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23 September 2025

आउशवित्ज़: प्रेम और स्त्री नागरिकता के प्रश्न

 पुस्तक आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा

लेखक गरिमा श्रीवास्तव

प्रकाशक वाणी प्रकाशन

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मूल्य रु.399

होलोकॉस्ट मनुष्य की क्रूरता का चरम है और इस क्रूरता की सबसे ज्यादा शिकार स्त्रियां हुई हैं।आउशवित्ज़:एक प्रेम कथाइसी भयावह इतिहास से गुजरते हुए स्त्रियों की देह पर लिखे गए युद्ध और प्रेम की असंभव कहानियों को दर्ज करता है। गरिमा श्रीवास्तव ने इस  उपन्यास में उस तरह के प्रकरणों पर कलम चलायी है जो बिना फील्ड वर्क,प्रामाणिक इतिहास चेतना और सामाजिक समझ के असंभव था।हिंदी में युद्ध को लेकर इस स्तर का रचनात्मक लेखन विरल है।यह उपन्यास उस सच को सामने लाने का साहस करता हैजिन्हें इतिहास की किताबें में दर्ज करना ज़रूरी नहीं समझा जाता क्योंकि इतिहास की किताबें अक्सर विजयी समुदाय द्वारा लिखी जाती हैं,विजित समुदाय को  अक्सर हाशिये पर सिसकने के लिए छोड़ दिया जाता है।

स्त्री की नागरिकता का प्रश्न -इस उपन्यास का केंद्र है।कथा में आउशवित्ज़ ‘नात्सी यातना शिविर’जो आज संग्रहालय है, जिसकी दीवारें अब भी उन अनगिनत स्त्रियों की चीखों को समेटे हैं, जिन्हें यातना, बलात्कार और अपमान के साथ मौत की ओर धकेला गया।प्रोफ़ेसर हेइंज वेर्नर वेस्लर सही लिखते हैं कि यह उपन्यास प्रेम और स्वाभिमान के तन्तुओं से बुनी ऐसी कथा है, जिसके पात्र और घटनाएँ सच्ची हैं, और इतिहास स्वयं उनका मूक गवाह रह चुका है-जहाँ पर प्रतीति सेन गई है वहाँ रहकर बहुत गौर से आउशवित्ज़ शिविर के बचे -खुचे अवशेषों में दफ़न इतिहास की दरारों की और झाँकने का प्रयास करती है।प्रतीति सेन एक रिसर्चर है,कोलकाता में पढ़ाती है,विवाह उसने किया नहीं क्योंकि प्रथम प्रेम हीअसफल रहा,उसका अज्ञात कुल-शील प्रेम के मार्ग में तो नहीं विवाह के मार्ग में बाधक हुआ।

मुझे लगता है यह उपन्यास केवल कथा नहीं है, यह युद्ध और स्त्री के संबंध पर एक सैद्धांतिक हस्तक्षेप है। लेखिका का मानना है कि युद्ध चाहे कहीं भी लड़ा जाए,संघर्ष कहीं भी हो नुक़सान में स्त्री रहती है,मन और तन के स्तर पर घायल होती है वही।युद्ध अन्ततः वह स्त्री की देह पर घटित होता है। यही वह दृष्टि है जो इस उपन्यास को हिंदी साहित्य में विरल बनाती है।

स्मृतियों की बहुस्वरता

यह उपन्यास स्मृति और अनुभव का ऐसा ताना-बाना रचता है, जिसमें हर पात्र की आत्मकथा सामूहिक इतिहास में जाकर मिलती है। शिल्प की दृष्टि से यह एकबहु-स्वरात्मक आख्यानहै।हर अध्याय में अलग-अलग पात्र अपने अतीत के अंधेरों और उजालों को खोजते हैं। स्मृतियाँ यहाँ केवल निजी अनुभव नहीं रह जातीं, वह राजनीतिक और सामाजिक त्रासदियों का साक्ष्य बन जाती हैं।

जब प्रतीति सेन आउशवित्ज़ की यात्रा करती है, तो वह केवल नाज़ी हिंसा के इतिहास को देखने नहीं जाती, बल्कि अपने भीतर दबे उन सवालों से भी सम्मुख होती है जिनसे वह लंबे समय से बचती रही है। यह सफ़र उसे अपने व्यक्तित्व की अंतस तक ले जाता है, जहाँ प्रतीति और रहमाना ख़ातून की पहचानें एक-दूसरे में घुल-मिल जाती हैं। इस रूपांतरण में उपन्यास मानो यह कहना चाहता है कि स्मृति और पहचान स्थिर नहीं होतीं; वे इतिहास, हिंसा और प्रेम के दबाव में बार-बार नई आकृति ग्रहण करती हैं।

तीन अलग-अलग कालखंडों और भूगोलों से आई औरतें, प्रतीति, रहमाना और सबीना, अपनी प्रेमकथाओं को बयान करती हैं।उनकी कहानियाँ व्यक्तिगत विफलताओं का लेखा-जोखा नहीं, उस सामाजिक सच्चाई की पड़ताल भी हैं जिसमें प्रेम बार-बार अधूरा रह जाता है। यह अधूरापन पुरुषसत्तात्मक सोच का नतीजा है, जो औरत को स्वायत्त अस्तित्व मानने से इंकार करता है। साथ ही यह फासीवादी राजनीति का भी दुष्परिणाम है, जो इंसान को उसके धर्म, जाति और राष्ट्र की पहचान में कैद कर देती है।

उपन्यास इस बुनियादी सच को प्रत्यक्षकरता है कि प्रेम की पूर्णता किसी एक जोड़े की निजी उपलब्धि नहीं, बल्कि एक मानवीय-सामाजिक विजय है। जब तक इंसान खुद को संकीर्ण पहचानों के घेरे में बाँधकर देखेगा, तब तक प्रेम हमेशा अधूरा और असुरक्षित रहेगा। यह रचना हमें इस पीड़ा से गुज़ारते हुए यह सवाल भी छोड़ जाती है, क्या हम कभी ऐसी दुनिया बना पाएँगे जहाँ प्रेम को उसकी सम्पूर्णता में जीना संभव हो?

होलोकॉस्ट सेआउशवित्ज़ : एक प्रेम कथातक  

पुस्तक में जो तथ्य और प्रसंग आते हैं, वे हमें झकझोरते हैं। आउशवित्ज़ में स्त्रियों पर हुए यौन अपराधों के विवरण ऐसे हैं कि पाठक पढ़ते-पढ़ते भी आँखें मूँद लेना चाहता है। किंतु आँखें मूँद लेने से इतिहास मिटता नहीं। यही हिंसा बांग्लादेश युद्ध (1971) में भी दोहराई गई, जहाँ पाकिस्तानी सेना और मुक्तिवाहिनी दोनों ने स्त्रियों पर हमला किया। आज के भारत में भी हम पूर्वोत्तर, दिल्ली दंगों और हाथरस आदि, जैसे प्रसंगों में इसी नृशंस राजनीति कीस्वर सुनते हैं।

इतिहास हमें यह सिखाता है कि सत्ता जब नफ़रत और जातीय-धार्मिक घृणा से संचालित होती है, तब सबसे पहले स्त्रियों और कमजोर समुदायों के शरीर ही हिंसा का निशाना बनते हैं। यह पुस्तक हमें आगाह करती है कि यदि समाज सचेत न हुआ तो अतीत के यही भयावह अध्याय वर्तमान और भविष्य में बार-बार लौटते रहेंगे।

फासीवाद की राजनीति और स्त्रियाँ

उपन्यास हमें यह समझाता है कि हिटलर अकेला अपराधी नहीं था। उसकी नस्लीय घृणा लाखों दिमागों में बोई गई थी। आदेश का पालन करने के नाम पर लोग ज़ॉम्बी बन गए, उन्होंने इंसानियत का परित्याग कर दिया। यही राजनीति आज भी काम कर रही है। भारत जैसे लोकतंत्र में भी डिटेंशन कैंप बनाए जा रहे हैं, नागरिकता के नाम पर मुसलमानों को कैद किया जा रहा है।

स्त्रियाँ इस राजनीति की दोहरी शिकार हैं। वे दुश्मन की ‘संपत्ति’ मानी जाती हैं, इसलिए उन पर हिंसा करना युद्ध या दंगे का अनिवार्य हिस्सा बना दिया जाता है। उपन्यास में एक अधेड़ औरत का युद्ध में बलात्कार के बाद त्यागा जाना और उसकी नातिन प्रतीति सेन का अपने प्रेम को खोना, यह पीड़ा हमें दिखाती है कि इतिहास और वर्तमान कितनी गहराई से जुड़ते हैं। इसी तरह एक प्रसंग में दिखाया गया है कि कैसे शरणार्थी शिविरों में महिलाओं के शरीर को ही पहचान-पत्र बना दिया जाता है, उनका अस्तित्व मानो कागज़ों और शिकंजों में सिमट जाता है। एक अन्य प्रसंग में, प्रतीति की सहेली बताती है कि उसके दादा ने दंगे के दिनों में अपनी बेटियों को बचाने के लिए उन्हें ‘बीमार’ घोषित कर छिपा दिया, लेकिन इसके बावजूद वह भय और अपमान से कभी मुक्त नहीं हो पाईं।

ये प्रसंग याद दिलाते हैं कि स्त्रियों पर अत्याचार सिर्फ इतिहास की कथा नहीं, बल्कि वर्तमान की राजनीति का जीवित रूप है, जहाँ सत्ता और पितृसत्ता मिलकर स्त्री की स्वतंत्रता और अस्तित्व दोनों को लूटते हैं।

प्रेम की असंभवता

आख़िरकार यह उपन्यास प्रेम की उस असंभवता की कथा है, जिसे मानव अभी तक पा नहीं सका है। जाँ-पॉल सार्त्र ने लिखा था, ‘मनुष्य वही है जो अपने किए हुए कर्मों से बनता है।यही पंक्ति उपन्यास के भीतर बार-बार ध्वनित होती है। प्रेम तब तक अधूरा रहेगा जब तक समाज विभाजन और घृणा के काँटों से भरा रहेगा।

प्रतीति सेन की यात्रा इस बात की गवाही है कि स्त्री के लिए प्रेम और स्वाभिमान अलग नहीं हैं। जब उसका प्रेम छिनता है तो उसका स्वाभिमान भी आहत होता है। और यही उसकी त्रासदी को सार्वभौमिक बना देता है।

कथा के पात्र केवल सत्ता या व्यवस्था के शिकार नहीं हैं, बल्कि उस सामूहिक भूल के प्रतीक भी हैं जिसमें मनुष्य अपनी सोचने की क्षमता, अपने विवेक को त्याग देता है। उपन्यास बार-बार याद दिलाता है कि मनुष्य होने का अर्थ केवल जन्म से मनुष्य होना नहीं है, बल्कि अपने विवेक और संवेदना को सक्रिय रखना है।

आउशवित्ज़ : एक प्रेम कथा हमें याद दिलाती है कि इतिहास केवल तारीखों का सिलसिला नहीं, बल्कि स्त्रियों की देह पर लिखी अमिट लकीरें भी है। गरिमा श्रीवास्तव ने जिस साहस और दृष्टि से इस उपन्यास को रचा है, वह हिंदी साहित्य में बहुत कम दिखाई देता है।

यह किताब अपने समय और राजनीति को समझने के लिए आवश्यक है। यह हमें हमारे भीतर छिपी हुई ‘हिटलरी क्रूरता’ को पहचानने और उससे लड़ने का आह्वान करती है।

(आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं और साहित्य तथा संस्कृति पर लेखन करते हैं।)

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TAGS: Auschwitz, Love and Question, Female Citizenship
OUTLOOK 23 September, 2025
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