranand, bhartiya bhasha parishad, bodhi prakashan, शंकरानंद, भारतीय भाषा परिषद, बोधि प्रकाशन
OUTLOOK 28 October, 2015
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