वीरेन दा जब तुम्हारे न रहने की खबर आई
एक
सितंबर की चमकती धूप में
नहा रहे थे हरे पत्ते, पौधे, पेड़
और रंग-बिरंगे फूल
कुछ उसी तरह
जैसे तुम्हारी कविताओं की रोशनी में
और उनके स्पर्श से
हमारी आत्माएं निखर आती हैं
हम सब भीतर से कुछ चमक जाते हैं।
यह सुबह साढ़े आठ बजे का समय था वीरेन दा
जब मैं एक सफर पर निकला था
और तभी मिला तुम्हारे बहुत दूर निकल जाने का संदेश।
जैसे सारा दृश्य एक बार थरथराया और जड़ हो गया
धूप बुझ गई, पत्ते काले पड़ गए, फूल मुरझा गए, रास्ते खो गए, सफर बेमानी हो गया,
तब उस अंधेरे में यह तुम्हारे शब्दों की ही उजली देह थी
जिससे किसी बच्चे की तरह कस कर चिपट गया मैं
जिसकी उंगली थामकर तुम्हारी कविताओं के जंगल में भटकता रहा देर तक।
तुमने कहा है, इसलिए आएंगे उजले दिन,
लेकिन यह उजला दिन नहीं था।
दो
तब तुमसे बात करने की
बहुत गहरी इच्छा ने जकड़ लिया मुझे
जो कातर रुलाई में बस बदलते-बदलते रह गई
हमारे बीच न जाने कितनी स्थगित मुलाकातें रहीं
न जाने गपशप की कितनी अधूरी छूटी कामनाएं
आत्मीयता और गर्मजोशी का वह छलकता हुआ समंदर जो तुम थे
न जाने कितनी धाराओं और नदियों को समाता रहा
अपने में
अक्सर दूर खड़ा रहा मैं
देखता रहा तृप्त भाव से वह लीला
और उसी से भरता रहा अपने अभाव को
मगर अब परदा गिर गया है
बत्तियां बुझ गई हैं
फिर भी एक छाया की तरह चल रहा है कोई
जिसे छूना चाहता है मन।
यह कौन है वीरेन दा?
तीन
वह एक और मन था राम का जो न थका
नीला आईना बेठोस टूट गया
अब तक न खोजी गई अभिव्यक्ति गुम हो गई
तुम्हारे जाने से याद आए वे सारे पुरखे
जिन्होंने तुम्हारे साथ मिलकर गढ़ा है मुझे चुपचाप
वहां जाना तो बताना
बहुत बेनूर होती जा रही हिंदी की दुनिया
अब भी दाढ़ी वाले सप्तर्षियों की बदौलत अपनी फकीरी और फक्कड़ता पर अभिमान करती है
कि ऐसे संसार में, जो अपने खाए-पिए, अघाए घमंड
के साथ सबको देखने और कुचलने का अभ्यासी हो चला है
तुम्हारी कविताएं बची हुई हैं जिनमें इस अहंकार को ठोकर मारने का साहस है
और पाने-खोने के खेल से परे
जीवन की वह सहज महिमा जिसे चूहे कुतर नहीं पाएंगे।
इसी से बनता है भरोसा कि उजले दिन आएंगे
मगर यह उजला दिन नहीं था कवि हमारे, रचयिता हमारे,
हर दुष्चक्र के पार जा चुके सृष्टा हमारे।