भारत के प्रधानमंत्री: लोकत्रांतिक भारत की प्रगति और बाधाओं के बारे में सोचने के सूत्र देती किताब
पुस्तक: भारत के प्रधानमंत्री: देश, दशा, दिशा
लेखक : रशीद किदवई
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन (सार्थक)
मूल्य: रु.299
यह 'व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी' का दौर है, जिसमें तकनीक और संचार के विस्तार से सूचनाएं जितनी तेजी से लोगों तक पहुंच रही हैं, उतनी ही तेजी से अफवाहें भी फैल रही हैं। यह भी एक कारण है कि लोगों में राजनीतिक जागरुकता और रुचि दोनों का भाव स्पष्ट नजर आने लगा है, जिसके पीछे कुछ चिंता जनक पहलू भी हैं, प्रमुख रुप से एक तो यही कि सोशल मीडिया पर चलाए जा रहे राजनीतिक अभियान और एंजेडे कहीं इतिहास की सच्चाइयां को दर किनार करते हुए, तमाम तरह की मनगढ़ंत बातों के जरिए एक पीढ़ी को भ्रमित तो नहीं कर देंगे।
ऐसे समय में अपने देश केस भी शीर्ष नेतृत्व कर्ताओं के व्यक्तित्व, कार्यों, नीतियों और उन के प्रभावों पर केंद्रित एक किताब आई है, नाम है- भारत के प्रधानमंत्री, जिसमें जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक 15 प्रधान मंत्रियों का बेबाक मूल्यांकन किया गया है, सुपरिचित पत्र का ररशीद कि दवई द्वारा लिखित और राज कमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक लोकतंत्र के प्रति संवेदनशील हर नागरिक के लिए एक जरुरी दस्तावेज है।
स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में प्रकाशित यह पुस्तक भारत के सभी प्रधानमंत्रियों के बहाने लोक तंत्र के रुप में भारत की प्रगति तथा उसके रास्ते में खड़े अवरोधों के बारे में सोचने के सूत्र देती है।
पुस्तक में स्वतंत्रता के बाद बतौर पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का विकास के प्रतिदृष्टिकोण बताया गया है, जिसमें समतावादी आधुनिक भारत की अवधारणा नजर आती है, एक ऐसी सोच नजर आती है जिस में शासन तंत्र के अंतर्गत वैज्ञानिकता के साथ सामूहिक चेतना का समावेशन भी है। औद्योगिकरण के साथ समाजवाद और धर्म निरपेक्षता उनके विकास के मॉडल में स्पष्ट दिखता है।
नेहरू कितने उदार थे कि वर्ष 1947 में स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल बनातो उन्होंने अपनी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस केसाथ विपक्ष यानी समाजवादी नेताओं के अलावा कांग्रेस के कट्टर विरोधी जन संघ के नेताओंको भी शामिल किया था।
इस मंत्रिमंडल में नेहरू के मुखर आलोचक डॉ.भीमराव आंबेडकर व श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं को रखा था, नेहरू के बाद उनके इस कारनामें को कोई दूसरा प्रधानमंत्री दोहरा नहीं पाया।
किताब में नेहरू के बाद गुलजारी लालनन्दा के बारे में बताया गया है, हालांकि, गुलजारी लालनन्दा दोबार प्रधामंत्री बनें, लेकिन उनका कार्यकाल महज चंद दिनों के लिए ही था, उनके शीर्षपद पर बैठने की घटनाएं महज तथ्य भर नहीं हैं, इन घटनाओं के पीछे की सच्ची कहानियां राजनीतिक दिलचस्पी जगाती हैं।
उसके बाद देश की कमान सभांलने वाले लाल बहादुर शास्त्री ने चीन से युद्ध के बाद देश की नाजुक स्थिति और गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना किया था। यह किताब शास्त्री के खाद्यान्न संकट से निपटने के साथ सतत बढ़ती मंहगाई को नियंत्रित करने जैसे कार्यों को रेखांकित करती है। साथ ही, यहां 1965 के युद्ध में पाकिस्तान पर विजय को राजनीतिक सुदृढ़ता के तौर पर दर्ज किया गया है।
शास्त्री केअचनक निधन से वर्ष 1966 में देश की बाग डोर इंदिरा गांधी के हाथों में आई। देश पर तब तक दो दो युद्धों की मार पड़ चुकीथी। वह राजनीतिक अस्थिरता का दौर था, खादान्न की कमी और मंहगाई से देश जुझ रहा था। ऐसी परिस्थिति में इंदिरा गांधी ने बड़े उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण की प्रबल पक्ष धरता दिखाई। देश के 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण उनका बहुत बड़ा कदम था। शुरुआती आलोचनाओं के बाद बाद में गांधी का कदम अहम साबित हुआ, क्योंकि इससे कृषि क्षेत्र को कर्ज देना आसान हो गया। हालांकि, उनके दौर में विदेशी निवेश कम हुआ।
वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी के आपातकाल लगा ने जैसे आत्मघाती कदम ने जनता पार्टी के उभार हो मौका दिया, जिसकी 1977 में जब सरकार बनी तो मेरार जी देसाई इसके प्रधानमंत्री बने। यह देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी, रशीद कि दवई ने अपनी किताब में गंभीर विश्लेषण किया है कि देसाई ने कांग्रेस की नीतियों व कामकाज से हटकर कैसे देश की दिशा तय करने के प्रयास किए थे।
इसी कड़ी में वर्ष 1979 में चौधरी चरण सिंह संक्षिप्त काल के लिए भारत के प्रधानमंत्री बने। हालांकि, वह कम समय तक प्रधानमंत्री जरुर रहे, लेकिन, रशीद कि दवई यहां यह बताने की कोशिश जरुर करते हैं कि चौधरी चरण सिंह ने किस प्रकार से जिला स्तर से लेकर प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर पर कड़ी मेहनत और संघर्ष किया था और एक समय के बाद वह कांग्रेस के खिलाफ एक सशक्त आवाज बन कर उभरे।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, जोकि प्रधानमंत्री बनने से घबरा रहे थे।उन्होंने खुद को युवा भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया। राजीव गांधी के समय से आर्थिक सुधारों की वकालत शुरु हुई और आर्थिक उदारीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विश्वनाथ प्रताप सिंह जो कि वर्ष 1989 में प्रधानमंत्री बने, मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए जाना जाता है। जिससे अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलने लगा।
चंद्रशेखर वर्ष 1990 में प्रधानमंत्री बने एक सच्चे समाजवादी नेता थे। प्रधानमंत्री के रुप में इन्हीं समाजवादी आदर्शों की स्थापना तथा आर्थिक व सामाजिक सुधार के सार्थक प्रयास के लिए उन्हें याद कियाजाता रहेगा।
देश के अगले प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हाराव के नेतृव्य में डॉ. मन मोहन सिंह के आर्थिक सुधारों की कहानी को इस किताब में बारीक सूत्रों को जोड़ते हुए बयां किया गया है। अहम बातयह बताई गई है कि अगली कड़ी में वर्ष 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने आर्थिक सुधार जारी रखे। अटल बिहारी वाजपेयी का महत्त्वपूर्णइस मायने में महत्त्वपूर्ण देखा गया कि उन्होंने भाजपा को देश की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर स्थापित करने में अहम भूमिका अदा की।
फिर वर्ष 1996 में एच. डी. देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इस रुप में प्रस्तुत किया गया है कि उन्होंने अपनी क्षेत्रीय छवि पर ज्यादा ध्यान दिया। उन्होंने राव के कार्यकाल की आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाया। वर्ष 1997 में इन्द्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी आर्थिक सुधारों की यात्रा को जारी रखा। उन्होंने सैद्धांतिक तौर पर विदेशनीति को मजबूत करने के लिए या दरखा जाना चाहिए।
वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री बने डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका को रशीद कि दवई ने एक आकर्षक कथा के तौर पर पिरोया है। डॉ. वाई. के. अलघने डॉ. मनमोहन सिंह को आंके गए राजनीतिक तथा बहुत बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किए गए अर्थशास्त्री कहा था। रशीद कि दवई लिखते हैं, ''मन मोहन बाहरी जगत के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सम्मुख गौण व्यक्ति के रुपमें पस्तुत होते रहे, लेकिन वास्तव में सोनिया उनका बहुत आदर करती हैं। उन्होंने सदैव मन मोहन की बुद्धिमत्ताव अनुभव दिया तथा कभी कभी रही उनके प्रशासनिक काम काज में दखल दिया।''
वर्ष 2014 को नरेन्द्र मोदी ने भी दिखावे के तौर पर ही नेहरु की विरासत को दर किनार कर काम करनेका विकप्लचुना। लेकिन, व्यवहारिक तौर पर उन्होंने भी आर्थिक नीतियों को ही आगे बढ़ाया।'योजना आयोग' का नाम बदला और रेलवे बजट को भी मुख्य बजट में शामिल कर लिया। भविष्य में उनके द्वारा किए गए कार्यों की समीक्षा की होगी, लेकिन जब भी उनके काम काज की समीक्षा होगी, इस बात का नजर अंदाज करना मुश्किल होगा कि वह देश के सबसे अधिक लोकप्रिया नेताओं में से एक रहे।
प्रधानमंत्रियों की सफलताओं और विफलताओं की रौशनी में यह किताब भारतीय लोकतंत्रकी विकास - यात्रा को रेखांकित करती है जिसमें उसकी उपलब्धियाँ और चुनौतियां, दोनों दर्ज हैं। देश जब स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब ‘भारत के प्रधानमंत्री’ किताब एक जरूरी उपहार की तरह है। इसे हर भारतीय नागरिक को पढ़ना चाहिए। सोशलमीडिया के दौर में भ्रामक सूचनाओं का प्रसार चरम पर है। ऐसे में यह किताब स्वतंत्र भारत केक्रमिक नेतृत्व और विकास का वास्तविक लेखा जोखा पेश करती है।
भारत के सभी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तित्व, कार्यो, नीतियों और उनके प्रभावों पर केन्द्रित इस किताब का महत्त्व असंदिग्ध है।
(समीक्षक आशुतोष कुमार ठाकुर बैंगलोर में रहते हैं। पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं।)