रविवारीय विशेष: दिव्या विजय की कहानी-बिट्टो
आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए दिव्या विजय की कहानी। कच्ची उम्र के आकर्षण और अनगढ़ भावनाओं के साथ दुनियादारी की चालाकियों से बेफिक्र कहानी की नायिका समाज के एक नए रंग को दिखाती है। यह कहानी समाज के उस नजरिये को भी दोहराती है, जहां लड़कियां हमेशा अपराधी है। निश्छल प्रेम और सादगी से भरी यह कहनी देर तक मन में किसी गोरैया सी फुदकती रहती है।
कभी-कभी जिंदगी में घटने वाले हादसे जिंदगी का विभाजन कर देते हैं। जिंदगी दो हिस्सों में बंट जाती है। एक हादसे के पहले वाली... दूसरी हादसे के बाद वाली। हर बात ऐसे ही याद रह जाती है... उस घटना की लकरी से कटी हुई। जैसे, नीलाभ हर बात यूं ही याद करता है, बिट्टो के पहले और बिट्टो के बाद।
छोटा सा कस्बा था। पेइंग गेस्ट जैसी सुविधाएं तब यहां प्रचलित नहीं थीं। किरायेदार को खाना खिलाने की आफत मोल लेना मध्यमवर्गीय घरों में नई बात थी जिसके लिए घर की स्त्रियां राजी नहीं होती थीं। नए आदमी का घर के भीतर प्रवेश सावधानी की दृष्टि से ठीक नहीं माना जाता था। जवान होती लड़कियां हर घर में थीं। एक अलग दरवाजे से किरायेदार का आना-जाना तय रहता और उसमें भी वक्त तय था। ज्यादा देर होने पर किच-किच होने की पूरी संभावना रहती थी। गुजरात में दूरांत स्थित इस कस्बे में 'बगैर खाने-पीने' वाले किरायेदार को ही तरजीह दी जाती थी। मकान पक्के थे पर कस्बे के मुहाने पर कच्चे मकानों की लड़ियां खेतों के संग संग पिरोई हुई चलती थीं। बैंक की परीक्षा पास करने के बाद नीलाभ को ट्रेनिंग के लिए पहली पोस्टिंग यहीं मिली थी।
घर पर जब डाक से यहां पोस्टिंग की सूचना मिली तो कुछ दिनों की जद्दोजहद के बाद आखिर उसने यहां आने का निर्णय ले ही लिया। मां साथ आना चाहती थी पर उसने मना कर दिया। बाबूजी अकेले कैसे रहते? मां की चिंता थी हमेशा घर में रहा बेटा कैसे बाहर अकेला रह पाएगा। बाहर का खाना खाते ही बीमार जो पड़ जाता था। फिर हमेशा की तरह बाबूजी ही समस्या का समाधान ढूंढ़ लाए। बाबूजी के ऑफिस में रामधन जी हेडक्लर्क हैं, उन्हीं के रिश्ते की बहन रहती हैं वहां। बाबूजी ने जब उनसे जिक्र किया तो उन्होंने उसी वक्त बहन से बात कर किराये के कमरे की और खाने-पीने के टिफिन की बात भी कर डाली। खाने का नाम सुन उन्होंने थोड़ी ना-नुकुर जरूर की पर फिर मान गईं। मां ने गली वाले हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया और बाबूजी मिट्ठन हलवाई की जलेबियां बंधवा लाए। मां उदास होते हुए भी अब सहज थीं और बाबूजी उसका होल्डाल बंधवाते हुए संतुष्टि से मुस्कुरा रहे थे।
स्टेशन छोड़ने आए बाबूजी ने उसका गाल थपथपाते हुए कहा था, "मन लगाकर काम करना, नई नौकरी है आने की जल्दबाजी मत करना। हमारी चिंता में मत घुलना। थोड़ा-सा वक्त है, पलक झपकते ही बीत जाएगा।" उसने गर्दन हिला दी और नम आंखें छिपाने के लिए हाथ में पकड़ी किताब में चेहरा घुसा लिया। वो पहली बार घर से बाहर जा रहा था। मां-बाबूजी बचपन से उसका सबसे बड़ा संबल रहे हैं। उसे कभी उनसे कोई शिकायत नहीं रही। जहां उसके बाकी दोस्तों की अपने माता-पिता से विचार न मिलने के कारण तनातनी रहती थी वहीं उसकी बातें मां-बाबूजी से बेहतर तरीके से कोई समझता ही नहीं था। उसने जीवन के सबसे अच्छे पल अपने घर में उन्हीं के साथ बिताए थे। उसे अपने भीतर अकेलापन उगता महसूस हुआ। बैग की बाहरी जेब में खोंसी हुई बोतल निकालकर उसने पानी के दो घूंट भर जैसे गले तक आ पहुंचा अकेलापन भीतर ठेल दिया।
रात-भर के सफर के बाद जब वो छोटे से स्टेशन पर उतरा तो बीते दिन का उदास कोहरा कुछ हद तक छंट गया था। वहां उतरने वालों में वो अकेला यात्री था। स्टेशन के नाम पर टीन की शेड थी, जिसके नीचे स्टेशन बाबू की मेज-कुर्सी थी। बगल में एक तिपाई पर कपड़े से लिपटा घड़ा था जो उस वक्त उघड़ा पड़ा था। रेल की पटरी के साथ चलते खेतों में खड़े बिजूकों पर एक कुत्ता मुस्तैदी से भौंक रहा था। पास ही एक गड्ढे में भरे पानी में कुछ गौरैया पंख फैलाए नहा रहीं थीं। उसने उधर ही कदम बढ़ा लिए, आहट से भी गौरैया उड़ी नहीं, वो मजे से नहाती रही। थोड़ा आगे तांगे में जुता घोड़ा उनींदे तांगे वाले को लादे धीरे-धीरे इधर ही आ रहा था। वो उसी में सवार हो लिया, बाबूजी के हाथ का लिखा परचा निकाल पता तांगे वाले को बताया। वो उनींदा ही घोड़े को हांके चलता गया। रेलवे स्टेशन गांव की सीमा पर था। अंदर की ओर चलते हुए नीलाभ ने देखा कि सारा खुलापन हवा हो गया। खेतों के बीच बनी दस-बीस झोंपड़ियों के बाद मंदिर, और मंदिर के अचानक बाद ढेर सारे पंक्तिबद्ध पक्के मकान। मगर उनमें अब भी खाना चूल्हों पर ही पकता होगा क्योंकि दीवारों पर असल रंग के ऊपर एक और रंग पैबस्त था जो सिर्फ धुएं का हो सकता था।
कच्चे मकान, पक्के मकान पार कर एक और तरह के मकान थे जिन्हें छोटे-मोटे बंगले की उपाधि आसानी से दी जा सकती थी। बंगले यूं कि एक तो वे थोड़े बड़े थे, उनमें छोटे से बगीचे की गुंजाईश भी थी जहां किस्म-किस्म के पेड़-पौधे लगे हुए थे। उनकी बनावट भी भिंची हुई नहीं, खुली-खुली थी। गंदगी का नामो-निशान नहीं था और एक लिहाज से वे खूबसूरत थे। ऐसे ही एक बंगलेनुमा मकान के सामने जब तांगा रुका तो अनचाहे ही खुशी वाली मुस्कराहट में उसके होंठ फैल गए। बाबूजी पर एक बार फिर प्रेम उमड़ आया।
तांगे वाले को पैसे देकर जैसे ही उसने अंदर पांव रखा एक कोहराम उसके कानों से टकराया। एक लड़की बाल खोले बरामदे की सीढ़ियों पर सर पटक-पटक कर रो रही थी। उसके इर्द-गिर्द कुछ बच्चे उसे सांत्वना देने की मुद्रा में खड़े थे। एक ने नीलाभ को देखा तो उसे वहां से उठाना चाहा मगर लड़की ने उसका हाथ झटक दिया और दोगुने वेग से रोना शुरू कर दिया। लड़की का रोना हृदय-विदारक होते हुए भी अत्यंत मधुर था। नीलाभ स्वर की कोमलता से प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सका। वह वहां क्यों खड़ा है यह उसके चित्त से उतर गया। वह एकटक आवाज की दिशा में देखता रहा। आवाज का कोहरा नीलाभ के इर्द-गिर्द बिखर रहा था। लड़की के रोने की आवाज नीलाभ को अपने स्वागत में लगाई हुई बंदनवार सरीखी लगी। अपनी दीदी की ओर इस तरह घूरता पा एक बच्चे ने गुस्से में आंखें दिखाईं। नीलाभ अचकचा कर दो कदम पीछे हटा और दरवाजे के बाहर लगा घंटी का बटन दबा दिया।
घंटी बजते ही दो बातें एक साथ हुईं। उस लड़की ने सर उठाकर यूं आंखें तरेरीं गोया उसके रोने में नीलाभ ने खलल डाला हो। साथ ही सर का आंचल संभालती एक मध्यम वयस की स्त्री आ खड़ी हुई। यही शायद रामधन जी की बहन होंगी, नीलाभ ने अनुमान लगाया। वह क्षण-भर को ठिठकी खड़ी रहीं पर उसके साथ सामान देखते ही उनके मन में उसकी पहचान कौंध गई। फिर तो मायके से आए किसी व्यक्ति के लिए कोई भी स्त्री जितनी गर्मजोशी दिखा सकती है उतनी ही आत्मीयता से वो उसे अंदर लिवा ले गईं। जितनी देर में वह चाय-बिस्कुट लाई नीलाभ कमरे का मुआयना करता रहा। एक दीवार पर हाथ जोड़े लड़की की तस्वीर थी जिस पर 'शुभ दीपावली' लिखा था। दूसरी दीवार पर आले बने हुए थे जिनमे से कुछ पर सस्ते फूलदान रखे थे और कुछ पर ट्रॉफियां विराजमान थीं।
“ये सब हमारी बिट्टो ने जीतीं हैं। बड़ी होशियार है।” चाय की ट्रे लाती हुईं वह बोलीं। फिर उसके शहर का हाल यूं पूछने लगीं जैसे, वो शहर न होकर उनका कोई संबंधी हो। नीलाभ भी बिस्कुट टूंगते हुए प्रसन्न मन से उनके मोहल्ले की एक-एक गली से गुजरते हुए सारा हाल देने लगा। तब तक बाहर बरामदे से रुदन का स्वर सप्तम सुर को छूने लगा था। नीलाभ ने असहज होकर कमरे की खिड़की से झांका। उसकी असहजता को भांप उन्होंने हंसते हुए कहा, "हमारी बिट्टो जरा नरम मिजाज की है। सहेलियों से झगड़ा हो जाए तो तुरंत मन पर ले लेती है।” उन्होंने दरवाजे के पास जाकर आवाज लगाई, “बिट्टो तनिक अंदर तो आओ, देखो तुम्हारे मामा के यहां से आए हैं।"
बिट्टो तो अंदर नहीं आई पर एक बच्चा भागता हुआ आया और हांफते हुए सूचना दी,
"चाची, बिट्टो दीदी ने कुछ दिन पहले जो गुड़हल का पौधा लगाया था वो मर गया इसलिए बिट्टो दीदी का मन जरा खराब है।"
आखिरी बात उसने नीलाभ की ओर देख कर कही और न चाहते हुए भी नीलाभ मुस्कुरा उठा। बिट्टो की मां यह देखकर झेंप गई और शीघ्रता से बाहर जाकर बिट्टो को दबे स्वर में कुछ समझाया। इसके बाद सारी आवाजे बंद हो गईं और एक खामोशी पसर गई। नीलाभ को प्रतीत हुआ जैसे उसके स्वागत में लगी रंगीन झालरें यकायक तेज हवा चलने से उतर गई।
इस सन्नाटे को तोड़ने वाली बिट्टो के मां की पदचाप थीं। वो आहिस्ता से उनके पीछे हो लिया। बगल की गैलरी में सीढ़ियां थीं, ऊपर एक कमरा था जिसमें दायीं दीवार से सटा हुआ लकड़ी का एक छोटा पलंग और सामने की दीवार से लगी हुई एक मेज-कुर्सी थी। एक अलमारी भी थी जिसके पल्ले लटके हुए जरूर थे पर फिर भी पूरे कमरे में वह सबसे अधिक वैभवशाली नजर आ रही थी। पल्लों पर चॉक से उकेरे गए कुछ अमूर्त्त चित्र थे जो रंगों के बगैर भी आलीशान नजर आ रहे थे।
“ये हमारी बिट्टो की कारीगरी है। अभी साफ कर देती हूं।” कहते हुए उन्होंने अपनी साड़ी का पल्लू उठा लिया।
“नहीं नहीं...रहने दीजिए। ये बेहद खूबसूरत हैं।” नीलाभ ने उन्हें तुरंत रोक दिया। “तुम हाथ-मुंह धो लो। हम खाना तैयार कर भिजवाते हैं।” बिट्टो की मां हंसते हुए चली गईं। नीलाभ कुर्सी पर बैठा तो उसे मकान का फाटक नजर आया और छोटा-सा बगीचा भी, जहां मरा हुआ गुड़हल पड़ा था। गुड़हल बिलकुल बेजान और मुरझाया हुआ था। शायद उसका जीवन पहले ही खत्म हो चुका था पर किसी आस से बिट्टो ने उसे वहां से हटाया न होगा। कमरे के दूसरी ओर भी खिड़कियां थीं जहां से किसी स्कूल का बास्केटबॉल कोर्ट दीख पड़ रहा था।
कमरा उसे अच्छा लगा। कमरा ऐसा था जहां बगैर किसी व्यवधान के स्वयं के साथ रहा जा सकता है। यह सोचकर कि उसे पहली बार कमरा मिला है, जो पूर्ण-रूपेण उसका है वह उल्लसित हो उठा। वहां अपने शहर में उसके पास पढ़ने के लिए कमरा था पर उसमें कितना सामान मां ने अटा रखा था जिसे लेने गाहे-बगाहे वह चलीं आती। घर में मेहमान आते तो उसके कमरे में ठहरते और वह स्वयं मां-बाबूजी के कमरे में नीचे गद्दा बिछा कर सोता। यह सब याद कर स्नेह-भरी मुस्कराहट उसके होठों पर खिल आई। तनख्वाह का पहला चेक देखकर बाबूजी को कैसा लगेगा यह सोच वह रोमांच से भर गया। रात को बिस्तर पर लेटा तो थकन तारी थी। नई जगह का अजनबीपन, सामान जमाने की कवायद। खिड़की पर गिरती पेड़ों की परछाई से आकृति बनाते वो जाग के उस पार पहुंचा ही था कि कुछ आवाजों ने उसे घेर लिया। उसने खिड़की से झांका तो कोई कुदाल से मिट्टी खोद रहा था। धीरे-धीरे आवाजें धूमिल पड़ गईं और वह नींद में डूब गया। अगली सुबह बगीचे में मिट्टी का ऊंचा ढूह बना हुआ था और उस पर एक नया-नकोर गुड़हल का पौधा रोपा हुआ था। बिट्टो स्कूल जाने को तैयार उसे प्रेम से सहला रही थी। कल की पीड़ा को कितनी सरलता से निष्कृति दे उसने नए जीवन को मिट्टी में और अपने मन में रोप दिया था। बिट्टो की निष्कपटता पर उसका मन उष्णता से भर गया।
उसे देख बिट्टो भागती हुई भीतर गई और टिफिन का डब्बा ला उसे पकड़ा दिया। वो मुस्कराया और बैंक की ओर चल पड़ा। बैंक घर से अधिक दूर नहीं था। उसने देखा उससे कुछ दूरी पर बिट्टो भी चल रही थी। संभवतः उसका स्कूल भी निकट होगा। थोड़ा आगे चलकर उसने देखा कि बैंक और स्कूल की इमारतें समीप ही थीं। स्कूल देखकर उसे अपना बचपन याद हो आया और याद हो आई बाबूजी की। वह हर रोज उसे स्कूल छोड़ने जाते थे। उसका बैग भी सदा वही पकड़ते रहते। बड़े हो जाने के बाद भी। बाबूजी उसे बहुत चाहते हैं...सामान्यतः मां-बाप जितना अपने बच्चों को चाहते हैं उससे बहुत अधिक। उसके सतत निर्माण की प्रक्रिया में जितने भी सफल क्षण हैं उनका संपूर्ण श्रेय उन्हें जाता है। बिट्टो अपनी सलवार कीचड़ से बचाते आगे बढ़ गई। वह कुछ क्षण वहीं खड़ा छोटे बच्चों को देखता रहा फिर वह भी आगे बढ़ चला।
बैंक के लोग मिलनसार और हंसमुख थे। कुल जमा चार लोगों का स्टाफ, सभी अच्छे लगे उसे। ठीक ही बीत जाएगी यहां, उसने सोचा। पांच बजे बाहर निकला तो बिट्टो के स्कूल के बाहर भीड़ जमा थी। कोई मदारी करतब दिखा रहा था। बिट्टो भी उसे दीख पड़ी, बिट्टो की आंखें मदारी के करतब को फलांगती सामने किसी की आंखों में उलझीं थीं। उसने अनदेखा कर दिया और आगे बढ़ गया।
घर पहुंचा तो बिट्टो उससे पहले वहां मौजूद थी और घास पर लेटी शून्य में ताक रही थी। नीलाभ अपलक उसे देखता रहा, उसे महसूस हुआ जैसे निर्जन वन में कोई पक्षी अकेला कूक रहा हो। बचपन में कक्षा में साथ पढ़ने वाली जिस लड़की को वह चुपचाप देखा करता था...उसे लगा वक्त लांघ कर किसी चमत्कार से वह यहां आ गई है। वो लड़की भी चुप-सी भावाकुल नेत्रों से कहीं ताका करती थी। नीलाभ ने अक्सर उसे यूं देखते पाया था। दो लोगों का भिन्न समय-काल में क्या एक-सा हो पाना संभव है? वह अचरज में डूबा बिट्टो की पलकों का कंपन देख रहा था। उसकी तंद्रा टूटी चाची की आवाज से। बच्चों की देखा-देखी बिट्टो की मां को वो भी चाची पुकारने लगा था।
“बिट्टो...ओ बिट्टो, यहां पड़ी-पड़ी क्या कर रही है। जा छत पर से कपड़े ले आ।" नीलाभ मन ही मन मुस्कराया...लोग कितने ख्वाब अजाने तोड़ देते हैं। लेकिन क्या जानने पर वे ख्वाब साबुत रह पाएंगे? बिट्टो दुपट्टा संभालती सीढ़ियों की ओर बढ़ चली और बिट्टो की मां मुस्कराती हुई नीलाभ से उसके दफ्तर के पहले दिन की खोज-खबर लेने लगी। उनकी बातों से उसे याद आया बाबूजी को फोन करना है। उसने चाची के फोन से दो घंटी घर पर दे दी। पलट कर बाबूजी का फोन आया तो वे सिलसिलेवार सारी बातें पूछते गए और वो सारा ब्यौरा देता गया कि जगह छोटी है मगर खुशनुमा है। लोग भी बहुत अच्छे हैं और वो बहुत आराम से है।
बाबूजी उसकी नौकरी से खुश हैं और सारे परिवार को गर्व से उसके बारे में बताते हैं कि पहली बार में ही उसकी बढ़िया नौकरी लग गई है। उसके सीधे- सादे बाबूजी जिन्होंने मास्टर की छोटी-सी तनख्वाह में जीवन गुज़ार दिया उनके लिए उसकी यह नौकरी छोटी बात नहीं है। यूं भी वो उनके जीवन का इकलौता स्वप्न है जिसे उन्होंने मन से सींचा है। अपने बाबूजी को खुश देखकर वो भी प्रसन्न है। वो सदा उनकी खुशी का बायस बनेगा...ख़ुद से किया हुआ यह वायदा आज उसने अपने मन में फिर दोहराया। कमरे से बाहर निकलने लगा तो जाल के पार आसमान में ताकती दो आंखें जाने कहां गुम थीं। कुछ ख्वाब किसी के तोड़े नहीं टूट सकते। इस उम्र के ख्वाब शायद ऐसे ही होते हैं। वो क्षण-भर को ठहरा फिर आगे बढ़ गया।
अब वो अक्सर बिट्टो को कभी पढ़ते हुए, कभी खेलते हुए देखता। कमरे की खिड़की से जो बगीचा नजर आता वही अक्सर बिट्टो का खेलघर बनता। बिट्टो के खेल भी निराले थे.. कभी तिनके जुटा घोंसला बना पक्षियों का इंतजार कि कोई पंछी उसे अपना बसेरा बनाएगा। कभी गिर गए फूलों को वापस शाख से जोड़ने का जतन कि उसका बगीचा गुलजार लगे। कभी भागते हुए किसी गिलहरी की पूंछ छू जाने पर बिट्टो की पुलक-भरी खुशी उसे पहली मंजिल पर महसूस हो जाती थी। उसका पढ़ना भी वहीं होता, किसी पेड़ की शाख पर अपना छोटा-सा लैंप लटका वहीं पढ़ने बैठ जाती। इस पेड़ का चुनाव भी काफी दिलचस्प होता। पहले वो समझ नहीं पाया था मगर रोज देखने के अभ्यास से वो समझ पाया कि जिस पेड़ की सुगंध उसे आकर्षित करती वो दिन उसी पेड़ के नाम होता। पढ़ते हुए कुछ दाने अपने इर्द-गिर्द बिखरा देती और बिलकुल स्थिर होकर चोर निगाहों से आने वाले पक्षियों को ताका करती। फिर औचक चौंका कर उन्हें उड़ा देती। पक्षियों की चौंक भरी फड़फड़ाहट बिट्टो की किलकारी में कैसे तब्दील होती यह देखना नीलाभ को प्रिय हो गया था। वह बिट्टो की दिनचर्या से अनजाने ही जुड़ गया था। उसके अधिकतर कामों का समय बिट्टो से बंध गया था।
सर्दियों ने दस्तक दी थी। बिट्टो पढ़ते हुए ऊंघ रही थी। हाथ पर मूंगफली के दाने रखे थे कि भूले-भटके कोई गिलहरी हाथ पर चढ़ आए। नीलाभ बालकनी में बैठ अखबार पढ़ रहा था तभी बाइक के तेज हॉर्न से उसकी तंद्रा टूटी और बिट्टो उछल कर खड़ी हो गई। एक लड़का हेलमेट पहने खास अंदाज में हॉर्न देते निकल गया। मगर नीलाभ उन आंखों को पहचान गया, ये वही आंखें थीं, जिन पर एक रोज मदारी के करतब के पार बिट्टो की आंखें जा टिकी थीं। यह बात उसके अवचेतन में इतनी स्पष्ट थी कि मात्र थोड़े-से दोहराव ने दृश्य को निर्बाध उसके समक्ष प्रकट कर दिया। उसने बिट्टो की भीनी मुस्कराहट भी देखी तो वह बेचैन हो उठा। उस शाम बिट्टो खाने के लिए बुलाने आई तो उसने चाची को कहलवा भेजा कि वो बाहर जा रहा है।
बिट्टो ने हंसते हुए पूछा, "किसके साथ बाहर जाएंगे?"
उसकी हंसी ने उसे द्रवित किया या क्रोधित...उसे भी नहीं पता। वह बगैर कुछ कहे निकल गया। वह तय नहीं कर पाया किस ओर जाना है। वह अपने मन के अजाने ही स्टेशन वाली सड़क पर जा पहुंचा। फिर न जाने क्या सोच भीतर चला गया। आज स्टेशन बाबू अपनी जगह पर थे। सफ़ाचट बालों वाले तोंदियल आदमी..किसी बात पर ठहाके लगाते हुए। उनके आस-पास लोगों का जमावड़ा यूं लगा था जैसे कोई ख्याति-प्राप्त व्यक्ति आ पहुंचा हो। उस दिन जो स्टेशन चुप पड़ा था आज चहक रहा था। आज चारों ओर चहल-पहल थी। किसी ट्रेन का समय हो चला था और उस छोटे-से स्टेशन पर भी अफर-तफरी मच गई। आज सब कुछ व्यवस्थित था बस उसका मन बेतरतीबियों के बीच भटक रहा था। उसने सबकी नजरें बचाकर घड़े का ढक्कन हटाया और बाहर निकल आया। उसका यह कृत्य अतार्किक था। समान दृश्य-पटल रच देने भर से अतीत का सर्जन नहीं किया जा सकता।
रात गए वापस लौटा तो थका होने के बावजूद नींद नहीं आ सकी। वह देर तक बास्केटबॉल कोर्ट देखता रहा। एक दूधिया हैलोजन लाइट अंधेरे को चीर रही थी। बाकी सब कुछ थिर था। वह वीरान कोर्ट में बॉल थपकने की आवाज सुनने की असफल चेष्टा करता रहा। पीपल की पत्तियों की आड़ से कटे चांद को देखता रहा। रात का अपना ही साम्राज्य होता है, दिन के वक्त जो दीखता है, रात में और अधिक साफ दिखाई पड़ता है यह उसने पहली बार ही महसूस किया। उसे प्रतीत हुआ रात की आंखें होती हैं जो हम पर निगरानी रखे रहती हैं...हमारी सोच को पढ़ सकती हैं। यह सोचकर उसके बदन में सिहरन भर गई और उसने अपने मन को कुछ भी ने सोचने की सख़्त ताकीद कर दी। वह नहीं चाहता था कि उसके मन की इबारतें दिन के उजाले में सबको दीख पड़ जाएं। रात अपनी ख़ामोशी से गुलज़ार थी। दिन का शोर न जाने कहां सो रहा था। कोर्ट में कुछ पेड़ों की परछाईंयां दिखीं तो उसे लगा उसका मन वहां कुलांचे भर रहा है।
अगले कुछ दिनों में उसने बार-बार उस लड़के को देखा था। कभी घर के चक्कर लगाते हुए, कभी स्कूल से लौटती बिट्टो के पीछे आते। संभवतः आरम्भ में जिज्ञासावश यह सब बिट्टो को अच्छा लगा था। लड़के को देखते ही उस की सहेलियां उसे इशारा करतीं और हंस पड़तीं। उसके घर लौटते ही ब्लेंक कॉल्स का सिलसिला शुरू हो जाता। घर में सब हैरान-परेशान थे। जिस दिन सब इधर-उधर होते बिट्टो देर तक फ़ोन पर टंगी रहती। बिट्टो की हंसी में रहस्य का भाव आ गया था। उसकी आंखें अक्सर सड़क पर टिकी होतीं। चाची किसी काम के लिए कहतीं तो दस बार में सुनती। इन दिनों उसकी डांट खाने की आवृत्ति भी निरंतर बढ़ती जा रही थी। पर फिर भी बिट्टो प्रसन्न थी। उसकी चहक दोगुनी हो गई थी।
पर थोड़े ही दिनों बाद नीलाभ ने एक परिवर्तन लक्षित किया। बाइक की संख्या एक से दो और दो से कई में परिवर्तित हो गई। कभी वे लोग झुंड में आते कभी एक-एक कर। अजीब इशारे करते...चिल्लाते हुए निकल जाते. उनके आते ही मुहल्ल्ले वाले अपनी छतों से, खिड़कियों से झांकने लगते। उनकी वक्र दृष्टि किसी से छिपी नहीं रह गई थी। बिट्टो परेशान होने लगी थी। उसकी मुस्कराहट धूमिल पड़ने लगी थी। वह निरंतर किसी तनाव में रहती।
एक रोज नीलाभ ने बालकनी से लगी छत पर बिट्टो को अपनी सहेली से कहते सुना,
"वो लड़का मुझे अच्छा लगता था इसलिए मैंने उससे फ़ोन पर बात की मगर उसने अपने दोस्तों को न जाने क्या कहा कि सब मुझे देख भद्दे इशारे करते हैं। इन दिनों कई अनजान लोग फ़ोन करने लगे हैं। शायद उसने मेरा नंबर सबको दे दिया। मुझे घर से बाहर निकलते भी डर लगता है। यूं लगता है सब मुझे घूर रहे हैं।” ये सब बताते हुए वो रुआंसी थी।
बिट्टो की सहेली कहते हुए हिचकिचा रही थी। वह धीमी आवाज़ में बोली, “मेरे भाई ने बताया कि वे सब तेरे बारे में बहुत खराब बातें करते हैं। तूने सिर्फ़ फ़ोन पर बात की और वो न जाने क्या-क्या कहता है। तू उस लड़के से कभी बात मत करना।” झिझकते हुए उसने जोड़ा, “भैया ने यहां आने को मना किया है, तू किसी को बताना मत मैं यहां आई थी।”
बिट्टो क्षण-भर को हतप्रभ रह गई फिर उसकी आंखों में गाढ़े रंग की लकीर खिंच गई। उसने ठहरी हुई आवाज़ में कहा "मुहब्बत बेजा बात है।"
इसके कुछ ही दिनों बाद घर के भीतर कोई फूल और ख़त फ़ेंक गया। वो सामान हाथ लगा चाची के। उस दिन घर में ख़ूब कोहराम मचा था। शायद बिट्टो को चाचा-चाची से मार भी खानी पड़ी थी। बिट्टो की दबी सिसकियां उसने सुनी थीं। सुना तो उसने और भी बहुत कुछ था। गाहे-बगाहे हल्की-सी जान पहचान वाले लोग भी उसे टोकने लगे थे।
"कोने के शर्मा जी के मकान में किरायेदार हो न? आजकल की लड़कियां स्कूल पढ़ने तो जाती नहीं है। सुना है कि उनकी लड़की का स्कूल ही में किसी से..." फिर खीसें निपोर देते। नीलाभ का मन चाहता कि कहने वाले को वहीं गाड़ दे पर उसके सहमे-चुप्पे मध्यवर्गीय संस्कार आड़े आ जाते और वह सिर झुकाए निकल जाता। घर पर मातमी माहौल छाया रहता। चाची रोतीं कि ऐसी लड़की देने से अच्छा भगवान उन्हें निपूता रखता। उन लोगों के सामने पड़ने से वह बचने लगा था। उसे न जाने क्यूं लगता कि कहीं कोई उसे न गुनाहगार ठहरा दे। खाना भी वह अपने कमरे में खाता।
बिट्टो भी तो घर के अंदर रहने लगी थी। बाहर की दुनिया से उसका संबंध लगभग खत्म हो चला था। नीलाभ को लगा वो ठूंठ हो गई है। उसकी आंखों का रंग उन धुएं सनी दीवारों सा हो गया था जो उसने पहली बार इसी कस्बे में देखा था। कितने ही दिनों तक वो स्कूल नहीं गई थी। उसे मालूम था सब उसकी बातें करते हैं। एक रोज स्कूल के अध्यापक उनके घर आए, परिवार के साथ देर तक गुफ़्तगू होती रही।
अगले रोज़ कई दिनों बाद स्कूल यूनिफ़ॉर्म पहने वो उसकी बगल से निकली तो उसकी नज़रें नीचे थीं। उसने न पत्तों को सहलाया, न कोई गीत गुनगुनाया। बिट्टो ने कहीं पढ़ा था कि बात करने से पेड़-पौधे जल्दी बढ़ते हैं पर अब उसे उनके जल्दी बढ़ने की चिंता भी न थी। दो सफ़ेद कबूतर बग़ैर दाने के उसके क़रीब आ गए। उनको देखकर भी वो जड़ रही। सड़क पर कई फ़ीट के फ़ासले पर जैसे बिट्टो नहीं उसकी परछाई तैर रही थी।
नीलाभ को पहले वाली बिट्टो याद आई। जलप्रपात की भांति निर्बाध बहती बिट्टो। जड़ बिट्टो को देखना उसके भीतर का जीवन सोख ले रहा था। बिट्टो के मन की विचलन उस तक भी तो पहुंची थी। वही कहां पहले की तरह रह गया था। नीलाभ को उस घर की चुप्पी अखरती। उसे बिट्टो का खिलंदड़पन याद आता। वो अक्सर सोचता, कैसे छोटी सी बात जीवन का बहाव पलट देती है। अब बिट्टो वहां नहीं थी, उसे वहां एक सहमी-खामोश औरत दिखती थी। नीलाभ की ट्रेनिंग खत्म होने को थी। उसे वापस अपने शहर लौटना था। मां-बाबूजी उसकी प्रतीक्षा में थे। लौटने से पूर्व वह उसे फिर पहले की भांति देखना चाहता था पर उससे कुछ भी कह पाना कहां संभव था।
उसे याद आया बचपन में उसके रूठ जाने पर बाबूजी उसे मनाने के लिए छोटे-छोटे ख़त लिखा करते थे। उसने नोटपैड उठाया तभी एक चिड़िया उसके सर पर से गुज़री तो वह चौंक गया। उसकी चोंच धूप जैसी पीली थी और पैरों में एक मनका बंधा था। यह वही चिड़िया थी जिसे कुछ रोज़ पहले एक कौवे के मुंह में दबा देख बिट्टो छटपटाई थी और उसे बचाने के लिए दूर तक भागती चली गई थी। बगीचे की ओर खुलते मेहमानों वाले कमरे के रोशनदान में चिड़िया का घोंसला था। मगर उसने बच्चे को उसमें नहीं रखा था। उसकी मां कहती है कि पक्षी मानव-गंध पहचानते हैं। उनका छुआ हुआ अंडा या बच्चा अपने घोंसले में वे नहीं रखते। उसे बिट्टो ने बड़े जतन से पाला। छोटा सद्यःजात बच्चा बिट्टो के अथक प्रयासों से जी गया था। उसने खत में लिखी उसी चिड़िया की बात। वो उड़ना सीख रही थी..छोटी-छोटी उड़ान..एक डाली से दूसरी डाली तक की उड़ान।
बिट्टो के लैंप पर किसी ततैये ने अपना ढूह बना लिया था। वो कितने दिनों से यूं ही पड़ा था। किसी ने उसे न जलाया, न उसकी जगह बदली लेकिन वो जानता था बिट्टो ये ढूह देखकर भी उतना ही चकित हो जाएगी जितना वो तितलियों को देखकर होती है। उसने यह बात भी एक ख़त में लिख रख दी थी।
दुनिया के नक्शे पर नई-नई जगह ढूंढ़ उनकी बाबत सोचना और वहां की गलियों और लोगों की कल्पनाएं बुनना उसे बेहद पसंद था। नीलाभ ने बिट्टो को लिखा था कि तुम भी कभी ये कर देखना। कल्पनाएं जीवन को और भी प्रीतिकर बना देती हैं।
बिट्टो की एक पेंसिल कभी उसने बगीचे से उठाई थी। उसने लिखा कि कैसे बेजान चीज़ें भी ज़िंदा लोगों को क़ैद कर लेती हैं। कैसे उन्हें छूकर हम किसी की अंगुलियों का स्पर्श महसूस कर सकते हैं। उसने लिखा कि वह समझता है कभी-कभी सबके बीच रहकर भी सबसे छिप जाने को मन होता है। आंखों को धूप से बचाते चश्मे सुकूनदेह भले ही लगते हों मगर वह सब अस्थायी है। स्थायित्व खुले आसमान और धूप में ही होता है।
वह हफ़्तों तक ये ख़त संभाले रहा। कई दफ़ा सोचता बिट्टो को ये ख़त पकड़ा दे परंतु वह पुराने हादसे से ही अब तक उबर नहीं पाई थी। उसके लिए किसी नई तकलीफ़ का सबब वह नहीं बनना चाहता था।
आख़िरी दिन जाने से पहले उसने बिट्टो को लिखे सारे ख़तों का एक पुलिंदा बनाया, छत के एक कोने में मधुमालती की लतरें झूलती थीं। बिट्टो जब कहीं नहीं होती थी, वहां होती थी। वो ख़त नीलाभ ने वहीं रख छोड़े। सबसे विदा लेकर उसने पीछे मुड़कर देखा तो बिट्टो ठीक वहीं नज़र आई थी।
एक कोने में क़ायदे से रखे हुए ख़त बिट्टो को मिले थे। आखिरी ख़त में लिखा था, "मुहब्बत बेजा बात नहीं है।"
दिव्या विजय
जन्म - 20 नवंबर, 1984
वॉयस ओवर आर्टिस्ट दिव्या का बचपन अलवर में बीता। उनकी कहानियों और रवानगी भरी भाषा में उनकी अध्यापिका मां और कवि नाना की झलक मिलती है, जिनके सान्निध्य में उन्हें लेखन का माहौल मिला। बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, दिव्या की कहानियों में प्रकृति का खूबसूरत वर्णन रहता है। सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर। फिलहाल जयपुर में रहती हैं। राजपाल ऐंड संस से प्रकाशित उनका पहला कहानी संग्रह, 'अलगोजे की धुन पर' बहुत चर्चित और प्रशंसित संग्रह है। मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट, मुंबई लिट-ओ-फ़ेस्ट 2017 में सम्मानित होने के अलावा उन्हें ‘अलगोज़े की धुन पर’ के लिए 2019 का स्पंदन कृति सम्मान और ‘सगबग मन’ के लिए 2020 का कृष्ण प्रताप कथा सम्मान मिला है।