रविवारीय विशेषः प्रज्ञा की कहानी चाल और मात के बीच
आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए प्रज्ञा की कहानी। तकनीक से प्यार और तकनीक के प्रति दीवानापन इस कहानी में बहुत सटीक तरीके से सामने आता है। नए गेजेट्स के प्रति लालच में फंसना फिर उससे उबरना...अरविंद की यह दास्ता बहुत ही रोचक है।
‘‘सरजी! टी.वी. की आवाज़ में वो मजा कहां जो मल्टीप्लेक्स के साउंड में आता है।’’
‘‘डॉल्बी सिस्टम है उस मज़े का नाम।’’ शादाब की अनभिज्ञता जानते हुए अरविंद ने कहा।
‘‘सरजी! आपके जितना जानता होता तो इस गारमेंट फैक्ट्री में इतना जूनियर नहीं होता।’’
शादाब, अरविंद के सूचना-संसार से आतंकित होकर हमेशा ही चारों खाने चित हो जाया करता था।
‘‘तो क्या सर, साउंड के लिए नए स्पीकर ले लूं?’’
‘‘साउंडबार का नाम सुना है तूने?’’
अरविंद ने कहा तो शादाब फिर बगलें झांकने लगा। उसने हर बार की तरह कंधे उचकाए और अपनी हैरानी भरी आंखों के आदेश पर गर्दन को नकार में तेजी से हिलाया। अरविंद के सामने तकनीकी ज्ञान बघारने का ढोंग भी फिजूल था।
‘‘सोनी की नयी साउंड बार ले आ और ले ले घर में सिनेमा हॉल के मज़े।’’
शादाब जानता था ऑफिस में अरविंद से ज्यादा नयी टेक्नालॉजी का ज्ञान किसी को भी नहीं है। हो भी कैसे? सुबह-शाम-रात दिन जब भी समय मिले, अरविंद नये से नये गैजेट्स के रिव्यूज़़़ पढ़ता रहता है। फोन में नये अपटेड देखता रहता है। इस विषय में उसकी भूख जैसे कभी खत्म ही नहीं होती। अपने दोस्तों में, रिश्तेदारों में उसकी धाक जमी हुई है। साले, बहनोई, भतीजी, सलहज जिसे भी नया फोन खरीदना हो तो सबसे पहले अरविंद को याद किया जाता है। जहां से हर किसी को तसल्ली बख्श जवाब मिलता है। अभी परसों की ही तो बात है अरविंद का साला रोहन घर आया। साले-जीजा में पटती भी गहरी है।
‘‘जीजू! हैडफोन खरीदने हैं। कौन से लूं? कुछ समझ नहीं आ रहा? आप तो एक्सपर्ट हो, बताओ न।’’ साले के सवाल पर अरविंद रीझ गया।
‘‘देख भाई! हेडफोन ब्लू टूथ वाले लेना। बेस्ट रहेगा। नयी टेक्नोलॉजी है। आगे यही चलेगी, फिर कंपनी तो देख।’’
रोहन दो घड़ी को मंहगी कम्पनी का नाम सुनकर चुप-सा हुआ तो अरविंद ने अपने चेहरे की भंगिमाओं से उसे झिंझोड़ते हुए कहा, ‘‘कुछ मत सोच भाई! नया मॉडल है। बारह घंटे का बैटरी बैकअप है और दाम सिर्फ दो हजार नौ सौ नियानवें। तेरी जगह मैं होता तो अभी खरीद लेता। आंख मूंदकर ले ले। ई.एम.आई. पर ले ले। अच्छी चीज घर आएगी और बोझ भी नहीं पड़ेगा। सुन क्रेडिट कार्ड से पेमेंट कर दे तो डिस्काउंट मिलेगा। अच्छा, मैं ही बुक करा देता हूं। तूभी क्या याद रखेगा।’’
अरविंद जिस तरह से हेडफोन की तारीफों के पुल बांध रहा था उसे न जानने वाला कोई भी आदमी ये बातें सुनता तो उसे पक्की तौर पर कंपनी का नम्बर वन सेल्स मैन मान लेता। रोहन संतुष्ट भाव से मुस्कुराया आखिर उसकी समस्या का हल जो हो गया था।
‘‘दीदी! सच कहता हूं अपने जीजू हीरा हैं। न जाने क्यों इस गारमेंट फैक्ट्री के झमेले में पड़े हैं। इन्हें तो यू ट्यूब पर होना चाहिए।’’
रुचि ने आंखें तरेरकर अपने छोटे भाई को देखा। वह पति की नौकरी और आमदनी से अपने घर की खुशियों का पुल बनाए पूरी तरह संतुष्ट थी पर अरविंद, साले की बात से सोच में पड़ गया। एक ठंडी आह के साथ बोला, ‘‘छोटे! ये तेरा भाई कर तो बहुत कुछ सकता है। मन भी है मेरा पर रिस्क उठाने के लिए तगड़ा बैक अप चाहिए यार। आखिर घर-परिवार भी देखना है।’’
‘‘सोच लो जीजू। हम सबकी नजर में तो आप टेक गुरु ही हो।’’
रोहन की तारीफों के आसमान में अरविंद बिंदास उड़ रहा था। जमीन पर उतरा तो छुट्टी के दिन का एक भरपूर हिस्सा खत्म हो चुका था। रोहन के जाने के बाद अरविंद को याद आया बॉस ने एक जरूरी काम उसे आज शाम तक हर हालत में खत्म करने को कहा था। याद आते ही वह डैस्कटॉप पर जा जमा पर ये क्या मॉनीटर पर एक बार रोशनी चमकी और गायब। अरविंद का दिल धक्क से रह गया। उसने सी.पी.यू. खोल लिया। सारे प्रयास करने के बाद वह बेतरह झल्लाया, ‘‘कंडम है, कंडम। कर लो काम कोई अब इस पर...बकवास है।’’
अरविंद को इस तरह गुस्से में झल्लाया देखकर रुचि सहानुभूति का फाया लिए ज़़ख्म की दवा करने को हाज़िर हो गई।
‘‘अरे! इसे ठीक करा लो न।’’
‘‘वो तो करा ही लूंगा पर इस समय क्या करूं? अब काम क्या खाक करूंगा?’’ अरविंद की चिड़चिड़ाहट आपा खोने लगी।
‘‘सारी दुनिया को सलाह देते फिरते हो कुछ अपने लिए भी कर लिया करो।’’ रुचि ने ठेठ भारतीय पत्नियों की तरह एक वाक्य में पति के सारे ज्ञान की हवा निकाल दी। पंचर मनःस्थिति से भी अरविंद ने जवाब दिया, ‘‘मशीन तो नयी लेनी पड़ेगी...एस.एस.डी.वाली।’’
‘‘कौन सी वाली?’’ रुचि की नासमझी ने सवाल उठाया।
‘‘अरे! तुम नहीं समझोगी। देखो एक होती है हार्डडिस्क...’’
‘‘क्या तुम ये हार्ड डिस्क, सॉफ्ट डिस्क की बात करते हो। घर भर रखा है, अटरम-शटरम चीजों से और मन है कि कभी भरता ही नहीं। हां, मुझे कोई जानकारी नहीं पर मैं इतना जानती हूं कि तुम्हारा काम ढंग से नहीं हो रहा तो तुम्हें कोई नया इंतज़ाम कर लेना चाहिए।’’
‘‘ले तो लूं पर मामला मंहगा पड़ेगा। इधर खर्चे ज्यादा हो रहे हैं। शादियां सर पर पड़ी हैं। बजट बिगड़ जाएगा।’’
‘‘जो तुम्हारे मन में आए करो।’’ आखिरकार रुचि ने इस मामले से अपना पल्ला छुड़ाया।
कुछ महीने बीमार डैस्कटॉप का इलाज कराकर बीत गए। नया इंतज़ाम अभी नहीं हो पाया था।
एक दिन ऑफिस में फुर्सत मिलते ही अरविंद आदतन फोन पर नए गैजेट्स तलाशने लगा। उसे अक्सर ऑनलाइन चीज़ें खरीदते देखनेवाले ऑफिस अटेंडेंट मनोज ने पूछ ही लिया, ‘‘सर! आप इतना ऑनलाइन खरीदते हो, आपको डर नहीं लगता? कोई आपके पैसे-वैसे न ले उड़े?’’
‘‘बात तो तेरी सही है। सावधान तो रहना चाहिए। आजकल लोगों में ईमान-धर्म कहां रह गया है? पिछले महीने धीरज का नौ हजार का सामान ऑनलाइन मंगवाया था। बंदा इतना बेशर्म है रोज ऑफिस आता है पर रुपया रीं-रीं करके चिंदी-चिंदी लौटा रहा है। नीयत लेते समय ही नहीं देते समय भी साफ रखनी चाहिए। ईमानदारी तो कहीं रह नहीं गई है आज।’’ अरविंद का मन धीरज की बात सोच कर कसैला हुआ और उसकी आवाज ने उसके बढ़ते पारे की तस्दीक की; उसने आवाज़ को संयत किया और फिर से काम में जुट गया।
शाम को काम से लौटते समय दिनभर की थकान दूर करने के लिए रोज की तरह अरविंद ने आज भी गाड़ी का स्टीरियो चला कर रोमेंटिक गाने लगा लिए। गाड़ी घर की दिशा में बढ़ी और अरविंद का पारा गाने की गहराई में उतरने लगा। कुछ देर में अरविंद सामान्य हो गया। बहुत देर तक तनाव को बोझ की तरह लादे रखने का वह आदी नहीं था। दिलकश शब्दों और लय से गाना अरविंद के मन और गाड़ी के माहौल को गुलजार कर रहा था। उसके इशारे पर अरविंद स्टेयरिंग पर हाथ रखे भी हौले-हौले झूम रहा था। जैसे ही आगे की रेड लाइट उसने पार की तो उसका ध्यान बगल से गुजर रही मोटरसाइकिल पर बैठे दो लड़कों की ओर गया। आगे वाला थुलथुल शरीर का था। हैलमेट की वजह से उसका चेहरा पूरा देख पाना मुश्किल था पर पीछे बैठा दुबला-पतला लड़का मुस्कुराते हुए हाथ का इशारा करके अरविंद से गाड़ी रोकने का अनुरोध कर रहा था। चलती सड़क पर अरविंद का दिमाग उस लड़के को पहचानने की पूरी कोशिश करने लगा। अक्सर उसके साथ यही होता है। लोग उससे मिलते हैं और वह उनको भूल जाता है। फिर पूरी शिद्दत से पहचानने की कोशिश करता है। लड़के की मुस्कान चैड़ी होती जा रही थी और हाथ का इशारा भी गाड़ी रोकने की भीख-सी मांग रहा था। अरविंद ने गाड़ी को आगे ले जा कर सर्विस लेन में खड़ा किया। लड़का अपने साथी को छोड़ कर तुरंत गाड़ी की ड्राइवर सीट की ओर लपका।
‘‘नमस्ते भैया।’’
‘‘नमस्ते।’’ अरिवंद ने लड़के को पहचानने की पूरी कोशिश में नमस्ते का सचेत जवाब दिया।
‘‘पहचाना नहीं न भैया आपने? आप रवि भैया हो न?’’
‘‘यार...रवि तो मेरा नाम नहीं है। तुम्हें जरूर कोई गलती हुई है।’’
‘‘ओह! भैया मैं बता नहीं सकता आपकी शक्ल रवि भैया से हू-ब-हू मिलती है। इसीलिए तो आपको देखते ही मैंने हाथ दिया था। गाड़ी रुकते ही आपसे मिलने भागा चला आया।’’ लड़का बोला।
‘‘कोई बात नहीं यार! हो जाती है ऐसी गलती।’’ उसे पहचानने की जद्दोजहद से निजात पाकर अरविंद इत्मीनान से बोला और उसने गाड़ी स्टार्ट की।
‘‘भैया! आपसे एक काम है।’’ लड़का गाड़ी के शीशे के बिल्कुल करीब आ गया।
‘‘मै तो तुम्हें जानता नहीं। मुझसे कैसा काम?’’ अरविंद ने दो टूक कहा।
‘‘थोड़ी देर की बात है भैया! पहले गाड़ी बंद कर लो।’’ लड़के के शब्दों में न जाने ऐसा क्या था कि अरविंद ने गाड़ी बंद कर ली और उसकी बात सुनने के लिए नज़रें उसके चेहरे पर गड़ा दीं।
‘‘भैया मेरे पास एक फोन और एक लैपटॉप है। क्या कहते हैं उसे हां मैकबुक आप ले लो।’’ लड़के का इतना कहना था कि अरविंद हिल गया, ‘‘क्या बात कर रहा है। सड़क पर कौन-से फोन और लैपटॉप बेचे जाते हैं? पागल समझ रखा है क्या तूने मुझे?’’
‘‘क्या बताऊं भैया! दोनों चीजें मेरे जानने वाले की हैं। उसकी देनदारी निकलती थी और उसे बाहर जाना था। चलते हुए ये चीजें मुझे दे गया। मुझे पैसे की सख्त जरूरत है। आप ले लो।’’ लड़के ने बात साफ की।
‘‘कहीं और बेच। मेरे पास नहीं हैं पैसे-वैसे। मैं क्या फोन-लैपटॉप खरीदने निकला हूं जो पैसे जेब में रखकर घूमूंगा?’’ अरविंद झुंझलाया ज़रूर पर गाड़ी बढ़ाकर आगे नहीं निकला। उसे खड़े देखकर लड़का दौड़कर अपने साथी से दोनों चीज़ें लेता आया। नई-नकोर पैकिंग देखकर अरविंद के मन में हलचल मच गई।
‘‘है क्या ये चीज़? कहां से है क्या है?’’ जो भी सवाल ज़ुबान पर आया अरविंद ने जस का तस रख दिया।
‘‘भैया! आप देख तो लो। आपको ठीक लगे तो ही रखना। कोई जबरदस्ती नहीं है। फोन तो देखो पहले। आई फोन सैवन है।’’ लड़के ने डिब्बा अरविंद की गोद में दे दिया। अरविंद ने डिब्बे को सांप-बिच्छू समझ कर लड़के के हाथों में धकेला।
‘‘अबे! नहीं चाहिए फोन। चोरी का है क्या?’’ अरविंद की जिज्ञासा अपने पूरे तेवर में झनझनाई।
‘‘क्या बात कर रहे हो भैया। आपको बेचूंगा? चोरी का फोन?’’ लड़का बिल्कुल न डरा।
‘‘सड़क पर तो ऐसा ही माल मिलता है।’’ अरविंद भी खामोश न रहा।
‘‘नहीं भैया! साफ माल है। मजबूरी है इसलिए बेचना पड़ रहा है। अच्छा हटाओ फोन ये देखो। मैकबुक है।’’ अबकी लड़के ने दूसरा डिब्बा दिखाया। अरविंद ने आंखें गड़ाकर देखा। डिब्बा एकदम नया था। एकबारगी अरविंद को लगा वह कोई सपना देख रहा है पर उसे हकीकत का एहसास दिलाते हुए लड़के ने ताबड़तोड़ डिब्बे से आजाद करते हुए मैकबुक ऑन करके अरविंद के हाथ में थमा दिया। एक चमचमाता पतला-सा मैकबुक अरविंद के हाथ में था। इस बार मैकबुक को अरविंद ने लेने से ना-नुकुर जरूर किया पर उसे सांप-बिच्छू नहीं समझा। अरविंद ने आनाकानी करते हुए भी उसे पलटकर देखा और सीरियल नम्बर देखकर आश्वस्त हुआ कि मशीन असली थी। उसके मन ने कहा कि चीज़ तो बिल्कुल खरी है पर लड़के से उसने कहा, ‘‘देख भाई! अपनी चीज़ रख अपने पास। मेरे पास पैसे-वैसे नहीं हैं।’’
‘‘अरे! भैया आप कुछ भी दे दो। मुझे तो अपने पैसे चाहिए थे। दोस्त ने ये थमा दिया। आप कुछ भी दे दो। जो दोगे मैं खुशी से ले लूंगा।’’ लड़के ने अरविंद पर अपना दबाव बनाया।
‘‘देख! फोन तो बेकार की चीज़ है मैं नहीं लूंगा।’’ अरविंद अड़ा रहा।
‘‘भैया! दोनों चीजें आपकी। ले लो। सही रेट मिल जाएगा आपको।’’
‘‘नहीं भाई! पैसे नहीं हैं मेरे पास।’’ अरविंद ने थोड़ा तिरछा होकर अपना पर्स निकालकर अपनी असमर्थता का प्रमाण दिया।
‘‘कोई बात नहीं भैया आप ए.टी.एम. से निकालकर दे दो। यहां पास ही तो है।’’ लड़के ने हार नहीं मानी।
‘‘नहीं भाई नहीं।’’ अरविंद के शब्द तो लगातार लेने में आनाकानी कर रहे थे पर उसकी उंगलियां लैपटॉप पर तेजी से फिर रही थीं। वह उसके फीचर्स देख रहा था। उसे चलाकर देख रहा था जैसे खरीदने से पहले पूरी तसल्ली कर रहा हो। लड़का बराबर अपनी बात पर अड़ा रहा और अरविंद का अड़ियलपन पिघलने लगा।
‘‘कितने में देगा इसे? देख फोन नहीं लूंगा इसके बड़े टंटे होते हैं। कल को तू ही आ जाएगा मांगने वापिस तो?’’ अरविंद किसी समझदार वकील की तरह बोला।
‘‘जो आपके पास हों दे दो।’’
‘‘देख मैं इसके दस हजार दूंगा। ठीक लगे तो बोल।’’
‘‘दस तो बहुत कम हैं भैया।’’ लड़का रिरियाया।
‘‘देना हो तो बोल...।’’ अरविंद ने मशीन उसकी ओर ठेलते हुए कहा।
‘‘अच्छा चलो आप पंद्रह दे दो।’’
‘‘नहीं दस से एक पैसा ज्यादा नहीं।’’ अरविंद जान गया था मामला इतने में जम जाएगा। लड़के ने हामी भर दी।
‘‘पर मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं है।’’
‘‘कोई बात नहीं मोटरसाइकिल है...मैं आपके पीछे-पीछे चलता हूं। घर से दे देना।’’
अरविंद को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ कि सत्तर हजार की चीज दस हजार में उसकी होने वाली है। उसे ये भी अंदाजा हो चला था कि हो न हो कोई गड़बड़ तो इसमें जरूर है पर लालच ने उसके मन को उलझा लिया। मन के चोर बड़े दुस्साहसी और तर्कशील होते हैं। वे लालच के लिए वकील सरीखे दांव खेलने लगे। अरविंद कुछ देर पहले जिसे न लेने के लिए अड़ा हुआ था अब सोचने लगा लोग तो देश के करोड़ों रुपये लूटकर भाग रहे हैं उसके आगे ये चोरी भी भला कोई चोरी है? दस हजार में इतनी बढ़िया चीज को मना करना बेवकूफी होगी। इतने में तो सेकंड हैंड भी नहीं मिलेगा। अरविंद मन को पक्का कर के बोला, ‘‘चल आगे ए.टी.एम. है वहां से तुझे पैसे निकाल कर देता हूं।’’
‘‘ठीक है भैया! आगे मिलते हैं। ये दोनों चीजें आप अभी अपनी गाड़ी में ही रख लो।’’ लड़का बोला।
‘‘और मैं तेरा माल लेकर भाग गया तो?’’ अरविंद ने सवाल लड़के की तरफ उछाला।
‘‘क्या बात कर रहे भैया! आप कहां जाओगे? ऐसी बात थोड़े ही है। ए.टी.एम. तक आप रख लो।’’
कहते हुए लड़का बाय करता हुआ अपने साथी की ओर चल दिया। अरविंद ने गाड़ी स्टार्ट की। दोनों चीज़ें गाड़ी में रखे हुए वह मेन सड़क पर आया और पुलिस बैरिकेडिंग से आगे बढ़ा। ए.टी.एम. तक पहुंचते ही मोटरसाइकिल से उतरकर लड़का अरविंद के साथ हो गया। दूसरा लड़का सड़के के किनारे ही ठहर गया। अरविंद ने देखा ए.टी.एम. के बाहर इक्का-दुक्का लोग खड़े थे। वह लाइन में लग गया। लड़का ठीक उसके पीछे खड़ा था। अरविंद सोचने लगा बेकार दस कह दिए ये तो पांच में ही मान जाता लेकिन अगले ही क्षण उसके मन ने कहा कि इससे कम में भला ये लड़का क्या मानता? अरविंद का नम्बर आने पर जैसे ही वह दरवाज़ा धकेलकर अंदर बढ़ा लड़का भी उसके साथ हो लिया।
‘‘तू अंदर मत आ। बाहर रह। कह दिया न मैं पैसे दे दूंगा।’’ अरविंद ने उसे डपटते हुए रोका।
अरविंद अंदर अकेला था। उसने मशीन में कार्ड डाला पर उसका दिमाग ठिठक गया। सारे घटना क्रम पर सोचकर उसे हैरत होने लगी। कितने ही सवाल उसके जेहन में कौंध कर उससे जवाब मांगने लगे। कौन है ये? कहां से लाया सामान? मुझे क्यों दे रहा है सस्ते में? प्लीज़ एंटर योअर पिन-मशीन की आवाज़ ने उसकी सोच में खलल डाला। अरविंद ने पिन नम्बर डाला पर पिन एक्सैप्ट नहीं हुआ। बेध्यानी में उस से गलत नम्बर दब गया था। इस बार अरविंद ने सही नम्बर डाला। मशीन अपनी कार्यवाही में जुट गई। अचानक अरविंद की रुह कांपी। अगर ये मालचोरी का है तो ये लड़का घर भी तो आ सकता है। गाड़ी का नम्बर इसने देख ही लिया है। पीछा कर सकता है। कल को मेरे ऑफिस ही चला आया तो... मेरी अब तक बनाई सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। अरविंद अचानक हिल गया। उसने खुद को कोसा, क्या कर रहा है तू? ये चोर तेरे पीछे लग गया तो? आगे रास्ते में ये तुझे ही न लूट ले? कहीं इसके पास कोई कट्टा-वट्टा...सवालों की जद्दोजहद अरविंद के माथे पर चिंता की बूंदें चमकने लगी। उसके होंठ भिंच गए। सांसें तेज़ चलने लगीं। मशीन गिनकर दस हज़ार रुपये पेश कर चुकी थी। अरविंद ख्यालों में डूबा खड़ा था। ‘कलैक्ट योअर मनी’ मशीन की बीप लगातार बज रही थी। बाहर खड़े लोगों के चुक रहे धैर्य और दरवाज़े पर उनकी हथेलियों की थाप ने अरविंद को ख्यालों से आज़ाद किया। उसने एहतियात से रुपये पर्स के हवाले किए। रुमाल से माथा पोंछा। अपनी हद से बाहर आ गई कमीज़ को सलीके से पैंट के अंदर किया।
‘‘हां भैया...’’ लड़के ने रुपये के लिए हाथ फैला दिए।
‘‘एक मिनट...चल मेरे साथ।’’ कहते हुए अरविंद गाड़ी तक आया। लड़के के चेहरे पर हंसी फूट रही थी। अरविंद गाड़ी में बैठा। सामान उठाया और खिड़की से बाहर उस लड़के के हाथों पर रख दिया।
‘‘क्या हुआ भैया? ये क्या कर रहे हो?’’ इस बार सांप-बिच्छू के डंक लड़के को लगे।
‘‘कुछ नहीं। मुझे नहीं चाहिए तेरा सामान। इसे ले और कहीं और बेच।’’ अरविंद की आवाज़ में कोई कंपन नहीं था।
‘‘ऐसे कैसे? अभी तो हमारी डील हुई थी....अब तू पलटी कैसे खा सकता है?’’
भैया-भैया करते न थकती लड़के की ज़बान तू-तड़ाक पर उतर आई।
‘‘अब तो तुझे ये लेना ही पड़ेगा और पैसे भी देने पड़ेंगे।’’ कहते हुए लड़के ने लैपटॉप और फोन दोनों अरविंद की गाड़ी में जबरन फेंक दिए। उसकी आवाज़ तेज़ हो गई थी। उसका साथी भी कुछ भांप गया था। लड़के की गुंडई आगे बढ़ रही थी। अरविंद निपट अकेला था पर उसके मन की खाइयों के अतल में बैठे ज़िंदा साहस ने उसे हौसला दिया। अरविंद ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और लड़के के दोनों सामान तेज़ी से नीचे सरका कर दरवाजा बंद करते हुए सख्त मुद्रा में लड़के से कहा, ‘‘नज़र मत आ जाना दोबारा। पुलिस में कम्प्लेंट कर दूंगा तेरी।’’ कहते हुए अरविंद ने गाड़ी तेज़ी से आगे बढ़ा ली। कुछ मिनट बाद अरविंद को रास्ते में एक बाज़ार दिखाई दिया। उसने गाड़ी मोड़कर किनारे लगाई और वहीं बाज़ार की सीढ़ियों पर बैठ गया। उसकी नज़रों ने देखा उसे मोटरसाइकिल और वो दोनों लड़के कहीं नहीं दिखे। अरविंद बैठा रहा। पांच मिनट, दस मिनट, पंद्रह मिनट... उसने देखा आस-पास लोगों की भीड़ थी। आवाज़ का एक भरा पूरा संसार था। अरविंद ने गहरी सांस भीतर खींची और खुद को सुरक्षित महसूस किया।
प्रज्ञा
तक्सीम, मन्नत टेलर्स (कहानी संग्रह), गूदड़ बस्ती, धर्मपुर लॉज (उपन्यास)नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति (नाट्य आलोचना) सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा’ को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार। प्रतिलिपि डॉट कॉम, कथा-सम्मान 2015, ‘तक्सीम’ कहानी को प्रथम पुरस्कार।स्टोरी मिरर डॉट कॉम कंटेस्ट-3 2017, कहानी ‘पाप, तर्क और प्रायश्चित’ को प्रथम पुरस्कार।उपन्यास ‘गूदड़ बस्ती’ मीरा स्मृति पुरस्कार 2016 से पुरस्कृत।‘तक्सीम’ कहानी संग्रह को महेंद्र स्मृति स्वर्ण प्रथम पुरस्कार। उपन्यास ‘धर्मपुर लॉज’ को शिवना अंतर्राष्ट्रीय पुस्कार।
दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग मेंएसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।