दीवार पार की कथा
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीनी भाषा के प्राध्यापक बी.आर. दीपक की आत्मकथा ‘दीवार के उस पार’ में उनकी जीवनयात्रा के साथ-साथ विचार यात्रा भी शामिल है। अपने जीवन से जुड़ी कथाओं के बीच लेखक ने सातवीं शताब्दी में भारत आए महान चीनी यात्री श्वानत्सांग से लेकर आधुनिक युग के महान भारत प्रेमी पद्मश्री ची श्येनलिन के भारत से जुड़ाव तक की जानकारी दी है। कुल्लू के एक गांव में पैदा हुए दीपक ने बचपन, पहाड़ी किसानों के कठिन जीवन और शिक्षा से संबंधित कठिनाइयों की चर्चा के साथ-साथ बौद्ध भिक्षु श्वानत्सांग ह्नेनसांग के लाहुल और स्पीति से होकर 634-35 में कुलूत (आज का कुल्लू) आने का विस्तार से वर्णन करते हैं। इतिहास-भूगोल उनके प्रिय विषय रहे हैं। दोनों विषयों के गहरे अध्ययन ने भी इस आत्मकथा को समृद्ध किया है।
वे सुदूर हिमाचल से चीनी भाषा के अध्ययन के लिए जेएनयू आए और पी.एच.डी करने के लिए पीकिंग विश्वविद्यालय चले गए। वहां उन्होंने पढ़ाई के साथ तत्कालीन चीन को देखने और समझने का प्रयत्न किया। वहां के जीवन और इतिहास के साथ भारत-चीन के प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों का अध्ययन किया। चीनी सैनिकों की चिकित्सकीय सहायता के लिए भारत से चीन भेजे गए डॉ. कोटणिस की लोकप्रियता को भी नोटिस किया और यह सब वे तब कर रहे थे, जब 1962 के युद्ध के बाद भारत-चीन के संबंध खास अच्छे नहीं रह गए थे। यह पुस्तक इस मायने में प्रेरणादायी भी है कि इसमें जेएनयू में पढ़ने आए किसान परिवार के एक बच्चे के संघर्ष को विस्तार से लिखा गया है।
भारत और चीन के प्राचीन सांस्कृतिक संबंध, बौद्ध-भिक्षु और महान यात्री श्वानत्सांग की भारत यात्रा के वृत्तांत, डॉ. कोटणिस की कहानी और अनन्य भारत प्रेमी ची श्येनलिन के सर्जनात्मक अवदानों की झलक पाने के साथ ही बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में उतार-चढ़ाव के बीच दोनों देशों के राजनीतिक संबंधों की जटिलता को समझने की दृष्टि से यह एक जरूरी पुस्तक है। उत्तर बुद्धकाल से ही सांस्कृतिक रूप से गहरे जुड़े होने के बावजूद चीन हमारे लिए एक पहेली की तरह रहा है। दीवार के उस पार की दुनिया बहुत जानी-पहचानी कभी नहीं रही। दीपक ने पहली बार उस पार की दुनिया को जानने का एक अवसर इस पुस्तक के माध्यम से दिया है।