रविवारीय विशेषः संजय कुंदन की कहानी हत्यारे
आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए संजय कुंदन की कहानी। समाज के छोटे तबके को हेय दृष्टि से देखने वाले तथाकथित ऊंचे लोगों को यह कहानी एक तरह से बेनकाब कर देती है। गुनाह करने की मंशा या इससे बचे रहना किसी खास तबके की आदत नहीं होती। यह कहानी बताती है कि गुनाहगार कोई भी हो सकता है, फिर चाहे वह कितना भी सफेदपोश क्यों न हो।
वे तीनों शहर की सबसे व्यस्त सड़क पर ट्रैफिक की भागदौड़ और आपाधापी के बीच एकदम धीरे-धीरे चल रहे थे जैसे बदहवास भागते लोगों को चिढ़ा रहे हों। एक साथ चलने की गरज में कई बार वे किसी स्कूटर या कार की चपेट में आते-आते रह जाते थे। पूरा शहर भले ही हड़बड़ी में हो, उन्हें कोई जल्दी नहीं थी। उन्हें कहीं नहीं जाना था। वे तो छुट्टी बिता रहे थे।
बीच-बीच में ठहरकर वे किसी पोस्टर को देखते और उस पर लिखी इबारतों को पढ़ने की कोशिश करते या किसी नई दुकान को चौंककर देखते और उस पर टिप्पणी करते। कई बार तीसरा साथी पीछे छूट जाता था। तब बाकी दोनों रुककर उसका इंतजार करते।
अरसे बाद मिले थे तीनों दोस्त। करीब पांच साल पहले रोजगार के सिलसिले में उनमें से दो अलग-अलग शहरों में चले गए थे। लेकिन अब उन्हें फिर इसी शहर में काम मिल गया था, सो वे लौट आए थे। वे अपनी शहर वापसी का उत्सव मनाने निकले थे। अपने-अपने घरों में उन्होंने साफ कह दिया था कि कब लौटेंगे कोई ठीक नहीं। वे उन दिनों की याद ताजा करना चाहते थे जब मटरगश्ती के सिवा उनके पास कोई काम न था।
तीनों की उम्र 25 से 28 के बीच थी। रंग-रूप और कद-काठी भी लगभग एक जैसी। उनमें से एक प्राइवेट सिक्युरिटी एजेंसी में गार्ड का काम करता था। दूसरा एक पब्लिक स्कूल में चपरासी और तीसरा एक फैक्टरी में वर्कर था। आज से करीब बीस साल पहले इस शहर में जब अम्बेडकर कॉलोनी बसाई गई थी, तभी इनकी दोस्ती की नींव पड़ी थी जो समय के साथ और मजबूत होती गई।
वे तीनों बात करते हुए अनायास उस मैदान की तरफ मुड गए जिसमें वे बचपन में खेला करते थे, खूब गप मारते थे और अपने सुख-दुख बांटा करते थे। शहर के ठीक बीचोंबीच स्थित इस मैदान से न जाने उनकी कितनी स्मृतियां जुड़ी थीं। जब से उन तीनों ने होश संभाला था, तब से यह मैदान ऐसा ही था। इसमें अक्सर एक ओर बच्चे खेलते रहते तो दूसरी ओर महिलाएं और बुजुर्ग धूप सेंक रहे होते। कभी-कभार आसपास के दफ्तरों से कर्मचारी भी चले आते। वे बैठकर लंच करते, ताश खेलते या ऑफिस की राजनीति पर बहस करते। रोज ही मैदान में तरह-तरह के खोमचे वाले आकर खड़े हो जाते और चाट पकौड़ी, बुढ़िया के बाल व दूसरी मिठाइयां बेचते। कई बार कुछ खेल-तमाशे दिखाने वाले भी आते। कभी वे भेड़ों को लड़ाते तो कभी सांप-नेवले की लड़ाई दिखाने का दावा करते। हालांकि लड़ाई कभी होती नहीं और खेल खत्म हो जाता। कई बार मर्दाना कमजोरी दूर करने वाली दवाओं के विक्रेता भी आते। वे एक कोने में अपना तामझाम फैलाते, जब मैदान में काफी भीड़ रहती। वे दबी-दबी सी आवाज में अपनी बात कहते। अकसर उन्हें हटा दिया जाता था। कई बार नट आते और रस्सियों पर चलने का खेल दिखाते। दशहरे में इसी में रावण जलता। दिवाली में यहां पटाखों की दुकानें लगतीं। कई बार कुछ छुटभैये नेता यहां अपनी जनसभा भी करते थे। रिक्शे वालों, पास की दुकानों में काम करने वाले नौकरों और मजदूरों का यह आश्रय स्थल था। वे यहां रात में खुले में आकर सो जाते। आवारा घूमती गायें और कुत्ते भी यहां आराम फरमाते। कई बार तो आसपास से आकर मुर्गियां इसमें दौड़ लगातीं। इस मैदान को कई बार एक सुंदर पार्क में बदलने की कोशिश की गई पर सफलता न मिली। लोगों ने इसकी दीवारें गिरा दीं। फूल-पत्तियां भी उखाड़ कर फेंक दीं। लोहे की कुर्सियां और झूले वगैरह उठाकर लोग घर ले गए। अंतत: नगर निगम ने हाथ खड़े कर दिए।
वे तीनों दोस्त मैदान में आए और वहीं बैठ गए, जहां हमेशा बैठा करते थे। तीनों बैठकर चारों तरफ देखने लगे। जब से वे बिछुड़े थे, तब से उन्होंने इस मैदान में आना तकरीबन छोड़ ही दिया था।
अचानक पलटू एक कोने की तरफ इशारा करते हुए बोला, ‘पता है कुछ समय पहले वहां मुझे एक घड़ी मिली थी। उसकी चेन सोने की थी।’
‘अच्छा!’ मंगलू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा।
पलटू ने बताया, ‘जानते हो, फैक्ट्री की नाइट ड्यूटी खत्म कर सुबह-सुबह लौट रहा था। तभी वहां चमकता हुआ सा कुछ दिखा। नजदीक गया तो देखा कि घड़ी पड़ी है। इधर-उधर देखा, कोई नहीं था। कुछ देर खड़ा रहा। फिर सोचा यह जरूर मेरी ही किस्मत में लिखी है। सो उठा ली। पहले सोचा कि इसे पास में रखा जाए। फिर सोचा, रखकर करूंगा क्या। अब हम लोग जैसा आदमी इतनी महंगी घड़ी तो पहनेगा नहीं। सो बेच दी। बेचकर खूब मस्ती की। दिल के सारे अरमान पूरे कर लिए। सिनेमा देखा, होटल में खाया। बैरे और दरबान को टिप्स देते हुए लगा कि मैं भी कुछ हूं। सच कहूं तो वह दिन राजा की तरह बिताया मैंने।’ उसकी आंखों में चमक आ गई थी।
पलटू ने मंगलू से पूछा, ‘तुम कभी कुछ पाये इस तरह?’ मंगलू ने होंठों पर उंगली फिराई और कुछ पल सोचता रहा फिर बोला, ‘हां, कभी-कभार मिला कुछ। एक बार एक पेन मिला। एक बार एक कंघी, एक बार एक मोजा..। इस पर तीनों हंस पड़े।
पलटू अब रूपलाल की ओर मुड़कर बोला, ‘तुमको कभी मिला ऐसा कुछ कि लगा कि एक दिन के लिए राजा बन गए हो।’ रूपलाल एक फीकी सी हंसी हंसा। पलटू को इस हंसी का मतलब समझ में न आया। रूपलाल कहीं और देख रहा था जैसे स्मृति में झांक रहा हो। पलटू और मंगलू की उत्सुकता बढ़ रही थी। रूपलाल ने लंबी सांस लेकर कहा, ‘मुझे ऐसा कुछ मिला था जिससे मैं एक दिन का नहीं, हमेशा का राजा बन सकता था। बहुत अमीर बन सकता था मैं।’
मंगलू ने कहा, ‘लॉटरी निकल गई थी क्या?’
पलटू बोला, ‘किसी रईस की बेटी पट गई थी क्या?’
रूपलाल बोला, ‘समझ लो खजाना हाथ लग गया। वो अली बाबा चालीस चोर वाला खजाना। नहीं-नहीं वो अलादीन का चिराग जिसे रगड़कर जिन्न को बुला लो और जो चाहे मांग लो।’
यह कहकर उसने जेब से खैनी निकाली और बायीं हथेली पर रख उसे दायें अंगूठे से मसलने लगा। फिर उसने दोनों दोस्तों की ओर सुरती बढ़ाई। पलटू और मंगलू गौर से रूपलाल की ओर देख रहे थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि एक छोटी सी बात के लिए रूपलाल इतनी भूमिका क्यों बांध रहा है। पलटू ने झल्लाकर कहा, ‘अब बता भी दे यार।’
रूपलाल ने कहना शुरू किया, ‘तुम दोनों जब शहर से चले गए तो मैं कुछ दिन खाली रहा। फिर सिक्युरिटी एजेंसी ज्वाइन किया। कभी सोसाइटी में कभी स्कूल में तो कभी मॉल में काम किया। पिछले साल हमारी कंपनी ने अस्पतालों की सिक्युरिटी का जिम्मा भी ले लिया। पुराने स्टाफ सब को हॉस्पीटल का काम दिया गया। मेरी पोस्टिंग नेहरू नगर वाले नेशनल अस्पताल में हुई। देखा है न? बहुत बड़ा अस्पताल है। बहुत महंगा। वहां बड़े-बड़े पैसे वाले लोग आते हैं, इलाज के लिए। वहां जब कोई बीमारी से ठीक होकर जाता तो अच्छी-खासी बख्शीश देता। यह हम सबकी ऊपरी कमाई है। तनख्वाह तो एजेंसी देती है, बहुत कम। बारह-बारह घंटे ड्यूटी करनी पड़ती है। दो-चार महीना पहले मेरी ड्यूटी आईसीयू में लगी थी। बाहर बैठे मरीजों के रिश्तेदारों को आवाज देकर बुलाना और दवाई का पुर्जा पकड़ाना मेरा काम था। मरीजों के लोगों को भीतर जाना मना था। डॉक्टर बुलाते तभी वे अंदर जा सकते थे। लेकिन कई बार हम अपनी मर्जी से भी कुछ लोगों को मरीज से मिलवा देते थे। इससे खुश होकर वे लोग हमें पैसे देते थे।’
यह कहकर रूपलाल रुका। फिर उसने दो बार थूक फेंका। पलटू और मंगलू यंत्रवत बैठे थे। वे रूपलाल की कहानी में पूरी तरह डूब चुके थे। रूपलाल कहने लगा, ‘एक दिन मैं गेट पर खड़ा था। देखा कि एक गाड़ी रुकी और सीधे पार्किंग में चली गई। उसमें से एक बुजुर्ग उतरे। बहुत परेशान दिख रहे थे। कांपते-लड़खड़ाते चल रहे थे। मैं उनके पीछे-पीछे चला। वे काउंटर पर आए। जेब से दस हजार रुपये निकाले और भर्ती वाला फारम भरने लगे। बोले कि कोई और नहीं है उनके साथ। वह भर्ती होने आए हैं। ड्यूटी डॉक्टर ने जांच की और उन्हें आईसीयू में ले जाने को कहा। वार्ड बॉय उसे आईसीयू में ले जाने के लिए आए तो उस बुजुर्ग ने एक मिनट का समय मांगा और मुझे एक कोने में बुलाया।… तुम सब विश्वास नहीं करोगे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है। फिर जेब से एटीएम कार्ड निकालकर मुझे दिया और बोला कि 2450 इसका पिन नंबर है। इसमें से पैसे निकालकर दवा वगैरह लाना और अस्पताल का बिल भर देना। अगर मैं नहीं बचा तो सारे पैसे तुम रख लेना। मैं कुछ कहता इससे पहले ही वार्ड बॉय आकर उन्हें ले जाने लगे। मैंने एटीएम कार्ड उन्हें लौटाने के लिए बढ़ाया तो उन्होने हाथ जोड़कर कहा, प्लीज। अंदर जाकर उन्होंने डॉक्टरों से कह दिया कि उनकी दवा मैं लाऊंगा। यार..क्या बताऊं। जब पहली बार मैंने पैसे निकाले तो थर-थर कांप रहा था, लग रहा था जैसे चोरी कर रहा हूं। …जब पर्ची निकली तो मैं बैलेंस देखकर घबरा गया। एक के आगे इतने जीरो थे कि मां कसम डर गया। मैंने हॉस्पीटल के अकाउंटेंट से पूछा तो उसने बताया कि इतने पैसे दस लाख रुपये होते हैं। लेकिन मैं उतना ही निकालता था जितने कि दवा होती थी या एक दिन का हॉस्पीटल का चार्ज होता था। मैं डेली उनका बिल क्लियर करता रहा।’
तभी पलटू ने मुंह बनाकर कहा, ‘ज्यादा फेंक मत। ऐसा कैसे हो सकता
है। मान लिया कि वह आदमी अकेला था लेकिन उसने तुझे ही क्यों कार्ड दिया। किसी रिश्तेदार पड़ोसी वगैरह को देता। या उस वक्त हॉस्पीटल में और लोग रहे होंग। तू ही क्यों?
‘अब मैं क्या कहूं। उसने मुझे दिया तो..। रूपलाल ने सहज भाव से उत्तर
दिया।
तभी मंगलू ने कहा, ‘लेकिन तू इतना भोला बाबा कब से हो गया कि हाथ में पैसे आ गए लेकिन तूने छुआ तक नहीं। क्या तूने चायपान के लिए भी पैसे नहीं निकाले? सच-सच बता।’
‘अब तुम लोग तो मेरी बात को सच ही ना मान रहे तो मैं क्या कहूं….छोड़।’ रूपलाल ने यह कहा और मुंह फेरकर बैठ गया।
तीनों कुछ देर के लिए चुप हो गए। फिर पलटू ने रूपलाल के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘अच्छा नाराज मत हो। बता फिर क्या हुआ?’ तभी मंगलू ने मामला समेटते हुए कहा,’ अरे हुआ क्या होगा। बुड्ढा ठीक हो गया होगा और इससे कार्ड मांगकर चला गया होगा। इसने चुपचाप दे भी दिया होगा। न दिया होता तो क्या यह अभी यहां होता हमारे साथ।’
इस पर रूपलाल मुस्कराया और बोला ‘असली कहानी तो अभी बाकी है दोस्त।…’ पलटू और मंगलू ने एक-दूसरे को देखा। रूपलाल अपनी रौ में कहने लगा, ‘वो अंकल जी ठीक हो गए। हॉस्पीटल से डिस्चार्ज होते समय उन्होंने मुझे बुलाया तो मैंने एटीएम कार्ड उन्हें थमा दिया और सारे बिल भी दे दिए। मैंने पूछा कि आखिर आपने क्या सोचकर मुझे अपना कार्ड दे दिया। इस पर वे बोले कि उन्होंने धूप में बाल सफेद नहीं किए हैं। वे आदमी को पहचानते हैं।’
‘फिर चले गए तेरे अंकलजी?’ मंगलू ने पूछा।
‘नहीं, वे कुछ देर तक एकटक मुझे देखते रहे। उनकी आंखें गीली हो गईं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें कितनी तनखाह मिलती है? मैंने तनखाह बताई तो अंकलजी ने कहा कि मैं तुम्हें पांच हजार ज्यादा दूंगा, चल मेरे घर। मेरे साथ रहना और मेरा काम कर देना। मैंने सोचा सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी में रखा ही क्या है। एक साथ पांच हजार की जंप कहां मिलेगी। मैं तैयार हो गया। उसी समय उस अंकलजी के साथ उनकी गाड़ी से चल पड़ा। अंकलजी की कोठी क्या शानदार थी यार। घर में ऐसे-ऐसे सामान थे जिन्हें मैंने अब तक नहीं देखा था। बाथरूम तक में फ्रिज था। और बाथरूम ऐसा चक-चक था यार कि एक बार घुसो तो निकलने का जी न करे। एसी में इतनी ठंडी मस्त हवा आती थी कि मजा आ जाता था। सोचो उतने बड़े घर में बस वो अंकलजी अकेले रहते थे।’
‘तू क्या सब करता था?’ पलटू ने सवाल किया।
‘खाना बनाने और घर के कामकाज के लिए अलग से काम वाली थी। मैं अंकल जी की मालिश करता, उन्हें टट्टी-पेशाब करवाता, नहलाता और शाम में टहलाता और गप मारता। जब कोई काम नहीं रहता तो दिन भर टीवी पर फिल्म देखता। बाद में मैंने खाना बनाना भी शुरू कर दिया। अंकल जी को उबला हुआ खिलाता और अपने लिए एक से एक आइटम बनाता। खूब पनीर और रबड़ी खाई यार। ऐश थी ऐश। अंकलजी एकदम ठीक हो गए।….वे एकदम दोस्त की तरह मानते थे मुझे। उन्होंने बताया कि दो साल पहले उनकी पत्नी की मौत हो गई थी। उसके बाद से ही वे बीमार रहने लगे।…’
‘और बाल-बच्चे..।’ मंगलू ने पूछा।
‘एक बेटा है, जो बंगलोर में रहता है। बहुत बड़ा बिजनेस है जो कई शहरों में फैला हुआ है। उसके पास बाप की देखभाल का टाइम ही नहीं था। वह बाप को अपने साथ इसलिए नहीं रखता था कि उसकी पत्नी यानी अंकलजी की बहू को यह मंजूर नहीं था। पता नहीं क्यों अंकलजी की बहू उन्हें पसंद नहीं करती थी। …..एक दिन उनका बेटा आया था। दिन भर रहा। वह बाप को देखने नहीं बिजनेस के काम से आया था। बाप-बेटे में बहस हुई थी। बातचीत से लगा जैसे बेटा उस कोठी को बेचकर अंकलजी को छोटे फ्लैट में रखना चाहता था। लेकिन अंकल जी अपने पुरखों की निशानी उस कोठी को बेचने के खिलाफ थे। वैसे उनका बेटा मुझसे बहुत खुश था। कह रहा था कि पहली बार घर में मेरे जैसा भरोसेमंद नौकर मिला है। जाते समय एक हजार बख्शीश दे के गया।’
‘तुम्हारी ऐश कब तक चली यार?’ पलटू ने पूछा।
‘बस एक महीना।’ रूपलाल बोला।
‘क्यों अंकलजी निकल लिए क्या?’ मंगलू ने कहा।
‘नहीं।’ रूपलाल ने धीरे से कहा।
‘जरूर तूने कोई गड़बड कर दी होगी और तुझे निकाल दिया गया होगा।’ पलटू बोला।
‘नहीं यार।’ इस बार रूपलाल ने थोड़ा झल्लाकर कहा।
‘तो हुआ क्या था?’ पलटू और मंगलू ने एक साथ कहा।
‘मैं खुद छोड़कर चला आया।’ रूपलाल ने कहा और कुछ सोचने लगा।
‘मुझे यही लग रहा था। तू है ही घोंचू। हाथ में आई चिड़िया उड़ा देता है। …..साला ऐसी जिंदगी कहां मिलती है। सिक्युरिटी गार्ड बनकर तू इस जनम में तो इतना ऐश नहीं कर सकता था। ….खैर बता क्यों छोड़ा?’
‘पहले चाय पिला, फिर बताता हूं।’ रूपलाल यह कहकर उठ खड़ा हुआ।
मंगलू और पलटू भी उठ खड़े हुए। फिर तीनों मैदान के दूसरे छोर पर आए जहां एक औरत ठेले पर चाय और ब्रेड पकौड़े बेच रही थी। पलटू ने तीन चाय और ब्रेड पकौड़े का आर्डर दिया। मंगलू सड़क की तरफ बढ़कर पान वाले से तीन सिगरेट ले आया। वे तीनों चाय के ठेले के पास रखी बेंच पर बैठ गए। मंगलू और पलटू के चेहरे पर कहानी सुनने की बेकरारी साफ झलक रही थी जबकि रूपलाल के चेहरे पर उदासी अपने पैर जमा चुकी थी। तीनों ने पहले चुपचाप ब्रेड पकौड़े खाए। फिर सिगरेट सुलगाई। तब तक चाय भी आ गई। पलटू ने चाय की एक चुस्की लेकर कहा, ‘हां तो रूपलाल बता। क्यों छोड़ दिया वह घर? तू ऊब गया था क्या?’
रूपलाल ने उसकी बात को अनसुनी करते हुए कहा, ‘यार दुनिया कहां से कहां आ गई है। इंसान क्या हो गया है। दिखता कुछ है होता कुछ और है।’
‘भाषण मत दे, बता हुआ क्या?’ पलटू ने सिगरेट का धुआं ऊपर उड़ाते हुए कहा।
‘तू सुनेगा न तो तेरा दिमाग भी घूम जाएगा।’ रूपलाल ने यह कहकर चाय का गिलास नीचे रख दिया। पलटू और मंगलू रूपलाल की तरफ खिसककर बैठ गए। रूपलाल ने सामने कहीं दूर देखा और कहने लगा, ‘मैंने जिस अंकलजी को सीधा-सादा और लाचार आदमी समझा था, वैसा वह न था। वह हत्यारा था हत्यारा।’
‘क्या!’ पलटू और मंगलू चौंके। दोनों के चेहरे लाल हो गए थे। रूपलाल ने सिगरेट सुलगाई और एक लंबी कश लेकर कहा, ‘उसने अपनी ही बेटी को मार डाला था।’
‘तुम्हें कैसे पता चला?’ मंगलू ने पूछा।
‘मैंने अपने कानों से सुना। बहुत दिनों के बाद उसका बेटा फिर आया
था। फिर झगड़ा हो गया। बुड्ढा अपने बेटे से कह रहा था कि तुम्हें खानदान की इज्जत की कोई परवाह नहीं है लेकिन मुझे है। खानदान की इज्जत बचाने के लिए मैंने अपनी बेटी तक को मार डाला। और उसमें तुमने भी मेरा साथ दिया था। तुम बौखलाए हुए थे कि हमारे परिवार की लड़की एक शिड्यूल कास्ट लड़के के साथ भाग गई। ….भूल गए सब कुछ। अब क्या हो गया है तुम्हें?’
‘साला विश्वास न हो रहा।’ पलटू की आवाज में थरथराहट थी।
‘मां कसम, यह बात सुनकर मेरे बदन में आग लग गई। सोचा अभी ही मार दूं दोनों को। लेकिन अपने को संभाला। अपने आप पर भी गुस्सा आ रहा था।’
‘खुद पर गुस्सा क्यों?’ मंगलू ने पूछा।
‘इसलिए कि मैंने एक गिरे हुए इंसान की इतनी सेवा की। मैं कुछ देर अजीब हालत में रहा। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? शाम में मैं बुड्ढे के पास गया। तब तक उसका बेटा जा चुका था। मैंने कहा, अंकलजी मैंने आपको सीधा और सच्चा इंसान समझा था, इसलिए आपकी इतनी सेवा की। लेकिन आप तो एक घटिया आदमी निकले। अब मैं आपका काम नहीं कर पाऊंगा। मैं जा रहा हूं। बुड्ढे ने हाथ जोड़े, तनखाह दोगुनी करने का वादा किया पर मैं नहीं रुका।’
यह कहकर रूपलाल ने सिगरेट फेंक दी।
‘अजीब आदमी है तू भी…।’ पलटू ने पैर से सिगरेट मसलते हुए कहा।
‘क्यों?’ रूपलाल ने आश्चर्य से उसे देखकर कहा।
‘तुमने खजाना छोड़ दिया। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को छोड़ दिया।
अरे वो बुड्ढा तुम पर आंख मूंदकर विश्वास करता था। तू उससे धीरे-धीरे लाखों ऐंठ सकता था। लूट लेता उसे।’ पलटू ने कहा
‘उसकी शक्ल से नफरत हो गई थी मुझे। कोई आदमी अपनी ही संतान को कैसे मार सकता है यार।…अब तक अखबार में यह सब पढ़ता था तो अजीब लगता था, पर अब तो सच में देख लिया। इंसान क्या हो गया यार।’ रूपलाल हांफने लगा था।
तीनों उठकर चलने लगे। कुछ देर बाद रूपलाल फिर बड़बड़ाने लगा, ‘कैसे लोग हैं। बेटी शिड्यूल कास्ट के साथ शादी करना चाहती थी तो उसे मार दिया लेकिन मेरे जैसे शिड्यूल कास्ट के आदमी से सारा काम करवाने में कोई दिक्कत ना हुई। हम उनके नौकर बन सकते हैं दामाद नहीं चाहे कितना भी पढ़ लिख जाएं।’
पलटू ने कुछ सोचते हुए रूपलाल से कहा, ‘सुन अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तू फिर से जा और कह कि अंकल जी, मैं गुस्से में चला गया था। लेकिन आपकी चिंता लगी रही। सो मैं वापस आ गया हूं। ... फिर तुम काम पर लग जा। और कोई न कोई बहाना बनाकर माल ऐंठते रहना।’
‘मुझसे ये बेईमानी ना होगी।’
‘अच्छा, तो ये बेईमानी है। बड़े लोग पब्लिक का पैसा मार लें तो कुछ नहीं, बैंक का करोड़ों लूटकर विदेश भाग जाएं तो कोई बात नहीं लेकिन हम थोड़ा सा हाथ साफ कर लें तो बेईमान हैं चोर हैं। उसने क्या ईमानदारी से माल कमाया होगा। अरे इन जैसे लोगों के पास कालाधन होता है। वे खुद लुटेरे हैं। उन्हें लूटना बेईमानी नहीं है।’
‘तू मेरी बात समझना नहीं चाहता। मैं उसके यहां पैसे के लिए काम नहीं कर रहा था। मैं तो इसलिए उसकी मदद कर रहा था कि वह मुझे भला आदमी लगा। उसने मुझ पर इतना भरोसा किया। लेकिन अब मेरा भरम टूट गया। मैं अब उससे दूर रहना चाहता हूं। मुझे अब उससे नफरत हो गई है।’
‘तो तू नहीं जाएगा।’ पलटू ने जोर से कहा।
‘नहीं यार, छोड़ उस बात को। हम लोग किस बात में फंस गए।’ रूपलाल ने पलटू के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
‘सुन, तू नहीं जाएगा तो मैं जाता हूं।’ पलटू ने कहा।
रूपलाल और मंगलू ने उसे हैरत से देखा।
‘क्या कह रहा है?’ रूपलाल ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा।
‘मैं ठीक कह रहा हूं। मुझे उसका पता बता।’ पलटू ने दृढ़ता के साथ कहा।
मंगलू ने पलटू से पूछा, ‘तो क्या फैक्टरी का काम छोड़ देगा?’
‘हां भाई, उस नौकरी का क्या है। फिर से पकड़ लूंगा। एक बार किस्मत आजमा लेने दे।’
‘तू गलत रास्ते पर जा रहा है। हम लोग उनकी तरह नहीं हो सकते।’ रूपलाल ने पलटू को समझाया।
‘फिलासफी छोड़। उनका पता बता। तू चलेगा हमारे साथ?’ पलटू ने पूछा।
‘मैं जाकर क्या करूंगा।’ रूपलाल ने धीरे से कहा।
‘तू मेरा परिचय करवाना। कहना कि तुम्हारे बदले अब मैं काम करूंगा। तू कह देना कि तेरे पास समय नहीं है।’ पलटू बोला।
‘मैं नहीं जाऊंगा।’ रूपलाल ने पलटू की ओर देखे बगैर कहा।
‘तू चलेगा मंगलू?’ पलटू ने पूछा।
‘हां, मैं चलूंगा।’ मंगलू ने सिर हिलाकर कहा।
रूपलाल से पता लेकर पलटू और मंगलू दूसरे दिन सुबह-सुबह शहर की सबसे पॉश कॉलोनी पहुंच गए। वहां बड़ी-बड़ी कोठियां थीं, जिनमें लोहे के बड़े-बड़े फाटक लगे थे। उन्हें देखकर भीतर की दुनिया का पता लगाना मुश्किल था। यह भी कहना कठिन था कि उनमें मनुष्य का वास है या नहीं। फिर इन मकानों के बीच में काफी फासले थे। मतलब एक में कोई घटना हो तो दूसरे को पता भी न चले। पलटू मन ही मन कई संभावित सवालों के जवाब तैयार कर रहा था। अगर ये पूछा जाएगा तो वह ये कहेगा और ये पूछा जाएगा तो यह कहेगा। हालांकि उसे यह सवाल परेशान कर रहा था कि एक ही घर में एक ही आदमी के साथ रहते-रहते वह कहीं बोर न हो जाए। पर भविष्य में मिलने वाले अकूत धन की कल्पना उसे अंदर ही अंदर उसे विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भी दे रही थी।
उन्हें मकान खोजने में दिक्क्त नहीं हुई पर सवाल था कि दाखिल कैसे हों। रूपलाल ने उन्हें समझाया था कि बड़े गेट से लगी दीवार में नीचे की तरफ एक कोने में कॉलबेल लगा है जिसे दबाने से ऊपर से कोई झांक कर पूछेगा कि दरवाजे पर कौन है। फिर वह गेट खुलेगा। लेकिन पलटू कई बार कॉलबेल बजा चुका था पर ऊपर से कोई आवाज नहीं आई। लगा कि घर में कोई नहीं है। पलटू ने सोचा, कहीं बुढ़ऊ निकल तो नहीं लिए। ऐसा हुआ तो पलटू के अरमानों पर पानी फिर जाएगा। बड़ी देर तक दोनों टहलते रहे। वहां कोई आदमी सड़क पर नजर ही नहीं आ रहा था। केवल गाड़ियां तेजी से आतीं और गुजर जातीं। पलटू को शक होने लगा था कि कहीं रूपलाल ने उन्हें बेवकूफ तो नहीं बनाया। हो सकता है उसने मनगढ़ंत कहानी सुना दी हो। लेकिन रूपलाल ऐसा तो था नहीं। क्या पता, इन पांच सालों में बदल गया हो। काफी देर सड़क पर चक्कर लगाने के बाद दोनों ने वापस लौट आने का फैसला किया। तभी उन्हें सामने से एक मोटसाइकिल आती दिखी। उस पर दूधवाला दो बड़ी-बड़ी कनस्तर लादे चला आ रहा था। पलटू समझ गया यह इस मोहल्ले का दूधवाला है। वह यहां के बारे में सब कुछ जानता होगा। उसने दूधवाले को रुकने का इशारा किया। दूधवाला रुक गया। पलटू ने पूछा, ‘इस रोड में भी दूध देते हो?’ ‘हां भइया देता हूं। क्या बात है।’
‘जुनेजा साहब का मकान तो यही है न।’ पलटू ने सामने के मकान की ओर इशारा करते हुए कहा।
‘हां यही है, लेकिन आप लोग...।’
‘ह…हम लोग।’ पलटू ने थोड़ा हकलाते हुए कहा, ‘नौकरी के लिए आए थे। जुनेजा साहब ने नेशनल हॉस्पिटल में किसी से कहा था आदमी भिजवाने के लिए।’
‘अब क्या फायदा...।’
‘मतलब….।’ पलटू की आवाज में बेचैनी थी।
‘वो तो गुजर गए। दो महीने हो गए होंगे। एक आदमी उनके साथ रहता था, हॉस्पीटल से ही लाए थे उसे। वो कुछ ही दिन रहा। फिर दूर का कोई रिश्तेदार साथ रहने लगा। वह जुनेजा साहब की सेवा क्या करता, घर के सामान पर ही हाथ साफ करने लगा। जुनेजा साहब के बेटे ने उसे बेइज्जत करके निकाला। कुछ दिन साहब ऐसे ही रहे। फिर एक दिन बेटा आया और दूसरे दिन जुनेजा साहब विदा हो गए। उनके बारे में लोग तरह-तरह की बात करते हैं।’ दूधवाले ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘सुना है वह चारपाई से गिर गए। गहरी चोट लगी इसलिए मर गए। अब इतने दिन जुनेजा साहब अकेले रहे तो चारपाई से कभी ना गिरे, जब बेटा साथ में था, उसी रात गिरे...समझ गए न… । अब बेटा इस मकान को एक बिल्डर को बेच रहा है। यहां बड़ा सा अपार्टमेंट बनेगा। सब बड़े लोगों का खेल है भैया।’ यह कहकर दूधवाले ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और देखते ही देखते नजरों से ओझल हो गया।
मंगलू ने कहा, ‘यार हम लोगों की किस्मत ही खराब है।’
पलटू बोला, ‘नहीं। यह अच्छा हुआ कि हम एक गुनाह करने से बच गए। रूपलाल ठीक कहता है हम इनके जैसे नहीं हो सकते।’ यह कहकर पलटू ने मंगलू का हाथ पकड़ा और दोनों इस कॉलोनी से बाहर की ओर चल पड़े।
संजय कुंदन
7 दिसंबर, 1969। पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एमए। कागज के प्रदेश में, चुप्पी का शोर, योजनाओं का शहर, तनी हुई रस्सी पर (कविता संग्रह) बॉस की पार्टी, श्यामलाल का अकेलापन (कहानी संग्रह) टूटने के बाद, तीन ताल (उपन्यास)।
भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, हेमंत स्मृति सम्मान, विद्यापति पुरस्कार और बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार।
कई रचनाएं पंजाबी, मराठी और उर्दू में अनूदित।
फिलहाल वाम प्रकाशन, दिल्ली में संपादक।