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15 May 2015

कविता - जन्नत न जाने पाए

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अरे भाई, कोई पूछेगा

क्या हुआ उन मुद्दों का

जिनके लिए आई-गईं सरकारें

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तो क्या बताओगे

वो चमकदार पारदर्शी हीरा

कैसे दरक गया तख्ते-ताऊस पर गिरते ही

संतरे की फांकों में क्यों बिखर गया आम

दावा नवाचार का कैसे बदला झूठे प्रचार में

हवा की सारी रंगीनी  क्यों कर उतरी दिलों में

बन संशय की गमगीनी

थूक गटकते कहेगा कोई

कुल-गुरू के चश्मे का पावर इतना गलत था कि

कश्मीर और कन्याकुमारी के बीच दीखता था उन्हें फर्क

कि कटी नहीं थी नेता की मूंछे दोनों तरफ एक बराबर

और जहां बड़ी  मूंछों की तरफ वालों के कान पतले थे

वहीं छोटी मूंछो की तरफ वालों की जुबाने लंबी

हो सकता है

सारा टंटा किसी जोकर द्वारा फैलाया

मामला कुर्सी का न होकर मर्जी का हो

या केवल साथ रखे बर्तन टनटनाएं हों

फिर भी खुश होने से पहले

जरूरी है देखना समझना और परखना

शातिर बाजीगरों के उस बदनाम कौशल को

जिसमें हुआ जाता है सिंहासनारूढ़

और साथ ही रखा जाता है उसे खाली भी

आती हुई जनता के लिए

उछाले जाते हैं ताज

बदलते हुए इस निपुणता से

कि नौ तो हवा में रहें और दसवां सदा सिर पर

ताकि  वे रिंद1 के रिंद रहें

और उनके हाथ से जन्नत भी न जाने पाए

फिलवक्त तो

बैचेन लोगों के लिए

‘आए कुछ अब्र2 कुछ शराब आए

फिर आए जो भी अजाब3 आए...’

1.            शराबी

2.            बादल

3.            तकलीफ

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TAGS: poem, upendra kumar, कविता, उपेन्द्र कुमार
OUTLOOK 15 May, 2015
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