रविवारीय विशेष: मनीष वैद्य की कहानी नीले पंखों वाली चिड़िया
आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए मनीष वैद्य की कहानी। गरीबी के अभिशाप से उपजी यह कहानी, मानवीय संवेदनाओं के उस सिरे को छूती है, जहां बहुत अपेक्षा न होने के बाद भी उपेक्षा का सिलसिला चलता रहता है। इस उपेक्षा में भूली-बिसरी यादें और एक अनकहा प्रेम जीने का सहारा भी होता है और एक अनकही टीस भी।
सजदा करने के बाद दोनों घुटनों को जमीन पर टिकाते हुए उन्होंने आसमान की तरफ अपने दोनों हाथ खोल दिए। फिर उन्हें अंजुरी की तरह जोड़कर कुछ देर बैठी रहीं। अधखुली पलकों से शून्य में ताकती रहीं। उनके होंठ कुछ बुदबुदा रहे थे लेकिन शब्द बाहर नहीं आ रहे थे, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वे क्या कह रही हैं और किससे?
"परवर दिगार, सुन रहा है न... अगले जनम में भेड़, बकरी, गाय, सुग्गा, चूहा, चींटी कुछ भी बना देना लेकिन भूलकर भी मुझे औरत मत बनाना..."
एक मरियल-सी धीमी लेकिन साफ आवाज ने कोठरी की खामोशी को तोड़ा था। इस टूटती हुई खामोशी की रूंधी हुई नम आवाज में लंबे वक्फे के दुख का सैलाब उमड़ आया था। उन्होंने आंखों में छलछला आई बूंदों को दुपट्टे की कोर से पोंछा और सिर पर बांधे दुपट्टे को खोल दिया। उन्होंने गर्दन ऊंची कर कोठरी के रोशनदान की तरफ देखा। वहां गाढ़ा अंधेरा पसरा पड़ा था, ठीक उनके भीतर की तरह।
मुंह ढांपकर सोने की कोशिश में उन्हें हल्की-सी घबराहट हुई तो उन्होंने चेहरे से लिहाफ हटा दिया। कोठरी का काला अंधेरा उनके भीतर आत्मा तक उतरने लगा। रात की ठंडी हवा के झोंके ने फेफड़ों को छुआ तो अनायास खांसी का ठसका उठ गया। खांसी का दौरा उठा तो देर तक चलता ही रहा। वे उठकर गोली लेना चाहती थीं पर हिम्मत नहीं हुई। वहीं बैठे खांसती रहीं। देह कांप रही है। पसीने की बूंदें छलक आई हैं। गोरा चेहरा तमतमा कर लाल हो गया है। लगता है जैसे भीतर का सब-कुछ खांसी के साथ देह के पिंजर से उछटकर बाहर आ जाना चाहता है। वह गले में फंस रहा है। कुछ भी बाहर नहीं निकल पा रहा। मानो गले को किसी ने जकड़ लिया है। पलंग पर बैठने में भी थकान-सी लगी तो वे कटे पेड़ की तरह वहीं गिर गई। हड्डी-हड्डी चटक रही है। उन्होंने सिरहाने से दवाओं की पोलीथिन टटोलकर ढूंढ़ा और एक गोली निकाल कर गटक ली। थोड़ी देर में खांसी का दौरा कुछ कम हुआ तो आंखें बोझिल होने लगीं।
रोज की बनिस्बत आज नींद जल्दी खुल गई थी। अभी रात रोशनदान से नीचे नहीं उतरी थी। ठंडी हवाएं चल रही थीं। वे लिहाफ ओढ़े पड़ी रहीं। आधी नींद और आधी जागी हुई वे ज़िंदगी के कोनों-अंतरों तक फैले बेतरतीब सफ़र की यादों से वाबस्ता थीं।
निढाल देह और खाली मन के इस कोने से जिंदगी को देखना कितना अजीब है, उन्होंने सोचा। काश कि यह सब देखने से पहले ही खांसी का कोई ठसका उनका दम निकाल देता। इस देह से जान छूट जाए तो ही अच्छा! उन्होंने कितनी बार मर जाना चाहा था, लेकिन वक्त से पहले मरना भी कहां संभव हो पाता है। मरने के इंतजार में जीते रहना कितना त्रासद है! ऊपर से इस तरह तिल-तिल कर मरना। मौत आती नहीं और जिंदगी निरंतर कठिन होती जाती है।
सलमा आपा सोचती हैं, कहां से शुरू करें कि मुकम्मल ढंग से कह पाएं अपनी जिंदगी के बेढब अफसाने को। शौकत से शुरू करें या युसूफ के सोच से। अमीना की बात पहले करें या मार्था की। मां को याद करें या लकवे में पड़े वालिद को। उनकी आंखों में यादों के कई कोलाज उमड़ते-बिगड़ते हैं। यादों की पोटली से दुख रिसता है और भीतर तक धंसता चला जाता है तेजाब की तरह। हमारी जिंदगियों में सबसे पहले अपने जाए दुख ही उमड़ते हैं और हमेशा साये की तरह साथ चलते हैं। कभी न खत्म होने के लिए।
शौकत की देह में कोई धूप का टुकड़ा था कि सामने पड़ते ही उनकी आंखें चौंधियाने लगती थीं। वे उनके सामने पड़ने से बचने का जितना जतन करतीं, मन उतना ही उनके आसपास दौड़ता रहता। वे अजीब से सुनहरे दिन थे, चमकीले और चटख रंगों वाले। उन दिनों गांव के आसपास कई तरह के फूल खिलते थे। रंग और खुशबुओं में अलग-अलग होने के बाद भी ये दुनिया को खूबसूरत बनाते थे। उन दिनों पूरी कायनात इश्क में डूबी हुई थी और वक्त की देह पर पंख उग आए थे। दिन और रातें इतनी तेजी से जल्दी-जल्दी बदल रहे थे गोया भूगोल का गणित बदल गया हो। उनका घर उस तिराहे पर था, जहां से सलमा आपा के घर की छोटी-सी गली मुड़ती थी। कितनी बार आते-जाते उनकी आंखें टकरातीं। वे जब उनकी आंखों में झांकते तो लगता कि शौकत की नजरें आत्मा तक देख पा रही हैं। उन भूरी-कत्थई आंखों में जाने कैसी कशिश थी कि वे खिंची जा रही थीं उनकी तरफ।
भूगोल का गणित आखिर कितने वक्त तक गड़बड़ा सकता था? बड़ी बहन का रिश्ता तय होते ही घर में अचानक सलमा के लिए भी लड़का देखे जाने की बात शुरू हो गई। दोनों बहनों का निकाह एक साथ कर वे लोग अपनी जिम्मेदारियों से उबरना चाहते थे। वे आगे पढ़ना चाहती थीं। तरक्की चाहती थीं, अपनी पसंद के लड़के से शादी करना चाहती थीं। लेकिन सब कुछ अनसुना ही रह गया और फूफी के रिश्तेदार युसूफ के साथ उनका निकाह पढ़वा दिया गया। गर्मियों के उन ऊसर दिनों में दूर-दूर तक कोई फूल नहीं खिला था। सारे पत्ते तक सूख चले थे। उन दोनों की जिंदगी में भी उस अकाल की छाया उतर आई थी।
युसूफ के बारे में रचे गए झूठ की परतें भी धीरे-धीरे खुलने लगीं। वह सरकारी ड्राइवर नहीं बल्कि एक सरकारी साहब की निजी गाड़ी चलाता था। फूफी कहतीं आज नहीं तो कल साहब उसे सरकारी ड्राइवर बना ही देंगे। शहर में पक्के तीन कमरों की जगह किराए का दो कमरे का छोटा-सा मकान था, जिसके बाहर थोड़ी-सी जगह पर तिरपाल बांधकर बरसाती निकाल ली थी। इसमें उनके वालिद की खटिया भर बिछ जाती। जैसे-तैसे सलमा आपा ने इसे ही घर बना लिया। घर सिर्फ ईंट और रेत से बन जाया करते तो और बात होती, लेकिन उसमें मोहब्बत की तासीर भी तो लगती है।
वे यह मोहब्बत कहां से लातीं! युसूफ की आंखों में दूर-दूर तक इसका कोई नामो-निशान नहीं था। उसने अपने तईं कई बार कोशिशें भी की लेकिन जल्दी ही यह बात उनकी समझ में आ गई कि युसूफ के लिए उनकी जरूरत महज एक औरत की तरह ही है, इससे आगे कुछ भी नहीं। बाकी शौहरों की तरह वह भी अपनी पत्नी की देह को अपना अधिकार समझता था। देह ही नहीं, सोच और फैसले भी उसकी ताबेदारी में थे। उन्होंने इसे ही अपना नसीब मान लिया।
वे जब कभी गांव जातीं, शौकत को अपने इंतजार में पातीं लेकिन अब वह उनसे बात करने तक से कतराती थीं। वह जितना ही पास आने की कोशिश करता, वे उतनी ही दूर छिटकने लगतीं। उन्हें लगता कि शौकत दूर रहकर भी उस मोहब्बत को अपने भीतर ताज़ादम रखे हुए है। दिन बड़े बोझिल हो चुके थे। कभी लगता कि वे खुद ही अपने वक्त को ढो रही हैं। रफ्ता-रफ्ता बीतते इन्हीं दिनों के दरम्यान उनकी कोख में एक दिन जब अमीना ने अपने नन्हें हाथ-पैर मारे तो उनकी दुनिया उसमें सिमट गई।
इधर युसूफ की नौकरियां छूटती रहीं, लगती रहीं। वह अब रोज शराब पीने लगा। झगड़े और मारपीट की घटनाएं बढ़ती चली गईं। वह युसूफ के भीतर चल रही परेशानियों को भी समझती थीं लेकिन इसमें उनका अपना क्या कसूर था? अनजाने में ही सही ये हालात तो खुद युसूफ ने ही अपने लिए बुन लिए थे। उसकी इन मनमानियों और यातनाओं के बीच अमीना बड़ी होती रही।
अमीना एक दिन स्कूल से लौटी तो देखा कि उसकी मां का खांस-खांस कर बुरा हाल है। मोहल्ले के सरकारी अस्पताल में जांच हुई तो पता लगा कि उन्हें टीबी हो गई है। दवाई से सलमा आपा धीरे-धीरे ठीक होने लगीं, पर बात एक दिन की नहीं थी। टीबी का लंबा इलाज चलना था और उसमें कुछ परहेज भी थे। वह कैसे कहती कि घर में कोई बीड़ी न पिए कि उसके लिए गैस के चूल्हे का इंतज़ाम कर दे कि सीलन वाला मकान बदल ले। कैसे कहती कि डॉक्टर ने उन्हें ताज़ा हरी सब्जियां, फल, अंडे और दूध लेने को कहा है। इन सब चिंताओं से दूर युसूफ और उसके वालिद सारा दिन बीड़ी फूंकते रहते। वे गीले कोयलों से घर की सिगड़ी फूंकती रहतीं। पीछे वाले जिस कमरे में वे सोती थीं, उसमें हमेशा सीलन बनी रहती। अमीना को वे खटिया पर सुला देतीं और खुद फर्श पर एक कथरी बिछाए पड़ी रहतीं।
खांस-खांस कर फेफड़े दुखने लगते। कलेजा मुंह को आ जाता। थोड़ा-सा काम भी बुरी तरह थका देता। सांसे फूलने लगतीं। सिर चकराता। आंखों के सामने काले-पीले डोरे उभर आते। लगता कि वे खड़ी भी हुईं तो भरभराकर गिर जाएंगीं। शरीर सूखकर कांटा हुआ जा रहा था। न दवा काम कर रही थी, न कोई दुआ। वे सोचतीं अमीना के हाथ पीले कर दूं, फिर जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रहेगी। वह बीस की उम्र पार कर रही थी। गोरा चिट्टा रंग और अच्छे नैन नक्श के बाद भी कौन स्वीकारता ऐसे घर की बेटी को। चिंता बढ़ती जा रही थी।
एक दिन सलमा आपा गश खाकर गिर पड़ीं। होश आया तो देखा कि उन्हें अमीना ने सरकारी टीबी अस्पताल में भर्ती करा दिया है। उनकी आंखें युसूफ को ढूंढ रही थीं पर वह वहां नहीं था। अमीना हफ्तों उनका इलाज कराती रही। कॉलेज के बाद रोज आ जाती और उनसे बातें करती रहतीं। एक बार युसूफ भी आया। मुंह पर रुमाल लपेटकर, कुछ पलों तक उनके पलंग के पास खड़ा रहा। कंकाल में बदल चुकी सींकिया देह वाली अपनी पत्नी के निस्तेज चेहरे को देखता रहा। उन्होंने गौर किया कि उसके चेहरे पर पछतावे या चिंता के कोई भाव नहीं थे। उस दिन का गया हुआ युसूफ फिर कभी लौटकर नहीं आया।
कुछ दिनों बाद अमीना का आना भी धीरे-धीरे कम हो गया। उसी ने एक दिन मार्था को फोन पर बताया कि कॉलेज में पढ़ने वाले अपने एक दोस्त के साथ उसने अपनी नई जिंदगी बसा ली है। युसूफ के डर से उसने इस शहर से ही अपने को दूर कर लिया था। वह कहां है, यह बात उसने मार्था के पूछने पर भी नहीं बताई।
उनकी फाइल नर्स की सफेद यूनिफॉर्म में लिपटी छोटे कद की एक सांवली लड़की मार्था के हाथों में थी। उसकी सूनी और बड़ी आंखों में उन्होंने अपने लिए एक खास किस्म का अपनापन पाया था। एक कागज के पुर्जे को पढ़ते हुए उसने आश्चर्य से उनकी तरफ देखा। फिर पूछा, "आपको पता है, आपके परिवार वालों ने आपको अस्पताल के भरोसे छोड़ दिया है। जब अस्पताल के पत्रों का कोई जवाब नहीं आया तो कुछ लोग आपके परिवार से बात करने पहुंचे और फिर पता लगा कि वे अपना मकान खाली कर कहीं और रहने चले गए हैं।"
"जी हां, इससे आगे की बात यह है कि युसूफ ने दूसरी शादी कर ली है। तिल-तिल कर मर रही औरत के लिए कौन रुकता है..." उनकी आवाज में दुख का कतरा तक नहीं था।
"मार्था, मैं इस टीबी वार्ड में अकेली बदनसीब नहीं हूं, मेरे जैसी कई औरतें हैं, जिनके परिवारों ने उन्हें यहां मरने के लिए छोड़ दिया है।" उन्होंने कुछ देर रूककर आगे जोड़ा।
उनकी देखभाल करते हुए मार्था कब उनके इतनी नजदीक आ गई, दोनों को इसका इल्म तक नहीं हुआ। वह अब उनके हिस्से का परिवार है। वह उनका दुख अपने कलेजे में सहेजती है और अपने हिस्से का प्रेम उनके कलेजे में रोपती है। दूर केरल के एक गांव में छूट गई अपनी मां को वह उनमें ढूंढ़ लेती हैं। वे कहती हैं, बची हुई सांसे मार्था की अमानत है।
टीबी वार्ड की ड्यूटी से वक्त मिलते ही वह उनके पास आ जाती है। फिर दोनों देर तक बतियाती रहती हैं। रोशनदान से झांकता धूप का एक टुकड़ा कोठरी में चहलकदमी करता रहता है। नीले पंखों वाली एक चिड़िया रोशनदान की जाली पर आ बैठती है। चिड़िया अपनी भूरी कत्थई आंखों से खिड़की के कांच के पार उनकी आंखों में झांकती है तो उन्हें लगता है जैसे ये शौकत की नजरें हैं...आत्मा तक धंसती हुई!
मनीष वैद्य
16 अगस्त 1970, धार (म.प्र.) एमए, एमफिल (हिंदी साहित्य) राहुल सांकृत्यायन पर शोध। कुछ रचनाओं का पंजाबी और उड़िया में अनुवाद। कहानी संग्रह- टुकड़े-टुकड़े धूप (2013), फुगाटी का जूता (2017)
सम्मान- कहानी संग्रह ‘फुगाटी का जूता’ पर वागीश्वरी सम्मान (2018), ‘फुगाटी का जूता’ पर ही अमर उजाला शब्द छाप सम्मान (2018), ‘फुगाटी का जूता’ पर ही शब्द साधक रचना सम्मान (2019), श्रेष्ठ कथा कुमुद टिक्कू सम्मान (2018), प्रेमचंद सृजन पीठ से कहानी के लिए सम्मान (2017), यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017), कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)