24 April 2015
विरह में दो मंत्र
अंगूठे और तर्जनी की योग-मुद्रा से उसे आभार दें
यहाँ पहुँच अब वापसी मुश्किल है
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रास्ते की चिप-चिप
और भीतर की सन-सन
अन्दर धकेलेगी
खून में चाहना के व्यग्र घुड़सवार
दौडेगें सरपट
पता भी नहीं चलता
गर्भ-गृह के द्वंद्व में जन-जन
तन-मन हिलता
वहां जहाँ गिरता दूध जमा हो रहा है
और गल रहे हैं फूल,बेलपत्र
वह एक आकृति है
त्रिभंगी और लसलसी
वह बिस्तरों की स्मृतियों में भी सनातन है
सुडौल वे
सनातन काल से वहीं जमें हैं
पत्थर के चाम हो गए हैं
पर कितने साफ़ हैं धारणा के उनके संकेत
कितना समान है कि
बिस्तरों में उस कामना के बाद
जागना नहीं
और जागरण इस प्रार्थना के बाद भी नहीं
कर्म के बस दो अलग-अलग स्वर हैं
आस्था और वासना
श्रेयस और प्रेयस
बस विरह में दो मंत्र-
ओह मेरे प्यारे शिवा !
ओम नमः शिवाय !!