रविवारीय विशेष: गोविंद उपाध्याय की कहानी सुबह की चाय
आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए गोविंद उपाध्याय की कहानी। पत्नी की मृत्यु और सेवानिवृत्ति के अकेलेपन की पीड़ा को दर्शाती यह कहानी, बताती है कि अकेलेपन को कभी एकांतवास में नहीं बदलना चाहिए। चाय बनाने में कामयाबी से लेकर दोस्तों के संग-साथ से एकांत को जीतने की कथा कहती मार्मिक कहानी।
विष्णु इस समय रसोई घर में थे। चूल्हे पर चाय खौल रही थी। पास में ही मोबाइल पर यूट्यूब पर गाना बज रहा था, रात कली इक ख्वाब में आई और गले का हार बनी...। चाय बनाने का उनका सीधा सा हिसाब था, एक कप से थोड़ा कम दूध, एक कप पानी, थोड़ा सा अदरक और आधा चम्मच चाय की पत्ती। सात-आठ मिनट खौलने के बाद एक कप चाय तैयार हो जाती है। जाहिर है कि वह केवल दूध की चाय होती है। शुरू-शुरू में ज्यादा खौल जाती थी, तो एक कप से भी कम चाय तैयार होती थी। पूरे पंद्रह दिन के अभ्यास के बाद, अब वह बढ़िया कड़क चाय बनाने में सिद्धहस्त हो गए थे।
इस समय सर्दी चरम पर थी। पांच बजने ही वाले थे। उन्होंने सुबह का टहलना बंद कर दिया था। नौ बजे के बाद पूरी तैयारी के साथ आधे घंटे के लिए निकलते थे, तब तक कोहरा छंट चुका होता था। यदि धूप निकल गई होती तो तापमान भी थोड़ा सा बढ़ जाता था। तभी व्हाट्स ऐप पर नोटिफिकशन की आवाज आई। चौहान ही होगा, उसे उनकी चाय का इंतजार रहता है। हां, वही था। वे मैसेज पढ़ने लगे, “अबे विष्णु! गुरु घंटाल! क्या हुआ? अभी तक तेरी चाय नहीं आई।”
चौहान उनका सबसे करीबी दोस्त था। अंग्रेजी वाले मास्टर साहब ने उनका नाम गुरु घंटाल रख दिया था। चौहान को छोडकर सब उन्हें गुरु बोलते पर चौहान उन्हें गुरु घंटाल ही कहता था। दस साल अमेरिका में रह चुका था। अब रिटायरमेंट के बाद ग्रेटर नोएडा एक्सटेंशन में रह रहा था।
उन्होंने खौलती चाय कप में उड़ेल कर उसकी फोटो खींचकर व्हॉट्स ग्रुप में भेजते हुए लिखा, शुभ प्रभात मित्रों। गरमा गरम चाय के साथ मधुर संगीत का आनंद लें। उसके बाद उन्होंने रात कली...’ वाला गाना भी लोड कर दिया। किचन बंद करके वे बेडरूम में आ गए और चाय की चुस्कियां लेने लगे। यह व्हॉट्स ऐप ग्रुप उनके सहपाठियों का था। जिनके साथ बचपन की देहरी लांघ कर उन्होंने जवानी में कदम रखा था। सभी उनकी तरह वरिष्ठ नागरिक हो चुके थे या बस होने वाले थे। यह ग्रुप पिछले दो सालों से चल रहा था, लेकिन विष्णु अभी दो महीने पहले ही शामिल हुए थे। इसका एडमिन प्रदुमन था, जो कनाडा में रहता था। ग्रुप में पैंतीस से ज्यादा लोग थे। अधिकांश विष्णु के जाने- पहचाने थे। कुछ लोगों को पहचाने में वे असफल भी रहे थे। समय के धूल की परत इतनी मोटी थी कि झाड़-पोंछने के बाद भी वे कुछ लोगों को पहचानने में सफल नहीं हो पाए। उनके पास समय ही समय था और यह ग्रुप समय काटने का अच्छा साधन था। चौहान, त्रिपाठी, खान सबने उनका स्वागत किया। वे सब मिलकर पुरानी स्मृतियों को ताजा करते।
विष्णु, सरकारी नौकरी से कुछ माह पहले ही रिटायर हुए थे। लेकिन सेवानिवृत्ति के डेढ़ महीने पहले उन्होंने अपनी पत्नी वीणा को खो दिया था। उनके लिए यह बहुत बड़ा झटका था। बड़ी मुश्किल से वे इससे उबर पाए थे। वीणा का पैंतीस वर्षों का साथ रहा था। इन पैंतीस वर्षों में तमाम आदतें बनी-बिगड़ी थीं। उनमें से एक सुबह की चाय भी भी थी। पांच बजे वीणा चाय की प्याली के साथ किसी तानाशाह की तरह उनके सिरहाने आकर खड़ी हो जाती, “चाय...।”
फिर बिस्तर छोड़ना विष्णु की मजबूरी हो जाती थी। वे बिस्तर से उठकर जब तक वीणा के हाथ से चाय की प्याली नहीं पकड़ लेते थे, वह ऐसे ही खड़ी रहती थी। इति या श्रुति के पैदा होने के समय कुछ दिन जरूर इसमें व्यवधान पड़ा लेकिन तब सुबह की चाय का जिम्मा अम्मा संभाल लेती थीं। दो-चार दिन किसी शादी-विवाह में कहीं जाना पड़ता, तो उन्हें सुबह की इस लत के कारण परेशानी उठानी पड़ती थी। पेट ठीक से साफ नहीं होता। सारे दिन पेट में एक अजीब सा भारीपन बना रहता था।
वीणा की मृत्यु बाद कुछ दिन नाते-रिश्तेदारों का जमघट लगा रहा। छोटे भाई की पत्नी उनकी इस आदत से वाकिफ थी। इसलिए सुबह पांच बजते ही उनके हाथ में गरम प्याली आ जाती थी। पंद्रह दिन घर में खूब हलचल रही। मृत्यु भोज की औपचारिकताएं समाप्त होने के बाद सभी नाते-रिश्तेदार चले गए। अब घर में सिर्फ श्रुति और उसका दो साल का बेटा रह गए थे। तब उनकी नौकरी के दो माह बचे थे। बच्चों को उन्हें अचानक इस तरह अकेला छोड़ना ठीक नहीं लगा था। हालांकि वह मना करते रहें, “अरे मैं रह लूंगा। मेड तो आती है न...।”
लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी। दोनों बेटियों और दामादों ने मिलकर यह निर्णय लिया कि श्रुति अभी उनके पास रहेगी ताकि वह अकेलापन न महसूस करें और पत्नी की मृत्यु से लगे सदमे से उबर सकें। श्रुति को सुबह जल्दी उठने की आदत नहीं थी। इसलिए पांच बजे की चाय उन्हें सात बजे तक मिलती थी।
वह बेटी को संकोच में बोल नहीं पाते थे। चाय के इंतजार में उनका सुबह का टहलना बंद सा हो गया था। विष्णु ने अपने मन को समझाया, “चाय कोई अमृत थोड़े ही है। बेकार की लत गले में लपेटे हुए हैं। चाय पीना ही छोड़ देते हैं। वो क्या कहते हैं कि न रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी। थोड़े दिन दिक्कत होगी, फिर हमेशा के लिए इससे पिंड छूट जाएगा।”
और उन्होंने चाय पीना बंद कर दिया। बिना चाय के सारा दिन रहना आसान नहीं था। पूरा बदन टूटता था। लगता था किसी ने शरीर के सारे जोड़ तोड़ दिए हैं। बीस साल पहले वीणा के कहने पर उन्होंने सिगरेट छोड़ी थी। तब भी कुछ दिन ऐसा ही हुआ था। सारा दिन बदन टूटता और थकान सी महसूस होती थी। तब वे झेल गए थे। इस बार ऐसा नहीं हो पा रहा था। श्रुति चाय के लिए अपने हिसाब से बनाए गए समय के अनुसार रोज पूछती और वे मना कर देते, “बच्चा अब मैं चाय छोड़ने का प्रयास कर रहा हूं। चाय पीना कोई अच्छी चीज थोड़े ही है।”
वे चार दिन में ही पस्त हो गए। उन्हें लगता कि शरीर में जान ही नहीं बची है। आंतो में एक अजीब सा खिंचाव महसूस करते। कब्ज की शिकायत रहने लगी थी। भूख भी ठीक से नहीं लग रही थी। आखिरकार उनकी इच्छाशक्ति जवाब दे गई। पांचवे दिन अचानक बारिश हो गई। तापमान गिर गया। शाम को श्रुति ने पकौड़े बनाए। पकौड़े खाते ही चाय की तलब हिलोरे मारने लगी। पकौड़ों के बाद जैसे ही श्रुति ने चाय के लिए पूछा वे मना नहीं कर पाए। चाय न पीने का उनका संकल्प धराशाई हो गया। मगर सुबह की चाय की समस्या तो वैसी की वैसी थी।
सेवानिवृत्ति के बाद ठीक सत्रहवें दिन दो घटनाएं हुईं। वे रोज की तरह चार बजे उठ गए थे। कंबल में लिपटे सोचते रहे, श्रुति हमेशा तो उनके पास रहेगी नहीं। उसका अपना परिवार है। नौकरानी आठ बजे से पहले आ नहीं पाएगी। सिर्फ दूसरों के भरोसे रहने पर जिंदगी कठिन हो जाएगी। अपने छोटे-मोटे काम उन्हें स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए। इस विचार के मन में आते ही विष्णु तत्काल बिस्तर छोड़कर खड़े हो गए। विष्णु ने पहला काम सुबह की चाय से शुरू किया। उन्होंने किचन का दरवाजा खोला। चाय के लिए बर्तन लिया, उसमें अंदाज से दूध, पानी और चाय की पत्ती डाली। दो-तीन बार के प्रयास में चूल्हा भी जल गया। दरअसल गैस के रेगुलेटर को समझने में देर लगी। रसोई घर की खटर-पटर सुन कर श्रुति भी आ गई, “अरे डैडी मुझे जगा दिया होता। मैं बना देती।”
विष्णु मुस्कराने का प्रयास करते हुए बोले, “सॉरी बच्चे...। मेरी वजह से तुम्हारी नींद में खलखल पड़ा। तुम जाओ। मुझे जरूरत होगी, तो मैं तुम्हे बुला लूंगा।”
श्रुति कुछ सेकंड पिता की गतिविधियों को देखती रही। उसकी आंखों में नींद भरी हुई थी। वो ज्यादा देर नहीं रूकी और अपने कमरे में चली गई। चाय खौल रही थी, तभी प्रदुमन का व्हॉट्स ऐप पर मैसेज आया, “हलो मित्र कैसे हो? यह हम सब मित्रों का ग्रुप है। मैंने तुम्हें भी इसमें शामिल कर लिया है। तुम्हारा स्वागत है मित्र, हमसे जुड़े रहो।”
उस दिन विष्णु ने पहली बार चाय बनाई और उसी दिन ‘मेरे प्यारे दोस्तों’ नाम के व्हॉट्स ऐप ग्रुप से जुड़े थे।
सुबह की चाय तैयार थी। विष्णु चाय को कप में छान रहे थे कि थोड़ी चाय किचन के प्लेटफार्म पर बिखर गई। उनके हाथ कांप रहे थे। चाय एक कप से थोड़ी ज्यादा थी। उन्होंने उसकी फोटो खींचकर ग्रुप में भेजते हुए लिखा, “दोस्तों! यह असाधरण चाय का कप है। आज जिंदगी में पहली बार मैंने चाय बनाई है। आज से मैं भी तुम सबके साथ हूं। मैं अब रोज सुबह की चाय के साथ मिलता रहूंगा। तुम सबका विष्णु।”
वे किचन बंद करके अपने बिस्तर पर आ गए। चाय का पहला घूंट लिया। एक अजीब सी तृप्ति मिली। उन्हें खुश होना चाहिए था। पर पता नहीं कैसे आंखें दगा दे गईं और दो बूंद न चाहते हुए भी गालों पर लुढ़क आए। उन्हें लगा वीणा उनके पलंग के सिराहने खड़ी है।
गोविन्द उपाध्याय
साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय से कहानी लेखन में सक्रीय। कुछ कहानियों का बांग्ला, तेलगू, ओडिया, कन्नड़ और उर्दू में अनुवाद। पंखहीन, समय, रेत और फूकन फूफा, सोनपरी का तीसरा अध्याय, चौथे पहर का विरह गीत, आदमी, कुत्ता और ब्रेकिंग न्यूज, बूढ़ा आदमी और पकड़ी का पेड़ चर्चित कहानी संग्रह।